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गुजरात चुनाव:पाटीदारों की नाराजगी का BJP के गणित पर क्या असर होगा?

गुजरात में बीजेपी को पटेलों की पार्टी कहते हैं. बीजेपी विधायक दल में 44 विधायक पाटीदार हैं.

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चुनावी चर्चा फिलहाल इस बात पर टिकी है कि गुजरात के तीन न्यूजमेकर में से एक हार्दिक पटेल नतीजे को कितना प्रभावित कर पाएंगे? सवाल ये उठ रहा है कि हार्दिक के साथ दिख रहा पाटीदार क्या बीजेपी के खिलाफ वोट करने जाएगा?

क्या हार्दिक पटेल गुजरात में नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने में कामयाब हो पाएंगे या फिर हार्दिक केशुभाई पटेल की छाया बनकर इतिहास में दर्ज हो जाएंगे? पाटीदारों के वोट करने के तरीके समझने से पहले थोड़ा फ्लैश बैक में चलते हैं.

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जब केशुभाई पटेल के भी नहीं हुए पाटीदार

बात 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव की. नवंबर का महीना था. पाटीदारो के गढ़ राजकोट में मोदी के तब धुर विरोधी रहे पाटीदारों के कद्दावर नेता केशुभाई पटेल की रैली थी. मैदान खचाखच भरा था. केशुभाई मंच पर पहुंचे नहीं कि नारे लगने लगे, ''बापा तुम संघर्ष करो, हम तुम साथ हैं.''

केशुभाई ने अपने लंबे राजनीतिक करियर में यह नारा कई बार सुना होगा, लेकिन इस बार बात अलग थी. इस बार केशुभाई पटेल अपने लिए वोट मांग रहे थे .माइक संभालते ही केशुभाई ने कहा कि यह आप लोगों को सुनिश्चित करना है कि इस इलाके से बीजेपी एक भी सीट न जीतने पाए.

नतीजे जब आए, तो केशुभाई और पाटीदारों के गढ़ सौराष्ट्र से बीजेपी को 35 सीटें, कांग्रेस को 14 सीटें और केशुभाई की पार्टी को महज 2 सीटें मिलीं.

2007 के चुनाव में बीजेपी को सौराष्ट्र से 43 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 14. ऐसा नहीं है कि केशुभाई पटेल के विद्रोह से बीजेपी को बिल्कुल कोई नुकसान नहीं हुआ. बीजेपी को 7-8 सीटों पर पटेल फैक्टर से नुकसान हुआ, पर बीजेपी को सत्ता में आने से केशुभाई पटेल रोक नहीं पाए. केशुभाई पटेल की पार्टी को 4 फीसदी वोट मिले.

पाटीदार एक जाति ब्‍लाॅक के रूप में वोट नहीं करता

पाटीदारों के बारे में बात करते समय सबसे पहली गलती हम यह कर जाते हैं कि हम यह मानकर चलते है कि अगर पटेल बीजेपी से नाराज है, तो सभी पाटीदार x पार्टी या y पार्टी को वोट करेंगे, पर यह सच नहीं है.

पाटीदार गुजरात में सबसे प्रभुत्वशाली जाति तो है, पर वोटिंग पैटर्न में बंटा हुआ है. पाटीदारों की मुख्यत: चार उपजातियां हैं- लेउवा, कड़वा, अंजना और सतपंथी. लेउवा आर्थिक रूप से समृद्ध पटेल है, तो कड़वा कम संपन्न.

परंपरागत रूप से कड़वा बीजेपी को वोट करते रहे हैं, पर केशुभाई के कारण लेउवा पटेल ने सौराष्ट्र के इलाके में 2012 में बीजेपी को कम वोट दिया. पर 2014 के चुनाव में लेउवा और कड़वा ने वापस मिलकर बीजेपी के लिए वोट किया.

अब स्थिति बदल गई है. संपन्न प्रभावशाली लेउवा पटेल तो बीजेपी के साथ है, पर आर्थिक प्रगति में पिछड़ रहा कड़वा आरक्षण के लिए हार्दिक पटेल के साथ.

शहरी पटेल गांव में रहने वाले पाटीदार की तरह वोट नहीं करता

पाटीदारों के मतदान करने के पैटर्न में सिर्फ जाति का ही रोल नहीं है, बल्कि वर्ग का भी है. शहर और गांव में रहने वाला पाटीदार बिल्कुल अलग तरीके से वोट करता रहा है. साबरकांठा का पाटीदार अहमदाबाद में उसी तरीके से मतदान नहीं करता, जैसे वो साबरकांठा में किया करता है. गांव से आकर शहर में बस चुके पाटीदारों के लिए बिजली पानी उतना बड़ा मुद्दा नहीं है, जितना बनासकांठा में रहने वाले पटेल किसान के लिए है.

