ADVERTISEMENTREMOVE AD

एक समुदाय जो नक्सलियों और सरकार के बीच जंग में फंस गया

इन लोगों की खुद को बचाए रखने की कोशिश आज भी जारी है

story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

लोग जंगल की तरफ भागते हैं, या फिर जंगल से भागते हैं, लेकिन एक तीसरी स्थिति भी आती है जब केवल जंगल के अन्दर ही एक कोने से दूसरे कोने में भागा जाता है. जंगल के भीतर ही भीतर भागते रहना एक त्रासदी है, क्योंकि यह पूरी तरह डूबते हुए वजूद को बचाने का एक प्रयास होता है. तेलंगाना राज्य के अनेक क्षेत्रों, जैसे भद्राचलम, चेरला, बुर्गमपाडू, चिंतूर, कोथागुडम, पलोंचा, वेंकटपुरम, खम्मम आदि के जंगलों में हजारों की संख्या में ऐसे वनवासी समुदाय के लोग जिन्हें IDP (Internally Displaced People) भी कहा जाता है, जो मुख्यतः साल 2005 से राज्य-प्रायोजित नक्सल विरोधी संगठन सलवा-जुडूम, सुरक्षा बलों, और नक्सली संगठनों के डर से भागकर इन जंगलों के सीमावर्ती इलाकों में आ छुपे; ये बाहर नहीं जा सकते थे, क्योंकि उन पर नक्सली होने का इल्जाम लगता. वे जंगल के भीतर ही एक दूसरे किनारे पर आ छुपे थे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

उनके अपने घर, गांव, जमीन, रिश्ते-नातें गीत-संगीत, सब जंगल में ही खो गए. खुद को बचाए रखने की उनकी कोशिश आज भी जारी है. वनवासी अस्तित्व का प्रश्न लगता है अब तथाकथित मुख्यधारा के लिए केवल बौद्धिक जुगाली भर रह गया है, खासकर “मुख्यधारा” की अधिकतर मीडिया में अगर कहीं उनके बारे में लिखा-बोला भी जा रहा है तो “विकास” और राज्य-विरोधी शक्तियों के रूप में ही.

इन लोगों की खुद को बचाए रखने की कोशिश आज भी जारी है
रामचंद्रपुर गांव के कोया जनजाति के बच्चे
(फोटो- डॉ केयूर पाठक)
0
आसपास के लोगों का कहना था कि इन जनजाति समुदायों का यहां आना इतने गुपचुप तरीके से हुआ कि सालों तक उन्हें इन इलाकों में होने का पता भी नहीं चला, क्योंकि उन्हें सरकारी अधिकारियों के द्वारा भी उत्पीड़ित होने का भय था, और इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि इन निर्दोष समुदायों का उत्पीड़न नक्सली संगठन, वन-अधिकारी, सुरक्षा बलों आदि सभी ने लगातार किया. आसपास के गांव के लोगों ने भी इनके उत्पीडन की विभिन्न घटनाओं का जिक्र किया.

कुछेक वन अधिकारियों का भी मानना था कि कठोर वन कानूनों के कारण न चाहते हुए भी उन्हें थोड़ी सख्ती करनी पड़ती है. यह गंभीरता से सोचने की जरुरत है कि इन समुदायों के जंगल के जुड़े जीवन शैली से जंगल का अस्तित्व खतरे में है, या फिर जंगल के खतरे में आने का कारण सभ्य समाज की भयंकर उपभोक्तावादी संस्कृति है!

