आदित्यनाथ योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं. ये भी सही है कि योगी का नाम चुनाव के पहले से, चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद भी सबसे ज्यादा मजबूती से मुख्यमंत्री के लिए सामने आता रहा. लेकिन हम मीडिया विश्लेषकों को ये लगता रहा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्य में किसी भी ऐसे मजबूत नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे, जिसकी अपनी ही बड़ी हैसियत हो.
इसी आधार पर राजनाथ सिंह का नाम भी खारिज किया जाता रहा. हालांकि राजनाथ ने दिल्ली मीडिया में अपने सम्बन्धों की बूते इस खबर को मजबूती से चलवा लिया कि उनके इनकार करने के बाद ही कोई यूपी का मुख्यमंत्री बन सकेगा. जबकि यह सच्चाई अब जगजाहिर हो चुकी है कि राजनाथ किसी भी वक्त प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं थे.
इसी दौरान मीडिया में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर का नरेंद्र मोदी के मुकाबले महागठबंधन का प्रस्ताव भी बड़ी मजबूती से चला. कुछ इस तरह उस प्रस्ताव पर विपक्षी नेताओं के साथ ही मीडिया विश्लेषकों के बयान आने लगे कि बस अब महागठबंधन बना और कल-परसों से देशभर में मोदी के मुकाबले विपक्षी एकता नजर आने लगेगी. इस काल्पनिक विपक्षी एकता के बूते मीडिया ने ये भी बताना शुरू कर दिया कि दरअसल मायावती के साथ न आने से 'सांप्रदायिक' बीजेपी इस तरह जीत गई. अगर सभी 'धर्मनिरेपक्ष' दल एकसाथ आ जाएं, तो बीजेपी कहीं की नहीं रहेगी.
ये गलतफहमी राजनीतिक दलों के साथ-साथ मीडिया के बड़े हिस्से को हुई है, क्योंकि मीडिया का बड़ा वर्ग तय खांचों-पैमानों पर बीजेपी को कसकर अपनी राय बना लेता है और उसी राय को जनता की राय बनाने की कोशिश करता है. उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक को तो बुद्धिजीवी, पत्रकार किसी भी तरह बेहतर आंकने को तैयार ही नहीं हैं.
पूरा मीडिया नोटबंदी से लेकर मोदी सरकार के हर फैसले को एक तय पैमाने पर गलत आंक रहा था. इतना ही नहीं, यूपी के मुख्यमंत्री के नाम का अंदाजा भी उन्हीं पैमानों पर तय कर रहा था.
जाहिर है, उस पैमाने पर मीडिया, बुद्धिजीवियों को गलत साबित ही होना था. वजह एकदम साफ है. मीडिया, बुद्धिजीवियों का विश्लेषण इस बुनियादी समझ पर टिका था कि मोदी राज्य में किसी मजबूत नेता को नहीं चाहेंगे.
दरअसल, मीडिया और बुद्धिजीवी विश्लेषण करने और अनुमान लगाने में ये बात भूल गए कि नरेंद्र मोदी क्या हैं. नरेंद्र मोदी मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक हैं. मोदी संघ के प्रचारक रहते ही बीजेपी में गए और फिर गुजरात के मुख्यमंत्री बने. इसके बाद लालकृष्ण आडवाणी जैसे घोर हिंदूवादी छवि वाले नेता को किनारे करके बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन गए. इसके बाद पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी सरकार के प्रधानमंत्री भी बन गए.
2014 के लोकसभा चुनाव में संघ जिस तरह से खुले तौर पर सक्रिय हुआ, वैसा कभी नहीं हुआ था. ये पढ़ते हुए आपको लगेगा कि इसमें नया क्या है? दरअसल, इसी बहुत पुरानी बात को लेफ्ट और लिबरल लेफ्ट मीडिया हर बार भूल जाता है. इसीलिए इसे याद दिलाना जरूरी हो जाता है.
अगर ये याद रहता, तो विश्लेषण करते ये भी याद रहता कि नरेंद्र मोदी जिस विचार को लेकर आगे बढ़ रहे हैं, वो विचार आरएसएस से ही निकला है. कमाल की बात ये भी है कि संघ तो अपने विचार को सर्वग्राह्य बनाने के लिए जरूरी सुधार के साथ काम करता रहता है. लेकिन संघ पर टिप्पणी करने वाले ज्यादातर सिर्फ तय धारणाओं के आधार पर ही राय बनाते हैं. इसीलिए उन्हें ये नहीं समझ आया कि नरेंद्र मोदी संघ के उसी विचार को आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री बने हैं, जो छद्म धर्मनिरेपक्षता की राजनीति को ही खत्म करने की बात करता है.
