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खाना पकाना कड़ी मेहनत का फल है, प्रेम या स्त्रीत्व का बाई प्रॉडक्ट नहीं

जापान की एक घटना के बाद, घर पर पके खाने के ग्लोरिफिकेशन पर सवाल उठते हैं.

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जापान (Japan) की नौ महीने की एक गर्भवती महिला ने डिलीवरी के लिए जाने से पहले अपने पति के लिए एक महीने का खाना तैयार किया. फिर उसे फ्रीज करने के लिए रख दिया. उसका कहना था कि उसके पति के पास ऑफिस में इतना काम होता है कि उसे आराम मिलना चाहिए. इस खबर के बाद परंपरागत लैंगिक भूमिकाओं, घरेलू जिम्मेदारियों और महिलाओं से आधुनिक समाज की अपेक्षाओं पर फिर चर्चा छिड़ी है. कोई इसे सिर्फ प्यार और देखभाल बता रहा है, तो किसी को पुरुषों की मानसिकता पर शर्म आ रही है. वैसे यह चर्चा पुरानी है. रसोईघर कैसे सिर्फ एक महिला के भरोसे छोड़ दिया जाता है और पुरुषों की इसमें क्या भूमिका होती है.? आइए समझते हैं

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घर के पके खाने का रूमानीकरण

असल में, यह घर के पके खाने का रूमानीकरण ही है. घर का खाना (या मां के हाथ का खाना), इसी से मूल समस्या शुरू होती हैं. चूंकि कुकिंग को प्यार और देखभाल की अभिव्यक्ति के रूप में रोमांटिसाइज किया जाता रहा है. इसी भाव के चलते महिलाओं में परहित, यानी दूसरों की देखभाल करते रहने की भावना पैदा होती है. घर के पके खाने को कुछ ऐसे ग्लोरिफाई किया जाता है कि औरतों पर भेदभावकारी मानदंड आरोपित होते रहते हैं. उन्हें ऐसा लगने लगता है कि परिवार के लिए खाना पकाने में ही उनके स्त्रीत्व का असली मूल्य है.

रसोईघर उनकी विशेषता बना दिया जाता है, और इसी के चलते खाना पकाना, महिलाओं का क्षेत्र माना जाने लगता है. परिवार में अपनी स्थिति को मजबूत करने और उसका आनंद उठाने का एकमात्र साधन. शादी के बाद पहली रसोई की परंपरा से इसकी शुरुआत होती है. फिर कभी-कभार भोजन की तारीफ, और अक्सर मौन रहने की प्रवृत्ति, औरतों को रसोईघर तक सीमित रखने के लिए काफी होती है. मां बनने के बाद मातृत्व की पितृसत्तात्मक अपेक्षाएं भी थोपी जाने लगती हैं और आदर्श मां का स्वरूप और रोमांटिक बनाया जाता है.

रसोई एक तरह का पॉलिटिकल स्पेस है

लेकिन जैसा कि अमेरिकी फेमिनिस्ट बैट्टी फ्रीडैन ने कहा था, "किसी भी महिला को फर्श को घिस-घिसकर चमकाने में चरम सुख की प्राप्ति नहीं होती है. घरेलू श्रम, खासकर रसोईघर में खाना पकाने का काम, प्रेम का श्रम कतई नहीं है, न ही रसोई सिर्फ खाना पकाने वाली जगह है. यह एक तरह से पॉलिटिकल स्पेस है. वहां स्त्रीत्व के आदर्श गढ़े जाते हैं. यह बताया जाता है कि घरेलू मेहनत सिर्फ प्यार की खातिर की जाने वाली मेहनत है. इसमें अपना सुख है. लेकिन कोई कमरा, सिर्फ खाना पकाए जाने की वजह से रसोईघर नहीं बनता."

किचन के उपकरण, गैस चूल्हा, बर्तन, राशन, सब्जियां, इन सबसे मिलकर कोई कमरा रसोईघर बनता है. और, इसके बीच रोजाना मुश्किल, अक्सर बोरियत भरे शारीरिक और मानसिक श्रम करने पड़ते हैं. गंदे बर्तन धोना, नालियों से कचरा निकालना, कचरा जमा करना, सब्जियां काटना, गैस चूल्हा साफ करना, गर्मी-सर्दी बर्दाश्त करते हुए खाना पकाना, ये भी रसोईघर के ही काम हैं. इनसे तनाव और तकलीफ भी पैदा होती है. इस लिहाज से मलयालम भाषा की 2021 की फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन बेहतरीन फिल्म है. यह फिल्म रसोईघर से जुड़े कई ऐसे कामों को बार-बार दिखाती है, जिससे किसी को भी घिन आएगी.