इन लोगों की खुद को बचाए रखने की कोशिश आज भी जारी है
जंगल और पास के खेत से एक व्यक्ति अपने बच्चे के साथ लौटता हुआ
(फोटो- डॉ केयूर पाठक)
ADVERTISEMENTREMOVE AD

इनके अपने ही गाँव से भागने की कहानियाँ विचिलित करने वाली थी. चेरला मंडल के पुशकुंटा गाँव के विस्थापित जनजाति गोथी-कोया समुदाय के दिनेश कोया ने कहा- ‘जब मैं सात साल का था तो छत्तीसगढ़ से मुझे अपने पिता के साथ रात में भागना पड़ा था, और भागकर हम यहाँ आ छुपे. सुरक्षा बलों ने हमारे बहुत सारे सम्बन्धियों, पड़ोसियों आदि को केवल इस शक के आधार पर मार डाला कि वे नक्सली थे. हमारी जमीन-जायदाद आज भी वहीँ हैं. हम कभी-कभी वहाँ जाते हैं. यहाँ अब किसी तरह कुछ मजदूरी करके जीता हूँ’. जंगल के भीतर वन विभागों के विभिन्न कार्यों में मजदूरी के अलावा, जंगल के फल-फूल बेचना, या आसपास के कस्बाई इलाकों में बहुत ही कम पैसों पर वे मजदूरी करने को मजबूर हैं.

सरकारी तंत्र, सलवा जुडूम और नक्सली आन्दोलन के भयंकर दुश्चक्र में ये ऐसे पिसे जैसे आटे में घुन. इन्हें अपनी बात कहने का मौका ही नहीं मिला, और यदि जब कभी मौका मिला भी तो इन्हें समझा नहीं गया, इनकी समस्या को एक सामान्य तात्कालिक मुद्दा माना गया जबकि यह एक गंभीर समस्या थी.
ADVERTISEMENTREMOVE AD
इन लोगों की खुद को बचाए रखने की कोशिश आज भी जारी है
किस्ताडम्पाडू गांव के बच्चे और लिंगाला गाँव की एक शाम
(फोटो- डॉ केयूर पाठक)

चेरला में घने जंगलों के भीतर एक जगह ऐसे ही गोथी-कोया समुदाय के विस्थापित परिवारों की पहचान की गई जिसमे करीब तीस चालीस परिवार थे. तत्कालीन तेलंगाना सरकार ने उन्हें रामचंद्रपुर गाँव का नाम देकर पास के एक ग्राम-पंचायत में मिला दिया. इसी गाँव के नागी रेड्डी नाम के एक कोया समुदाय के व्यक्ति ने अपनी कहानी को बताते हुए कहा ‘हम नक्सल आन्दोलन के हिस्सा नहीं थे, लेकिन सबने हम पर शक किया. पुलिस का कहना था कि हम नक्सलियों की मदद करते हैं और नक्सलियों का आरोप था हम पुलिस वालों के लिए मुखबिरी करते हैं. भागने के सिवा क्या करता, वहां रहता तो मारा जाता’. ऐसे कई मामले देखे-बताएं गए जिससे इनके जीवन के द्वन्द और विडंबना को समझा जा सकता है.

इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी के एक अधिकारी ने चेरला मंडल के एक अन्य गांव कुर्नापल्ली की यात्रा के दौरान एक दो-तीन वर्ष पुरानी घटना की चर्चा की. उन्होंने बताया कि इस गाँव में नागेश राव नाम के एक कोया सदस्य की हत्या नक्सलियों ने केवल इस आधार पर कर दी, क्योंकि उसने नक्सल आन्दोलन से अपना नाता तोड़ कर सामान्य जीवन जीने का फैसला किया था. शायद तटस्थता के लिए इन जंगलों में कोई जगह नहीं.
ADVERTISEMENTREMOVE AD
इन लोगों की खुद को बचाए रखने की कोशिश आज भी जारी है
चेरला मंडल के गांव की एक महिला जलावन की लकड़ी के साथ और एक खेलता हुआ बच्चा
(फोटो- डॉ केयूर पाठक)

