कुछ हफ्ते पहले मुझे इंटरनेट पर एक आर्टिकल दिखा, जिसमें हिंदी को भारत की सरकारी भाषाओं में से एक के दर्जे को बढ़ाकर पूरे देश के लिए राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिए जाने की मांग की गई थी. यह नई मांग नहीं है. कई लोगों के लिए यह लंबे समय से संजोये भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के सपने को पूरा करने के लिए सबसे जरूरी कदम है.
लेकिन ईमानदारी से कहूं, तो यह मांग मुझे डराती है. सिर्फ इसलिए नहीं, क्योंकि यह मेरे देश के बहुलवादी चरित्र के लिए खतरा है, बल्कि ऐसे हिंदी बोलने वाले हिंदू देश में मेरी जुबान के लिए कोई जगह नहीं होगी.
मेरी पहली भाषा पंजाबी है, जो मुझे अपनी मां से विरासत में मिली और जिसे अमृता प्रीतम की कहानियों व कविताओं से सेहतमंद खुराक मिली. हालांकि मौके-बेमौके अंग्रेजी मेरी डिफाल्ट लैंग्वेज बन जाती है. मुझे लगता है कि इसकी वजह सिर्फ यह है कि 10 साल की उम्र में मैं सोचती थी कि उपनिवेशवादी शासकों की इस भाषा पर कमांड से मेरे बड़े हो जाने पर यह मेरी अहमियत तय करेगी.
बदकिस्मती से अंग्रेजों जैसी अंग्रेजी सीखने और घर में पंजाबी में बातचीत सुनने के बीच मैंने हिंदी को गंवा दिया. यह एक सुविधा की जुबान बन कर रह गई. इसका इस्तेमाल मैं कैंटीन में समोसा खरीदने या रिक्शेवाले को रास्ता बताने के लिए करती, कभी-कभार आम बातचीत या कोई चुटकुला सुनाने के लिए. बस इससे ज्यादा नहीं.
इससे भी आगे, मैं सोचती हूं कि अगर मैं हिंदी बोलती, तो मेरे मुंह से क्या निकलता? मेरी हिंदी में लहजे की बड़ी दिक्कत है- बोले गए हर लफ्ज पर पंजाबी की छाप होती है. ज्यादातर यह हनी सिंह के रैप जैसी लगती है, लेकिन कोई फर्क नहीं, मुझे इस पर गर्व है.
संस्कृतियों की पैबंदकारी वाली जुबान के साथ यह भाषाई कबाड़खाना मुझे असमंजस में डाल देता है. लेकिन आखिरकार, जहां-तहां से टुकड़े जोड़कर बनी, हिंदी मुझे एक समावेशी भारत के लिए समावेशी भाषा देती.
उदाहरण के लिए जब मैं मुंबई में अपनी मौसी के घर पहुंचती हूं, तो उसी लम्हा प्याज, कांदा में बदल जाता है- वहीं एकदम से मेरे आलू परांठा में कांदा आ जाता है, अनियन या प्याज नहीं.
मैंने महसूस किया है कि जब मैं फ्रस्टेटेड होती हूं, मेरा हर हिंदी वाक्य रे से खत्म होता है. यह चीज मैंने अपनी तेलुगू रूममैट से पाई है, जिसके साथ मैंने चार साल कमरा साझा किया था. उसकी हिंदी हालांकि शून्य बटा सन्नाटा थी, लेकिन तेलुगू उतनी ही फर्राटेदार थी.
कई मामलों में एक दूसरे से एकदम जुदा होने के बावजूद अंग्रेजी हमारे रिश्तों को एक समान स्तर पर लाने का जरिया बनी. इसने एक पंजाबी औरत की बेटी और एक तेलुगू आदमी की बेटी को अपने गम, खुशी, सपने, ख्वाहिशें, दिल टूटने और कार्दाशियां पर खुदरा जानकारियों को साझा करने के लिए धरातल दिया. हम कभी भी अंग्रेजी के सुख-चैन में दुबक सकते थे.
लेकिन डंब चैरेड खेल के मुकाबले में मेरी हिंदी बेजोड़ है. यहां तक कि भोजपुरी फिल्म भी मुझे हरा नहीं सकती. आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि मैं हमेशा विजेता टीम में रही हूं.
हर बार दिल टूटने पर, यह सिर्फ मेरा दिल नहीं होता था, मेरी हिंदी पर भी असर पड़ा. इसके इलाज का सिर्फ इकलौता रास्ता था- फैज, गालिब या खुसरो की शायरी. उर्दू वो जुबान है, जो खाली कोनों को भर सकती है. मेरी हिंदी स्वाभाविक रूप से मेरे पुकारने के नाम गुल से मेरा परिचय कराती है. ऐसा नाम जिसकी जड़ें इरानी, तुर्की, अरबी, उर्दू और कोशुर में हैं. कश्मीर में रहने के दौरान मेरे मां-बाप ने कहीं से ये नाम अपना लिया था, जो उनके ख्याल में मेरे फूले गुलाबी गालों के हिसाब से सटीक था.
मेरी हिंदी असंख्य संस्कृतियों को एक साथ मिलाने से बनी है. मेरी पैबंद लगी हिंदी आपके हिंदू राष्ट्र की 'परिस्थितिजन्य विडंबना' है. अपने हर शब्द में विद्रोही.
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