ADVERTISEMENTREMOVE AD

फूलपुर उपचुनाव: संयुक्त विपक्ष की आस, मायावती का आखिरी दांव 

फूलपुर लोकसभा सीट के इतिहास से लेकर, मायावती और संयुक्त विपक्ष के लिए इसकी अहमियत की हर खास बात

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

उत्तर प्रदेश का फूलपुर लोकसभा सीट एक बार फिर सुर्खियों में है. अटकलें हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यसभा से इस्तीफा दे चुकी बीएसपी अध्यक्ष मायावती इस सीट से उपचुनाव लड़ सकती हैं. साथ ही कांग्रेस, समाजवादी पार्टी समेत पूरा विपक्ष उनका समर्थन कर सकता है.

इस सीट से यूपी के वर्तमान डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य सांसद हैं. अब उन्हें इस्तीफा देकर विधानसभा या विधान परिषद की सदस्यता लेनी होगी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पहली बार ये सीट हासिल किया था. बीजेपी को जहां 52 % वोट मिले, वहीं कांग्रेस, बीएसपी, एसपी के कुल वोटों की संख्या महज 43 % ही रह गई.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

2017 विधानसभा चुनाव में संयुक्त विपक्ष को मिली राहत

2014 लोकसभा चुनाव के परिणाम जरूर संयुक्त विपक्ष की उम्मीदों पर चोट करते दिख रहे हैं. लेकिन 2017 विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो वो विपक्ष के लिए राहत दिखती है. आंकड़ें बताते हैं कि बीएसपी, एसपी और कांग्रेस अगर तीनों एक साथ विधानसभा चुनाव लड़ते तो कहानी कुछ और ही होती.

दरअसल, फूलपुर लोकसभा सीट के अंदर 5 विधानसभा क्षेत्र आते हैं. 2017 विधानसभा में अगर एसपी, बीएसपी कांग्रेस के कुल वोटों को जोड़ लें, तो वो बीजेपी से 1.5 लाख ज्यादा बैठते हैं. साथ ही अगर ये तीन पार्टियां एक साथ चुनाव लड़ीं होतीं, तो 5 विधानसभा सीटों में से 4 पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ता.

बीजेपी-बीएसपी के लिए खास है ये सीट

इस सीट का इतिहास अपने आप में बेहद खास है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समेत कई बड़े दिग्गजों ने इस सीट का नेतृत्व किया है. वहीं बीजेपी-बीएसपी के लिए भी ये सीट अहमियत रखता है.

साल 2014 लोकसभा चुनाव की मोदी ‘लहर’ से पहले बीजेपी एक बार भी ये सीट जीत नहीं सकी, केशव प्रसाद मौर्य ने ‘लहर’ का फायदा उठाते हुए 5 लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत हासिल की.

ये वही सीट है, जहां से साल 1996 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम हार चुके हैं. कांशीराम को समाजवादी पार्टी उम्मीदवार जंग बहादुर पटेल ने 16 हजार वोटों से हराया था. मायावती की बीएसपी ने इस सीट पर अपना खाता 2009 के चुनाव में खोला, जब कपिल मुनि करवरिया ने 30 फीसदी वोट हासिल किए थे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पिछले 5 बार के फूलपुर सीट के नतीजे

आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीजेपी के लिए ये सीट क्यों अहमियत रखती है, जहां साल 2009 में बीजेपी का वोट शेयर महज 8 फीसदी था, वो 2014 में बढ़कर 52 फीसदी हो गया. इसका इनाम भी 'विजेता' केशव प्रसाद मौर्य को मिला. वो पहले वो बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बने फिर प्रदेश के डिप्टी सीएम.

साफ है कि साल 2014 में बीजेपी को जहां 52 % वोट मिले, वहीं कांग्रेस, बीएसपी, एसपी के कुल वोटों की संख्या महज 43 % ही रह गई.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

फूलपुर चुनाव और विपक्ष 2.0 की शुरुआत

फूलपुर उपचुनाव न केवल प्रदेश के लिए, बल्कि 2019 के आम चुनावों के लिए भी खास बन सकता है. बिहार में महागठबंधन टूटने के बाद विपक्ष को एकजुट करने या कहें कि विपक्ष 2.0 की बुनियाद खड़ी करने की दिशा में ये अहम होगा.

सियासी गलियारे में ये अटकलें हैं कि अगर मायावाती यहां से चुनाव लड़ती हैं, तो एसपी, कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष उनका समर्थन करेगा. ऐसे में बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष तैयार हो सकता है, जिसका नतीजा 2019 के चुनाव में देखने को मिल सकता है.

1993 के गेस्ट हाउस कांड के बाद से एक नदी के दो किनारे बने एसपी-बीएसपी जैसी धुर विरोधी पार्टियों के साथ आने के बाद सोशल इंजीनियरिंग की नई शुरुआत होगी. वैसे भी अखिलेश और मायावाती ने यूपी विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद साथ आने के संकेत दिए थे.

इस तरह से यूपी में मायावती-अखिलेश को कांग्रेस और बिहार में लालू प्रसाद का मिलता समर्थन विपक्ष 2.0 की नई कहानी गढ़ सकता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मायावती के लिए आर-पार की लड़ाई होगी

जहां एक तरफ ये विपक्ष को एकजुट करने का एक और मौका होगा. लेकिन मायावती के लिए ये अस्तित्व बचाने की लड़ाई भी साबित हो सकती है. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह लगातार दलित वोटबैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं.

हाल ही में बीजेपी ने राष्ट्रपति पद के लिए दलित उम्मीदवार को खड़ा किया. मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा देकर ये संदेश दिया है कि अब भी बीएसपी अध्यक्ष को दलित समुदाय की परवाह है और उनके हक में आवाज उठाने से वह पीछे नहीं हटेंगी. ऐसे में फूलपुर चुनाव में अगर मायावती को झटका लगता है, तो उनका आखिरी दांव उनके पॉलिटिकल करियर के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है.

चलते-चलते फूलपुर सीट की खास बातें:

  • साल 1952,1957 और 1962 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस सीट का प्रतिनिधत्व किया था.
  • साल 1962 में नेहरू को टक्कर देने के लिए डॉ राम मनोहर लोहिया उतरे, लेकिन करीब 55 हजार वोटों से हार गए.
  • साल 1967 में जनेश्वर मिश्र को हराकर विजय लक्ष्मी पंडित ने इस सीट का नेतृत्व किया
  • साल 1969 में उपचुनाव हुए और जनेश्वर मिश्र को ये सीट हासिल हुई
  • साल 1971 में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को यहां से जीत मिली

कह सकते हैं कि इस सीट ने भारतीय लोकतंत्र के कई बड़े नेताओं को जीत दिलाई, तो कइयों को हार का स्वाद भी चखाया.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×