हालांकि तेलंगाना सरकार ने इनके पुनर्वास के लिए कुछ प्रयास किये हैं, लेकिन ये मूलतः जंगल के लोग थे, इनका जीवन, संस्कृति, खान-पान सबकुछ वनों और वहाँ उपलब्ध संसाधनों पर ही निर्भर था. जंगल इनका घर था, पहाड़, पेड़ और जंगली जानवर इनके परिवार के हिस्सा थे, इसलिए भीषण नक्सल आन्दोलन के दौरान भी ये भागकर नगरों या गाँवों में नहीं गए; ये जंगल से जंगल की तरफ ही भागे. ऐसी स्थिति में उन्हें “मुख्यधारा” में लाने का कोई भी प्रयास उतना कारगर नहीं माना जा सकता, खासकर तब जब तथाकथित मुख्यधारा के लोग भी भूखमरी, महामारी, युद्ध, हिंसा, बेरोजगारी और अनगिनत समस्याओं के बीच अपना वजूद बचाने की कोशिस कर रहें हैं. इन समुदायों के जीवन शैली को प्रभावित करने में वन-कानूनों की भी बड़ी भूमिका है. इनके वन अधिकार कम कर दिए गए, उनकी पारंपरिक शैली की खेती पर भी रोक लगा दी गई. वन कानून का हवाला देकर आज भी कई बार वन अधिकारीयों के द्वारा उन्हें दुबारा से विस्थापित करने का प्रयास किया जाता है और ऐसी स्थिति हिंसक नक्सल आन्दोलन को फलने-फूलने का मौका प्रदान करती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
आज जंगलों से उजड़कर ये भूखमरी की स्थिति में हैं. ये भूखमरी इनका इतिहास नहीं था, धरोहर नहीं था, बल्कि यह विकास के नाम पर उनपर थोप दी गई है. उनके हिस्से पर वर्तमान सभ्यता की नीवें टिकी हैं, लेकिन उन्हें ही हमने उजाड़ दिया. विस्थापित और उजड़े हुए समुदायों को बसाने का प्रयास होना चाहिए. और बसावट उस समुदाय की शदियों पुरानी लोक-जीवन शैली और संस्कृति से भी जुड़ा होना चाहिए.

पुनर्वास केवल आर्थिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया भी है, लेकिन सरकारी नीतियों के अंतर्गत पुनर्वास के जो तरीके हैं ऐसा लगता है वह इन समुदायों की सामुदायिकता और संस्कृति का अंत कर रही है. मुवावजे के रूप में कुछ हजार या लाख रुपये, और शहरों के बाहरी हिस्से में 2-BHK के फ़्लैट, और अन्य आर्थिक मदद से उनका पुनर्वास नहीं हो सकता. उनकी जीवन-दृष्टि, उनका वर्ल्ड-व्यू लाख रूपये, और पक्के मकानों से बहुत ऊपर हैं. उनकी उसी दृष्टि के साथ उन्हें देखने की जरुरत है. उसमें सतत-विकास की अपार संभावनाएं भी हैं और समावेशी-विकास का दर्शन भी. नक्सल जैसे हिंसक आन्दोलन फल-फुल रहें हैं, यह एक गंभीर सवाल है, लेकिन उससे भी अधिक महत्त्व की बात ये है कि ऐसी कौन सी सामाजिक-आर्थिक नीतियाँ/परिस्थितियां हैं जो लगातार ऐसे आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार कर रही है! राजसत्ता जनता की जरूरतों को पूरा करने का तंत्र है. जनता से राजसत्ता है, न कि राजसत्ता से जनता. ठहर कर विचारने का समय है.

(आभार: इस लेखन के लिए हम अपने अनन्य मित्र डॉ. ताजुद्दीन मोहम्मद, हैदराबाद विश्विद्यालय के आभारी हैं, जिन्होंने इन गाँवों में बातचीत के दौरान एक शानदार अनुवादक की तरह कार्य किया. साथ ही लेखन में तकनीकी मदद के लिए डॉ. आतिफ घ्यास, अलीगढ मुस्लिम विश्विद्यालय का भी आभार.)

(डॉ केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं. चित्तरंजन सुबुद्धि केंद्रीय विश्वविद्यालय तमिलनाडु में सहायक प्राध्यापक हैं.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×