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जानिए- आधार को PAN से लिंक नहीं किया तो क्या होगा?

सुप्रीम कोर्ट ने 9 जून को अपने फैसले में पैन को आधार से लिंक करना जरूरी बनाने वाले कानून को मान्यता दे दी है

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पहले यह बता दूं कि बिनॉय विसवम बनाम केंद्र सरकार के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 139एए के अधिकांश हिस्से को स्वीकार कर लिया है. इस मामले में मेरी बात पक्षपाती सी लग रही है, तो शुरू में ही बता देना ठीक होगा कि मैं इस मुकदमे में यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडी) की तरफ से पूर्व में वकील था. मैं विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी का सीनियर रेजिंडेंट फेलो भी रह चुका हूं, जिसने आधार कानून का प्रारूप तैयार करने में मदद की थी. इन सब बातों के बावजूद मेरा नजरिया, मेरा है.

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स्नैपशॉट
  • सुप्रीम कोर्ट ने 9 जून को अपने फैसले में पैन को आधार से लिंक करना जरूरी बनाने वाले कानून को मान्यता दे दी है.
  • जिनके पास आधार नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने उन लोगों को तबतक के लिए छूट दे दी है, जब तक कि संविधान पीठ निजता के मुद्दे पर फैसला ना कर ले.
  • आधार पर चर्चा का अगला चरण इस महीने के आखिर में होगा और संविधान पीठ के सामने बड़ी व अंतिम लड़ाई अब भी लड़ी जानी बाकी है.

सबसे पहली बात सबसे पहले. फैसले के प्रभाव को लेकर थोड़ा भ्रम है. इसका मुख्य कारण है पैरा-125 में अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग. हालांकि सार प्रस्तुत करने वाला पैरा 128 हर किस्म के भ्रम को मिटा देता है, संक्षेप में कहें तो फैसले का प्रभाव यह है -

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यह याद रखिये की धारा 139AA दो अलग जिम्मेदारियां डालती है.

  1. 1 जुलाई 2017 के बाद दाखिल आयकर रिटर्न/पैन के आवेदन में आधार नंबर में बताया होगा.
  2. आप भले ही चाहे जब आयकर रिटर्न दाखिल करें, 1 जुलाई 2017 तक आधार को पैन से लिंक करना जरूरी है.
इन दो नियमों के घालमेल को लेकर लोगों में बहुत भ्रम की स्थिति है, लेकिन अदालत ने दोनों पर अलग-अलग विचार किया है. इसके अलग-अलग परिणाम होंगे.

अपने आईटीआर या पैन नंबर में आधार नंबर नहीं बताने का नतीजा होगा कि आपका आईटीआर या पैन आवेदन “त्रुटिपूर्ण” बताते हुए वापस कर दिया जाएगा. अदालत को इस पर एतराज नहीं है.

आधार को पैन से लिंक नहीं करने का पैन का पूर्व-प्रभाव से अवैध हो जाना- इसे अदालत ने कानून के मकसद से असंगत और अतिरेकपूर्ण माना. इस आधार पर इसे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) व 19(6) का उल्लंघन करार दिया. ऐसी स्थिति में अदालत ने व्यवस्था दी कि जिसके पास आधार है और वह 1 जुलाई तक पैन से लिंक नहीं कराता है तो इसके परिणाम को बाद की तारीख से लागू माना जाएगा.

तो यह है जो अदालत ने कहा. लेकिन क्या यह सही है?
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याचिकाकर्ता द्वारा धारा 139एए की संवैधानिक वैधता को दी गई चुनौती में कई सवाल हैं, जिनमें से अधिकांश को खारिज कर दिया गया, हालांकि इस तर्क को कि ये व्यापार और वाणिज्य की आजादी पर गैरजरूरी रोक लगाती है, अदालत का समर्थन मिला.

वैसे याचिकाकर्ता के वकील श्याम दीवान ने इस मुद्दे पर कि धारा 139एए निजता व सम्मान के अधिकार का हनन करती है, भरपूर दलीलें पेश कीं, पर अदालत ने इन्हें संविधान पीठ द्वारा विचार करने के लिए अलग रखते हुए इनको स्वीकार करने से इनकार कर दिया.

अगर आधार ही समस्या (जैसा कि याचिकाकर्ता का तर्क है) है तो एक मामले में इस्तेमाल पर सवाल उठाने से पूरे आधार कानून और इस स्कीम पर ही सवाल उठ खड़े होंगे कि इसकी संवैधानिक मान्यता क्या है.

अदालत ने न्यायिक व्यवस्था का यह जायज सवाल भी उठाया कि- एक मामला जो बड़ी पीठ के सामने विचाराधीन है, उस पर एक छोटी पीठ सुनवाई कर रही है और फैसला दे रही है.

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यह एक अलग मुद्दा है, और सुप्रीम कोर्ट के लिए लज्जा का विषय है कि इतने महत्व के मुद्दे पर वह अभी तक बड़ी पीठ का गठन करने में नाकाम रही है. क्या दो जजों की पीठ छोटी पीठ ने बड़ी पीठ के सामने लंबित मामले पर फैसला करते हुए इस संस्थागत विफलता पर ध्यान दिया? मुझे नहीं लगता कि ऐसा हुआ. एक संस्थागत विफलता का हल दूसरे किस्म की अन्य विफलता से नहीं निकल सकता.

कर और वित्तीय कानूनों की संवैधानिक वैधता की न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित होता है. भारत की अदालतें कर कानूनों की समीक्षा का दायरा बढ़ाने से लगातार बचती रही हैं. जब तक असंवैधानिकता एकदम नुमायां ना हो, अदालतें ऐसे बेहद जटिल, आर्थिक मामलों में उलझती दिखना नहीं चाहतीं, जिन्हें समझ पाने में वह आमतौर पर सक्षम नहीं होतीं.

इन अर्थों में बिनॉय विसवम केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूर्व की नज़ीरों के अनुरूप ही है- विधायिका को गुंजाइश दे दी और उस पर दोबारा सोचने की कोशिश भी नहीं की.
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काले धन से लड़ने में आधार का औचित्य और सफलता संदिग्ध हो सकती है, और अदालत भी ऐसा ही सोचती है, लेकिन कोई कानून या उपाय कितना कारगर हो सकता है, संवैधानिक वैधता का निर्धारण करते समय यह अदालत की चिंता का विषय नहीं है.

फैसले में विचार की गई दलीलों के सीमित दायरे को देखते हुए अदालत से असहमत होना मुश्किल है, बशर्ते कि सुस्थापित नजीरों को पलटते हुए नई निर्भीक राह की ख्वाहिश ना की जाए. इसके बावजूद कि बिनॉय विसवम मामले में फैसला अंतिम है, इससे धारा 139एए या आधार का अंतिम रूप से फैसला नहीं होने वाला. आधार पर लड़ाई का अगला दौर इस महीने के अंत में होगा और संविधान पीठ के सामने अंतिम लड़ाई अभी लड़ा जाना शेष है. जैसा कि अदालत ने भी अपने फैसले में साफ कर दिया है कि धारा 139एए के भविष्य का फैसला संविधान पीठ के सामने होगा, जो निजता और आधार से जुड़े सभी मुद्दों पर विचार करेगी. आप आशा कर सकते हैं कि अदालत “संवैधानिक अपवंचन” का अंत करेगी और इस चर्चा को हमेशा-हमेशा के लिए पूर्ण विराम लगाएगी.

(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु स्थित एक अधिवक्ता हैं और उनसे @alokpi पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक वैचारिक लेख है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं.)

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