15 मार्च 2012 को अखिलेश यादव ने यूपी सीएम की कुर्सी संभाली. अगले 2 साल पिता और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की छत्रछाया में रहे. ठप्पा लगा हाफ सीएम का, कहा गया यूपी में साढ़े चार सीएम का राज है. लेकिन 2015 की सर्दी समाजवादी पार्टी में रिश्तों पर बर्फ जमा गई. 2016 आते ही एक लड़खड़ाता सीएम फ्रंट फुट पर खेलने लगा. पार्टी और परिवार पर अथॉरिटी दिखने लगी. पिता, चाचा और पार्टी से भी अखिलेश का कद बड़ा हो गया. अचानक से ये सब कैसे हुआ?
अखिलेश की असली ताकत कौन?
अभी तकरीबन एक लाख कार्यकर्ताओं की टीम गांव-गांव में समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए कैंपेन कर रही है. इसी टीम के सर्वे कुछ अहम घटनाक्रम की ओर इशारा करते हैं. सितंबर के महीने में टीम को मैदान में उतारने से पहले एक सर्वे कराया गया. सर्वे में पश्चिमी यूपी को छोड़कर प्रदेश के हर तबके की जनता से अखिलेश शासन पर राय मांगी गई. इस रिपोर्ट में ये बात निकलकर सामने आई कि अखिलेश एक अच्छे सीएम हैं लेकिन अनुभव के लिए उन्हें अपने पिता की सलाह लेनी चाहिए.
इस सर्वे के फौरन बाद अखिलेश टीम राज्य के हर जिले में प्रचार- प्रसार करने लगी. अक्टूबर के पहले हफ्ते में फिर से सर्वे कराया गया और इस सर्वे के परिणाम देखते ही अखिलेश ने लखनऊ में अपने तेवर बदल दिए.
सर्वे में अखिलेश को जबरदस्त समर्थन मिलता दिखाई दिया, अखिलेश को साफ- सुथरी छवि का नेता बताया गया, मुलायम और अखिलेश के बीच की तनातनी में अखिलेश को पार्टी में साफ सफाई करने वाला नेता बताया गया.
अखिलेश के करीबी बताते हैं यहीं से अखिलेश की स्ट्रैटजी में बदलाव आ गया. लखनऊ में आत्मविश्वास से लबरेज अखिलेश पिता और चाचा से लोहा लेते दिखने लगे. अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में आया सी-वोटर का सर्वे भी इस ओर इशारा करता है.
अखिलेश का मिशन 2017
मन से मुलायम नारे को सबसे पहले किनारे किया गया. सितंबर के महीने में अखिलेश यादव पार्टी के लिए एक नया नारा लेकर आए ‘’काम बोलता है’’.
अखिलेश का भी एजेंडा विकास
पीएम मोदी के नक्शेकदम पर ये अखिलेश का पहला कदम था. 2014 आम चुनाव में पीएम मोदी ने भी विकास को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा था. बीजेपी के लिए ये स्ट्रैटजी काम कर गई और अखिलेश की टीम का भी फोकस चुनाव से ठीक पहले मुलायम और पार्टी को छोड़ विकास की तरफ हो गया. सितंबर के महीने में ही अखिलेश ने फैसला किया कि काम बोलता है नारे के जरिए ही वो 2017 चुनावों के प्रचार का आगाज करेंगे.
विकास के मुद्दे पर ही हम जनता के बीच उतरे, लेकिन फिर परिवार और पार्टी में झगड़े ने हमारी रफ्तार धीमी कर दी. अब हम भैया जी के प्लान का इंतजार कर रहे हैं, जनता के बीच अब नेताजी से अच्छी छवि अखिलेश भैया की है, ये हम मानकर चल रहे हैं- पार्टी सूत्र
मैन-टू मैन मार्किंग
भले ही पीएम मोदी का राजनीतिक करियर काफी लंबा है लेकिन 2014 चुनावों में उन्हें अपनी छवि को मेकओवर देना पड़ा. विकास, भ्रष्टाचार, परिवारवाद, काले धन जैसे मुद्दों को लाइमलाइट में लाकर नरेंद्र मोदी ने अपने ब्रांड में कुछ नई इक्विटी डाले.
अब अखिलेश की भी यही तैयारी है. अखिलेश की टीम राज्यभर के अलग- अलग जिलों में युद्धस्तर पर काम कर रही है. जो भी मुद्दे होते हैं उनपर सर्वे कराया जाता है. सर्वे रिपोर्ट्स अखिलेश यादव को फौरन भेजी जाती है और फिर आगे की रणनीति तय होती है. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राज्यभर में तकरीबन 1 लाख समाजवादी कार्यकर्ता ग्राम अंबेसडर बनाए गए हैं और जनवरी तक इस संख्यां में भारी इजाफा होने वाला है.
ग्रामीण वोटर्स पर ज्यादा फोकस
अखिलेश की रणनीति ज्यादा कारगर सिद्ध होने की संभावना है क्योंकि अखिलेश नरेंद्र मोदी की गलतियों से वाकिफ हैं और काफी सोच-समझकर ग्राउंड वर्क करने की कोशिश में हैं.