और, वहां पुरुषों का प्रवेश

वैसे रसोई कहलाने वाले कमरे में पुरुषों का प्रवेश भी होता है लेकिन रसोई में पुरुष, बनिस्पत रसोई में स्त्री, दोनों का सांस्कृतिक बोध अलग-अलग है. अमेरिकी थ्योरिस्ट थॉमस ए. एडलर ने एक पेपर लिखा है, "मेकिंग पैनकेक ऑन संडे: द मेल कुक इन फैमिली ट्रेडिशन." वह लिखते हैं कि आम तौर पर किचन में पुरुष अनाड़ी कुक होते हैं. उनका काम अपनी बीवी (या दूसरी महिलाओं की) की कुकिंग की तारीफ करना होता है, जिसे एडलर अप्रिशिएटिव कंज्यूमर (कद्रदान करने वाले उपभोक्ता) कहते हैं. इसीलिए पुरुष रसोईघर में प्रवेश करते हैं, स्त्रियों के लिए यह माना जाता है कि वे वहीं रहती हैं. पुरुष खाना पकाते हैं, क्योंकि उन्हें खाना पकाना पसंद होता है, या वे खाना पकाना चाहते हैं. स्त्रियां खाना पकाती हैं क्योंकि उनसे इसकी अपेक्षा की जाती है.

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इसके अलावा, खाने पकाने का ‘सही तरीका’ से भी घरेलू कुकिंग में सत्ता संतुलन का नजारा पेश करती है.

जैसे चटनी पीसने का ‘सही तरीका’ सिलबट्टे पर पीसना है. चावल कूकर की बजाय भगोने में बनना चाहिए. रोटी गर्म गर्म पकाकर खाई जानी चाहिए, रखकर नहीं. मसाले घर में कूटे जाने चाहिए. शुद्ध देसी घी, दूध की मलाई से घर पर ही बनाया जाना चाहिए. वगैरह.

औरतें अक्सर परिवार के ताकतवर पुरुष की पसंद और स्वाद से खाना बनाती हैं. चाहे वह पिता और भाई हों, या पति ससुर, जेठ या देवर. इससे कुछ खास खानों या स्वाद का मानकीकरण होता रहता है. किरण राव की 2023 की "लापता लेडीज" में दीपक की मां यशोदा अपनी सास से कहती है, तो अम्मा, अब क्या औरतें के पसंद का खाना बनेगा. चूंकि घरों में आम तौर पर वही पकता है, जो घर के पुरुषों की पसंद होता है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी घर काम का विरोध

रसोईघर और खाना पकाने के काम का डायनामिक्स श्रम के लैंगिक विभाजन से जुड़ा है. टेलकॉट पर्सन्स और रॉबर्ट एफ बेल्स जैसे स्कॉलर्स ने अपनी किताब "फैमिली सोशियलाइजेशन एंड इंटरएक्शन प्रोसेस" में इस विभाजन के बारे में काफी कुछ लिखा है. घर के काम से महिलाओं से संरचनात्मक और वैचारिक रूप से जोड़ने को आधुनिक औद्योगिक समाज का वैल्यू सिस्टम माना जाता है जो स्त्री के काम की तुलना में पुरुष के काम को ज्यादा महत्व देता है. इस वैल्यू सिस्टम का सिमोन द बुवा, बैट्टी फ्रीडैन, जेर्मेन ग्रीर जैसी सेकेंड वेव फेमिनिस्ट्स (60 के दशक के बाद) ने विरोध किया और कहा कि यह गुलामी जैसा है.

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स्त्रीत्व की अवधारणा में महिला की पहचान खो जाती है. इस विचार का भी विरोध हुआ और कई विचारकों ने कहा कि फेमिनिज्म ने पारिवारिक संरचना का सत्यानाश किया है. घर के खाने की अहमियत कम की है और हानिकारक सुविधाजनक खाद्य पदार्थों को लोकप्रिय बनाया है. फूड इंडस्ट्री ने भी ऐसे खाद्य पदार्थों को प्रो-फेमिनिस्ट बताया और अपने सामान बेचे. जबकि असलियत यह है कि बीसवीं शताब्दी के तकनीकी प्रयोगों ने सुविधाजनक और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की शुरुआत की.