शहरों के मध्यमवर्ग पाटीदारों के लिए विकास के मायने अलग है और गुजराती अस्मिता के भी. बेहतर जिंदगी की तलाश में गांवों से आकर शहरों में आकर बस चुका पाटीदार बीजेपी का परंपरागत वोटबैंक रहा है. यही वोटबैंक बीजेपी को गांवों में रहने वाले पाटीदारों की नाराजगी के बाद भी चुनावों में बढ़त दिलाता रहा है, चाहे 2007 का चुनाव हो या 2012 का चुनाव.

सारे पाटीदार BJP से नाराज नहीं

हार्दिक पटेल की चुनौती से बीजेपी परेशान तो है, पर बीजेपी इस गणित को समझती है कि पाटीदारों में जाति वर्ग आय के आधार पर विभाजन तो है ही, साथ ही मध्यमवर्ग और आर्थिक रूप से उन्नत पटेल, जो पिछले 20 सालों से सत्ता की हिस्सेदारी का फल खा रहे हैं, वो कैसे एक प्रामाणिक विकल्प को छोड़ अनिश्चित खूंटे के साथ बंध जाएंगे?

गुजरात में बीजेपी को पटेलों की पार्टी कहते हैं. बीजेपी विधायक दल में 44 विधायक पाटीदार हैं. कैबिनेट में 10 मंत्री पटेल हैं. उपमुख्यमंत्री और राज्य बीजेपी का अध्यक्ष भी पटेल हैं.

वल्लभ पटेल, लाल जी पटेल, दिवाली पर कार फ्लैट गिफ्ट देने वाले हीरा व्यापारी सावजी डोलकियां, पीएम मोदी का सूट 4.3 करोड़ में खरीदने वाले उद्योग व्यापार करने वाला ये पटेल समुदाय, वाइब्रेंट गुजरात और मोदी के मुख्यमंत्री रहते विकास और निवेश का स्वाद चख चुका है, उसके लिए बीजेपी का साथ छोड़ना काफी मुश्किल काम है.

गुजरात में 10 करोड़ से ज्यादा टर्नओवर वाली तकरीबन 6100 औद्योगिक इकाइयां हैं. जिनमें 1700 इकाइयां पटेलों की हैं. एक अनुमान के हिसाब से पाटीदारों की जनसंख्या में मध्यम वर्ग का हिस्सा बहुत बड़ा है और एक छोटा तबका है, जो बदहाली में है. और वही तबका हार्दिक के साथ मुखर रूप से है.

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फिर हार्दिक पटेल कितने असरदार साबित होंगे?

वैसे तो इस सवाल का जवाब चुनावी नतीजों के आने के बाद पता चलेगा, पर जिन्‍होंने केशुभाई पटेल का दौर देखा है, वो मानते हैं कि युवा बेरोजगार गरीब पाटीदारों के एक खेमे का समर्थन होने के बाद भी हार्दिक बीजेपी को सत्ता में लौटने से रोक नहीं पाएंगे.

ये सही है कि पटेलों में जो पटेल कृषि पर आधारित है या जिनके पास व्यापार करने के लिए पूंजी नहीं है, वो सामाजिक व्यवस्था में पीछे चले गए हैं. औद्योगीकरण के कारण घटते जमीन पर स्वामित्व, नकदी फसलों के नष्ट होने शहरों में रोजगार के समुचित अवसर न होने और शिक्षा के निजीकरण से कड़वा पटेल ठगा सा महसूस कर रहा है.

सामाजिक बिरादरी में ऊंचे दर्जे के बाद भी आरक्षण पाए अंजना पटेल के बच्चे डाक्टर-इंजीनियर बन सरकारी नौकरियां पा रहे हैं और कड़वा पटेल के बच्चे घर बैठे नौकरियों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

हार्दिक पटेल के आंदोलन के अगुआ वही युवा पाटीदार है, जो शिक्षा के निजी हाथों में चले जाने से महंगी शिक्षा अफोर्ड नहीं कर पा रहे और किसी तरह प्राइवेट यूनिवर्सिटी से डिग्री ले भी ली, तो आरक्षण न होने की वजह से नौकरी ले नहीं पा रहे.

गुजरात में कुल 52 यूनिवर्सिटी हैं, जिनमें 45 प्राइवेट यूनिवर्सिटी हैं. मात्र 7 यूनिवर्सिटी ही सरकारी हैं. यही कारण है कि 2015 के पाटीदार आंदोलन की आग अगर सबसे ज्यादा कहीं लगी थी, तो वे थे उत्तरी और मध्य गुजरात के पांच निजी यूनिवर्सिटी.

हार्दिक पटेल और कांग्रेस की नजर इन्‍हीं असंतुष्ट पाटीदारों पर टिकी है, पर दिक्कत ये है कि अगर इन असंतुष्ट पाटीदारों के वोट केशुभाई पटेल की तरह हार्दिक पटेल के समर्थित उम्मीदवार को मिल भी जाए, तब भी 10 सीटों से ज्यादा पर बीजेपी का नुकसान करने की हालत में हार्दिक नहीं होंगे.

तो क्या मीडिया हार्दिक फेक्टर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है?

(शंकर अर्निमेष जाने-माने जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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