अखिलेश की टीम की कोशिश ये है कि पार्टी और परिवार की कलह का असर ग्रामीण वोटर्स पर न हो. क्योंकि जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक उत्तरप्रदेश में शहरी आबादी सिर्फ 22.27 % है और ग्रामीण इलाकों की आबादी 77.73% फीसदी है. यूपी में शहरी वोटर्स की तादाद करीब 3 करोड़ है तो वहीं ग्रामीण वोटर्स का आंकड़ा 3 गुना ज्यादा 10.5 करोड़ है.
इन आंकड़ों को ध्यान में रखकर ही अखिलेश की टीम काम कर रही है. परिवार और पार्टी की कलह भले ही शहरी वोटरों को परेशान कर सकती है जिससे पार्टी निपट सकती है लेकिन ग्रामीण वोटरों पर इस झगड़े का असर बड़े वोट बैंक में सेंध लगा देगा इसलिए अखिलेश की टीम का पूरा फोकस 10.5 करोड़ ग्रामीण वोटर्स पर है.
अखिलेश लखनऊ में रहकर फिलहाल पार्टी और परिवार के मुद्दों से निपट रहे हैं, उनके चेहरे पर शिकन इसलिए नहीं दिखती क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं ने ग्रामीण इलाकों में पकड़ बना रखी है और उनके पास लगातार रिपोर्ट्स भेजे जा रहे हैं. एक बार परिवार में आम सहमति बन जाए फिर कोई परेशानी नहीं. - अखिलेश के करीबी नेता
जांची-परखी रणनीति
अखिलेश यादव की रणनीति काफी सोची- समझी है. इसमें 2014 चुनाव में मोदी-नीति का अक्स दिखता है लेकिन साथ ही बिहार में नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, दिल्ली में केजरीवाल और तमिल नाडु में जयललिता की जीत का फॉर्मूला भी मिक्स है.
1. सकारात्मक रणनीति
समाजवादी पार्टी की सोशल मीडिया कैंपेनिंग देखें तो नेगेटिव प्रचार न के बराबर दिखता है. शायद हो सकता है कि बिहार चुनाव में पीएम मोदी के नेगेटिव कैंपेनिंग से उन्होंने सबक लिया है. सपा की कैंपेनिंग में इमोशनल फैक्टर के साथ- साथ विकास की बात पूरी तरह से हावी है. तमाम मीडिया रिपोर्ट्स इस ओर इशारा करते हैं कि अखिलेश की छवि एक विकास पुरुष की तरह उभरी है. चाहे वो एंबुलेंस सेवा हो, लखनऊ मेट्रो हो, पेंशन स्कीम हो या फिर लोक-लुभावन पेंशन योजनाएं. चुनावी कैंपेन सिर्फ नेता की वाह-वाही और प्रोजेक्शन से ही नहीं जीते जाते, इसमें जनता को भी हिस्सेदार बनाया जाता है, उनके पूछा जाता है कि आपका नेता गुड है या बैड, उनके किस काम को आप पसंद करते हैं? यूपी में अखिलेश का कैंपेन भी कुछ ऐसा ही है. पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का कैंपन भी ऐसा ही था और 2014 में पीएम मोदी का भी. 2015 में बिहार चुनाव में नीतीश ने ऐसी ही रणनीति अपनाई थी.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जब 2014 आम चुनाव में मणिशंकर अय्यर के चाय वाले कमेंट पर नरेंद्र मोदी ने चाय पर चर्चा जैसा कैंपेन खड़ा किया था.
2. मार्गदर्शक मंडली
हो सकता है ये महज इत्तेफाक हो, लेकिन अखिलेश के साथ इस चुनाव में ये फैक्टर भी जुड़ेगा. समाजवादी दंगल आखिरी राउंड में है और आखिरी फैसला जो भी हो, अखिलेश ही बतौर विनर उभरेंगे. मुलायम, आजम खां और शिवपाल जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता बैकसीट पर होंगे. ठीक वैसे ही जैसे 2014 के चुनाव में पीएम मोदी ने लाल कृष्ण आडवाणी और दूसरे सीनियर्स को बैकसीट पर बिठाया था.
3. डायरेक्ट रिपोर्टिंग टू अखिलेश
पार्टी सूत्र बताते हैं कि ब्लॉक और जिले स्तर पर काम कर रहे पार्टी कार्यकर्ताओं की सीधी रिपोर्ट अखिलेश यादव तक पहुंचाई जाती है. लखनऊ में एक स्पेशल दफ्तर को अखिलेश टीम के हेडक्वार्टर की शक्ल दी गई है. यहां से अखिलेश का संदेश प्रदेश में फैले कार्यकर्ताओं तक भेजा जाता है. अखिलेश की टीम उन्हें रोज ब्रीफ करती है और सारे अपडेट देती है.
ठीक ऐसी ही कार्यशैली 2014 चुनाव में नरेंद्र मोदी की थी. उनकी टीम उन्हें राज्यों के सुलगते मुद्दे, किसे कहां टारगेट करना है या फिर उस इलाके की थीम क्या है इसकी एक संभावित लिस्ट देती थी. पूरे कैंपेन के दौरान उन्हें गाइड किया जाता था और इसलिए शायद उनकी भाषणों में सीधा कटाक्ष या फिर दो टूक जवाब होता था.
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