हालांकि बाद में सेकेंड वेव फेमिनिस्म की भी आलोचना हुई, क्योंकि वह फेमिनिज्म की जटिलता और नस्ल और वर्ग के साथ उसकी इंटरसेक्शनैलिटी को अनदेखा करता है. फेमिनिटी एकांगी अवधारणा नहीं है, क्योंकि बहुत सी औरतें, अपने परिवार, और अपने इंप्लॉयर (जो कि उच्च वर्ग, अगड़ी जाति का हो सकता है) के परिवार, दोनों के लिए खाना पकाती हैं. इसीलिए रसोईघर को एक पॉलिटिकल स्पेस माना जाता है क्योंकि इसे उन महिलाओं के लिए एजेंसी और प्रतिरोध के अवसर के तौर पर रीक्लेम किया जा सकता है जो अगड़ी जाति या वर्ग से संबंधित नहीं हैं.

रसोईघर के पॉलिटिकल स्पेस को कैसे बदला जा सकता है?

रसोईघर पूरी तरह से एक दमनकारी क्षेत्र नहीं है. इसमें मुक्ति की क्षमता भी है. सबसे पहले तो, रसोईघर के काम का मूल्यांकन फिर से किया जाना चाहिए. खाना पकाना किसी मकसद को पाने का साधन नहीं, अपने आप में एक आनंददायक और संतुष्टि देने वाला काम है. खाना पकाने के लिए समय निकालना, आरामदायक हो सकता है. यह हमें हमारे भोजन से जोड़ता है, और यह एक थेराप्यूटिक काम हो सकता है.

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इसका यह मतलब कतई नहीं कि महिलाओं को खाना पकाने के बारे में अलग तरह से सोचना चाहिए, बल्कि जिस तरह से हम सामूहिक रूप से खाना पकाने की प्रक्रिया को समझते हैं, उसमें एक सामाजिक बदलाव होना चाहिए. इस सामाजिक बदलाव के साथ-साथ खाना पकाने की कठिनाई की सराहना, या श्रम के तौर पर उसे मान्यता मिलनी चाहिए. अगर हम खाना पकाने की प्रक्रिया पर ध्यान देंगे, तो भोजन तैयार करने में लगने वाले समय और कोशिश पर भी हमारा ध्यान जाएगा. जैसे सब्जी काटने का कौशल, या बाजार जाकर उसे खरीदने में लगने वाला शारीरिक श्रम. यह हैरानी भरी बात नहीं कि भारत में छह साल और उससे अधिक उम्र की महिलाएं ऐसे ही अवैतनिक घरेलू काम में रोजाना 301 मिनट खर्च करती हैं, जबकि पुरुष इसी काम में केवल 98 मिनट खर्च करते हैं. यह आंकड़ा 2024 में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के अध्ययन का है.

इसके अलावा हम किस तरीके से इसका मूल्य आंकते हैं, इस पर भी सोचा जाना चाहिए. घरेलू श्रम को श्रम के रूप में मान्यता देने का मतलब है उस मेहनत के फल की सराहना करना: कड़ी मेहनत का फल, न कि कुछ ऐसा जो प्रेम या स्त्रीत्व के उप-उत्पाद के रूप में प्रकट होता है.

1975 में सिल्विया फेडेरिसी ने "वेज अगेंस्ट हाउसवर्क" में घरेलू श्रम की मजदूरी की वकालत की थी. यही वह तरीका है, जिससे उस श्रम से इनकार किया जा सकता है, जो हम पर थोपा जाता है. हम फेडेरिसी से सहमत न हों, तो भी हमें यह सोचना चाहिए कि घरेलू श्रम कैसे किया जाता है, और इसका क्या असर होता है. इसके लिए किसी सियासी विमर्श की जरूरत भी नहीं.

जब भी पुरुष बर्तन धोएं, सब्जियां काटें, किचन का कचरा साफ करें, तो उसे असामान्य न समझा जाए. इसी से रसोईघर की सियासी भूमिका बदल सकती है.
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आखिर में "द ग्रेट इंडियन किचन" का ही जिक्र करना जरूरी है. इस फिल्म में पहली बार यह दिखा कि कोई औरत खाना पकाने, साफ-सफाई जैसे कामों से इतनी आजिज आई हो कि उसने घर छोड़ना का ही फैसला कर लिया हो. चूंकि घर में उसकी अहमियत किसी को समझ नहीं आती. यानी शादी, परिवार, धर्म या कोई भी संस्था महिला की एजेंसी और गरिमा को चूर-चूर करके नहीं चल सकती-— सामाजिक, व्यक्तिगत और राजनैतिक सहयोग का एक ऐसा सिद्धांत है, जिस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता.

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