इसीलिए जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं, तो वो संघ के ही विचार को आगे बढ़ाते हैं. देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हिंदू एकता की राजनीति का अब तक का सबसे सफल प्रयोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीजेपी के जरिए किया है. निश्चित तौर पर इस प्रयोग के लिए संघ का सबसे भरोसेमंद चेहरा नरेंद्र मोदी ही हैं. इसीलिए जब मनोज सिन्हा के नाम पर अमित शाह ने पूरी तरह मन बना लिया था, तो संघ को एक बात एकदम साफ-साफ दिख रही थी.
संघ को दिख रहा था कि जिस जाति को तोड़कर हिंदू एकता की पक्की बुनियाद यूपी चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलाने में कामयाब रहा है, फिर से उसी जाति के जंजाल में बीजेपी फंसने जा रही है.
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नजरिया पहले से ही इस बात को लेकर स्पष्ट था. बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह पिछले साल जनवरी में ही मनोज सिन्हा को यूपी बीजेपी का अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे. लेकिन तब भी संघ ने इस विचार को खारिज कर दिया था. खारिज करने का आधार वही जाति की राजनीति के सिर उठाने का था.
मनोज सिन्हा भूमिहार जाति से आते हैं, जो प्रदेश में बमुश्किल 0.5% है. लेकिन भूमिहारों की जातीय एकता तगड़ी होने से वो बेहतर स्थिति में नजर आते हैं. संघ इस बात को लेकर स्पष्ट था कि बीजेपी में ऊंची जातियों के दबदबे के बीच पिछड़ी जातियों का दखल नजर आना चाहिए. उसी फॉर्मूले के तहत केशव प्रसाद मौर्य को अध्यक्ष बनाया गया. मुख्यमंत्री के नाम पर भी संघ एकदम स्पष्ट था कि किसी भी कीमत पर जाति का नेता मुख्यमंत्री नहीं बनेगा.
मनोज सिन्हा के नाम पर पिछड़ी और दूसरी जातियों से मिल रही प्रतिक्रिया से संघ की चिंता बढ़ने लगी कि मुश्किल से तैयार हुई हिंदू एकता की जमीन दरक जाएगी और जातियां निकलकर मजबूत होने लगेंगी. यही वो वजह थी, जो नरेंद्र मोदी को भी समझ में आ गई.
इसी दौरान सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में बीजेपी के करीब 41% मतों के सामने सपा-कांग्रेस-बसपा के 50% से ज्यादा मत दिखाए लाने लगे. यूपी में भी बीजेपी के बिहार के हाल में पहुंचने के विश्लेषणों ने भी संघ का पक्ष मजबूत करने में बड़ा योगदान किया.
संघ पर हिंदू ध्रुवीकरण के आरोप लगते हैं, लेकिन संघ ने हिंदू ध्रुवीकरण को हिंदू एकता में शानदार तरीके से बदल दिया है. हिंदू ध्रुवीकरण मुसलमानों के एकजुट होने की प्रतिक्रिया थी और हिंदू एकता हिंदुओं के एकजुट होने की क्रिया है.
प्रतिक्रिया से क्रिया में बदली ये संघ की सफल रणनीति ही थी, जिसने नरेंद्र मोदी को आदित्यनाथ योगी को यूपी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार कर लिया.
मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे पर कोई असर नहीं पड़े, इसके लिए संघ ने बीजेपी विधायक दल के बाहर से एक मुसलमान नेता को मंत्रिमंडल में शामिल करा लिया.
विधानसभा चुनावों के दौरान मैं यूपी बीजेपी कार्यालय में था. मोहसिन रजा ने बीजेपी प्रवक्ता मनीष शुक्ला से आकर पूछा कि आज मुझे किस चैनल पर बहस के लिए जाना है. यूपी बीजेपी ने टीवी पर बहस में जाने के लिए कई नाम तय किए थे, उनमें से एक नाम मोहसिन रजा का था. मोहसिन प्रवक्ता भी नहीं थे. तब किसे पता था कि वे 'सबका साथ, सबका विकास' वाली बीजेपी में बिना विधायक हुए मंत्री बनने जा रहे हैं.
मणिशंकर अय्यर की महागठबंधन की कल्पना अभी साकार होने से कोसों दूर है और आदित्यनाथ योगी की सरकार में एक मुसलमान ने राज्यमंत्री के तौर पर शपथ भी ले ली है. संघ-बीजेपी-मोदी का विश्लेषण करने वालों को होमवर्क मजबूत करने की जरूरत है. वरना अभी और कई आकलन पूरी तरह ध्वस्त होंगे.
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(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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