मोदी सरकार ने तीन साल पूरे कर लिए हैं. जैसा कि किसी भी सरकार के कार्यकाल के बीच में होता है, इस सरकार का भी रिकॉर्ड मिला-जुला रहा है. मोदी सरकार को कुछ सफलताएं मिली हैं, तो कुछ विफलताएं भी हाथ लगी हैं. सफलताएं काफी हद तक राजनीतिक रही हैं. नाकामियां बहुत हद तक आर्थिक.
विरोधाभास यह है कि मोदी सत्ता में विकास का वादा करके आए थे. उन्होंने इसी के लिए ‘अच्छे दिन’ का नारा दिया था. हालांकि, अभी तक वह कुछ भी ऐसा नहीं कर पाए हैं, जिनसे अच्छे दिनों का अहसास हो. लेकिन वोटरों ने उन्हें रिजेक्ट नहीं किया है.
बढ़ता जा रहा है बीजेपी का दायरा
सच तो यह है कि मार्च में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जनता ने मोदी को गले लगा लिया और बीजेपी को दो-तिहाई बहुमत मिला. इससे पहले पार्टी जम्मू-कश्मीर और बाद में असम में गठबंधन सरकारें बनाने में सफल रही. 2001 से 2012 के बीच गुजरात में भी ऐसा हो चुका है. मोदी तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री चुने गए, लेकिन इस दौरान उनका इकोनॉमिक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा था.
कुछ और चुनाव होने जा रहे हैं. देखना होगा कि इनमें बीजेपी का प्रदर्शन कैसा रहता है.
हालांकि, अभी एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि बीजेपी के राजनीतिक गुणा-भाग को बिगाड़ने वाली कोई चीज नहीं हुई है. इसके उलट उसका दायरा बढ़ रहा है. पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु, जहां पार्टी को कोई उम्मीद नहीं थी, अब उसके नए टारगेट हैं.
मोदी सफल हैं या नाकाम?
मोदी की राजनीतिक सफलता और सरकार की आर्थिक विफलता से उन लोगों को दिक्कत हो रही है, जो मोदी के अप्रोच को समझने की कोशिश कर रहे हैं.
पिछले तीन साल में यह बात साफ हो गई है कि वह बड़ी और नाटकीय चीजों पर यकीन रखते हैं. इस मामले में दिसंबर, 2015 में इस्लामाबाद की चौंकाने वाली यात्रा, इसके एक साल बाद की नोटबंदी, सीमापार जाकर पाकिस्तान की सेना पर हमला, अचानक 'तिहरे तलाक' पर मुस्लिम महिलाओं की तरफ होने जैसी बातों की मिसाल दी जा सकती है.
सच यह भी है कि इन कदमों से सरकार को कोई गैर-राजनीतिक फायदा नहीं हुआ है. अगर तिहरे तलाक के जुए की बात न करें, तो ये सभी कदम फ्लॉप हो चुके हैं. 'तिहरे तलाक' वाले मामले के चलते पुरुषों और महिलाओं के बीच मुस्लिम वोट बंट गया और मुस्लिम महिलाएं बीजेपी के साथ आ गईं.
विकास दर उम्मीद जगाती है
आर्थिक मामलों में सरकार ने मैक्रो फ्रंट पर सफलताएं हासिल की हैं. महंगाई और ब्याज दर कम हैं. कई बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर काम हो रहा है. 7 पर्सेंट के साथ जीडीपी भी अच्छी रफ्तार से बढ़ रहा है. राजकोषीय घाटा भी कम होकर 3 पर्सेंट के करीब आ चुका है. वह भी प्राइवेटाइजेशन, यानी सरकारी कंपनियों को बेचे बिना. डीबीटी प्रोग्राम अच्छा चल रहा है और जीएसटी भी जल्द लागू हो जाएगा. इन वजहों से विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बढ़ा है.
देश में अधिक डॉलर आ रहे हैं. रुपया मजबूत हो रहा है. हालांकि, इससे एक्सपोर्टर्स की लागत बढ़ गई है. भारत का व्यापार घाटा भी बढ़ रहा है. एक्सपोर्ट के मुकाबले इंपोर्ट जितना अधिक होता है, उसे व्यापार घाटा कहते हैं.
बढ़ नहीं रहे रोजगार के मौके
ये चीजें तो ठीक हैं, लेकिन बीजेपी सरकार रोजगार के बहुत मौके नहीं बना पाई है, न ही वह ऐसा कर पाएगी, क्योंकि टेक्नोलॉजी तेजी से बदल रही है. मानव श्रम की जगह टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़ रहा है. यहां तक कि सरकार में भी यही ट्रेंड दिख रहा है. डिजिटाइजेशन का मतलब यही है.
इसलिए मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि बीजेपी सरकार देश की मैक्रो-इकोनॉमिक सेहत सुधारने में सफल रही है, जो 2014 में बहुत बुरी थी. लेकिन माइक्रो-इकोनॉमी के मामले में वह काफी हद तक फेल हो गई है.
इससे ‘अच्छे दिन’ के उसके दावे पर सवालिया निशान लग रहा है. खासतौर पर रोजगार के फ्रंट पर उसका प्रदर्शन खराब रहा है. इसका मतलब यह भी है कि बीजेपी सरकार का राजनीतिक और आर्थिक रिकॉर्ड पहले की दूसरी सरकारों से अलग नहीं है.
सामाजिक नीतियों के मामले में दुर्गति
बीजेपी सरकार के सत्ता के तीन साल के दौरान सामाजिक नीतियों के मामले में दुर्गति हो गई है. उसने लोगों को डरा दिया है. हिंदुत्व और राष्ट्रवादी एजेंडा के चलते देश के लोगों में डर और आशंका बढ़ी है.
लोग खुलकर कुछ भी कहने से डर रहे हैं. अगर वे कुछ ऐसा कहते हैं, तो उन्हें सरकार की नाराजगी या बीजेपी समर्थक संगठनों का गुस्सा झेलना पड़ता है. जब तक बड़ा राजनीतिक झटका नहीं लगेगा, इस मामले में बीजेपी की सोच नहीं बदलेगी.
पिछले तीन साल में भारत उदार लोकतंत्र से संकीर्ण सोच वाले लोकतंत्र में बदल चुका है.
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(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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