नरेंद्र मोदी को हाल में यूपी में शानदार जीत मिली है. इससे 2019 में उनके दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने का रास्ता भी लगभग साफ हो गया है. इस जीत का जश्न मनाते वक्त मोदी ने बताया कि वह अगले सात साल में देश के लिए क्या करने वाले हैं. हालांकि, इसमें उन्होंने इस बात का जिक्र नहीं किया कि वह अपनी पार्टी के लिए कुछ बौद्धिक सम्मान भी हासिल करेंगे. उसकी वजह यह है कि मोदी को ‘बुद्धिजीवी’ जैसी कोई चीज पसंद नहीं है. वह बुद्धिजीवियों के बारे में कहते हैं कि वो कोई भी काम नहीं कर पाते.
उनकी कुछ बातें सही भी हैं. ज्यादातर भारतीय बुद्धिजीवी- अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, राजनीति जानकार- वामपंथी रुझान वाले हैं और वे खुद को गरीबों का चैंपियन साबित करते रहे हैं. इन सभी को कांग्रेस के खुराक मिलती आई थी.
हाल के वर्षों में बुद्धिजीवियों का एक और समूह उभरा है. इन्हें संस्थानों से संरक्षण मिल रहा है. जिस तरह से मार्क्सवादी और कांग्रेस पार्टी में उनके सूफी भाई हर चीज को गरीबी के चश्मे से देखते थे, उसी तरह से ये संस्थान हर बात को लोकतांत्रिक संगठनों के पतन से जोड़कर देखते हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है. बात सिर्फ इतनी है कि संबंधित संस्थान अच्छा है या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि वे ऐसा कहते हैं या नहीं!
उनके लिए इसका कोई मतलब नहीं है कि दुनिया के अच्छे संस्थान समय के हिसाब से खुद को बदल रहे हैं. इस ग्रुप के दुख का कारण वह पश्चिमी मानसिकता है कि समाज किस तरह का होना चाहिए. पहले इस तरह के आइडिया लंदन से आते थे. अब ये अमेरिका से आ रहे हैं. सिर्फ इतना ही बदला है.
असल दिक्कत क्या है?
इन लोगों ने हमारे देश में विचार-विमर्श और बहस पर इस कदर कब्जा कर रखा है कि एक भ्रम बन गया है कि सिर्फ उनकी सोच ही सही है, भले ही उनकी धारणा दूसरे लोगों बेहतर या खराब ना हो, जो उनसे अलग राय रखते हैं. दोनों तरह के ऐसे बुद्धिजीवियों के मुताबिक, बीजेपी में वैसे दिमाग नहीं हैं, जो विविधता वाले इस देश का शासन अच्छी तरह चला सकें.
बीजेपी का बिग आइडिया
इससे वह सबसे बड़ी समस्या सामने आती है, जिसे बीजेपी को आज सुलझाने की जरूरत है- 21वीं शताब्दी के पहले 50 साल में भारत को लेकर सेंट्रल आइडिया क्या होगा? 1900 से 1950 के बीच इस तरह का एक विचार कांग्रेस की तरफ से आया था और इसमें अंग्रेजों से आजादी की बात कही गई थी. 1950 के बाद यह आइडिया राजनीतिक, सामाजिक और लोगों के सशक्तिकरण का था. यह आइडिया भी कांग्रेस की ओर से ही आया था. कांग्रेस के पहले दो आइडिया को काफी सफलता मिली.
हालांकि, इसमें एक दिक्कत भी थी. जब आप हर किसी को एम्पावर करते हैं और वह भी एक बराबर तो यह फैसला करना मुश्किल होता है कि बड़ा आइडिया क्या होगा? उसकी वजह यह है कि यहां कौन सा आइडिया बड़ा है और कौन सा प्रायरिटी लिस्ट में ऊपर, यह तय नहीं होता. इसलिए हर आइडिया के बराबर और उसके विरोध में भी एक आइडिया है. इसे भी दूसरे सभी आइडिया की तरह वैलिड मान लिया गया है.
नरेंद्र मोदी के सेंट्रल मैसेज से इसका स्पष्ट पता चलता है. इसमें इन विचारों की कोई प्रायरिटी लिस्ट नहीं दिखती. इसी मैसेज की वजह से उन्हें सत्ता मिली है और यह आइडिया विकास है। विकास का फायदा दूसरों तक पहुंचाना इसमें बाय-प्रॉडक्ट है. आज यह आइडिया डिस्ट्रीब्यूशन के जरिये डिवेलपमेंट हो गया है और इसमें ग्रोथ बाय-प्रॉडक्ट बन गया है. इसलिए हम एक तरह से 1970 के दशक में वापस लौट आए है.
सामाजिक नीतियां
मैं पिछले तीन दशकों से यह कह रहा हूं कि पश्चिमी देशों की तरह हमारे यहां राइट बनाम लेफ्ट जैसी कोई स्पष्ट चुनावी लोकतंत्र नहीं है. उसकी वजह यह है कि ये कॉनसेप्ट अलग-अलग बिंदुओं से उभरे हैं.
भारत में इसके उलट गरीबों का वोट हासिल करने की मारामारी है, जिनकी सबसे अधिक संख्या है. इस वजह से हर पार्टी को ऐसी नीतियां बनानी पड़ती हैं, जिसमें इनकम और संपत्ति के री-डिस्ट्रीब्यूशन पर फोकस हो. इस तरह से देखें तो देश में हर पार्टी ही वामपंथी है.
सामाजिक तौर पर बीजेपी अपनी सोच स्पष्ट नहीं कर पाई है. उसे अगले कुछ साल में इस पर ध्यान देना चाहिए ताकि वह इस मामले में भी अपनी पहचान स्पष्ट कर सके. वह चुनाव जीत चुकी है और अब उसे इस मामले में सफलता हासिल करनी है.
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