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क्रिकेट अब महज खेल नहीं, कारोबार और घाटे-मुनाफे से चलने वाली मंडी की आंधी है

Cricket खास आदमी के पैसों की ताकत से लोकप्रिय भी बना और अन्य जनप्रिय खेलों को खेल से निकाल देने में सफल भी रहा.

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खेल का दर्शन ही खेल का समाजशास्त्र है और इसका मनोविज्ञान भी है. लेकिन अब इसका अर्थशास्त्र भी तैयार हो गया है. और यह अर्थशास्त्र ग्लोबल-पूंजी की गोद से पैदा हुआ है. जो खेल अर्थशास्त्र (Sports Economy) के इस खेल को नहीं समझ पाया वह खेल से बाहर हो गया. पहले खेल के पीछे समाज और सामूहिकता का भाव था. अब पूंजी और इसके आवारेपन का असर है. खेल की लोकप्रियता पूंजी की शक्ति से तय हो रही. अपने वजूद के लिए यह उसी पूंजी की ताकत पर निर्भर है. खेल अब महज खेल नहीं- यह कारोबार भी है. खेल अब तन-मन को रचने-गढ़ने वाला एक माध्यम नहीं, बल्कि घाटे-मुनाफे से चलने वाली मंडी की आंधी भी है.

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अगर हमसे पूछा जाए कि भारत का राष्ट्रीय खेल क्या है? थोड़ा सोचने के बाद हम कहेंगे – हॉकी. और इसके बाद अगर हमसे कहा जाए कि इस खेल से जुड़े पांच राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के नाम बताएं- तो आसपास सन्नाटा छा जाए. हममें से कितने लोग बता पायेंगे ये आप और हम जानते हैं. फिर पूछा जाए कि इसके खेले जाने के क्या नियम और तरीके हैं? तब तो स्थिति बड़ी कठिन हो जाएगी. हम धीरे-धीरे बगलें झांकने लगेंगे और फिर बातचीत का विषय बदल देंगे.

आखिर राष्ट्रवाद के दौर में राष्ट्रीय खेल की ऐसी स्थिति क्यों? वास्तव में यह स्थिति केवल हॉकी की नहीं, बल्कि यह उन सारे खेलों की है जो बचपन में हमसब खेला करते थे. जिनसे हमारा तन-मन मजबूत और स्वस्थ होता था. आज वे सब गायब हो चुके हैं या कर दिए गए हैं.
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क्रिकेट-क्रिकेट और केवल क्रिकेट. पांच-दिवसीय, एकदिवसीय से लेकर 20-20, आईपीएल, और न जाने कितने संस्करण हुए इसके. एक-एक बॉल और एक-एक खिलाडी का पूरा ब्यौरा चाय की दुकानों से लेकर ट्रेन के भीतर यात्रा करते-करते मिल जाए.

जितना हम क्रिकेट के बारे में जानते हैं उतना अन्य सारे खेलों को भी मिला दें तो वह भी उससे कम ही होगा. क्रिकेट का ज्ञान इतना सहज और सरल है कि सड़क चलते हुए आप किसी से पूछकर बता सकतें हैं कि पिछले साल आईपीएल में किस खिलाडी की किस बॉल पर किसने छक्का मारा. इसके नियमों की जानकारी तो युवाओं को इतनी है कि शायद अम्पायर भी उससे कम ही जानता हो. मतलब भारत की एक बड़ी आबादी का ज्ञान उसके खुद के अन्य सभी ज्ञान पर भारी है.

क्रिकेट का ज्ञान सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता का भी एक पैमाना हो गया. इसके बिना आपका सारा ज्ञान कूड़ा है, जबकि दुनिया में विकसित माने जाने वाले देश आमतौर पर इस खेल से परहेज ही करते रहें हैं.

क्या हमने कभी अमेरिका, रूस, इजराइल, जापान, चीन, फ़्रांस, जर्मनी, आदि देशों में इसकी इस कदर दीवानगी देखी है. यह दीवानगी पिछड़े या अल्प-विकसित देशों में ही अधिक देखने को मिलती है- जैसे भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, वेस्ट-इंडीज, जिम्बाब्वे, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि. यूरोप के कुछेक देश खेलते तो हैं लेकिन इस कदर पागलपन नहीं.

इसकी शुरुआत इंग्लैण्ड से भले हुई हो पर यह खेल इंग्लैण्ड में भी उतना लोकप्रिय नहीं जितना इन देशों में है. इस खेल के उद्भव और विकास पर औपनिवेशिक प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता.  

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किसी भी खेल के महत्त्व और उसकी उपयोगिता को मापने के कई मापक हो सकते हैं- लेकिन उनमें से कुछ अधिक महत्त्व के होते हैं- जैसे, यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर किस प्रकार का प्रभाव डालता है- यह समय कितना ले रहा है– यह कितने कम खर्च में खेला जा सकता है, ताकि समाज का हर तबका उस खेल का हिस्सा बन सके आदि. और जब इन बातों के सन्दर्भ में क्रिकेट की महत्ता का आकलन किया जाता है तो हम देखते हैं यह अन्य पारंपरिक खेलों की तुलना में काफी पीछे है.

शारीरिक व्यायाम के मामलों में फुटबॉल, कुश्ती, कबड्डी, खो-खो, बैडमिन्टन, आदि खेलों से कम महत्त्व रखता है. मानसिक व्यायाम में यह शतरंज जैसे खेलों से कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता. और अगर समय के सन्दर्भ में देखें तो यह अन्य खेलों से अधिक समय लेता है, जबकि इसका ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्जन भी आ गया है.

आर्थिक रूप से भी यह खेल अधिक महंगा है. इसमें बैट, बॉल के अलावा विकेट, ग्लव्स, हेलमेट, पैड, चेस्ट-पैड जैसे अनगिनत छोटे-बड़े सामान खरीदने पड़ते हैं, जबकि अन्य खेलों में इतनी सारी चीजों की जरुरत नहीं होती.
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आज भी बाजारू लोकप्रियता के प्रभाव में गल्ली-मुहल्लों में जो क्रिकेट खेला जा रहा है उसमें युवाओं के पास इतने सारे संसाधन नहीं होते जिससे कई बार वे बुरी तरह से घायल हो जाते हैं. बड़ी मुश्किल से यह खेल आम आदमी का खेल माना जा सकता. खास आदमी के पैसों की ताकत से यह लोकप्रिय भी बना और अन्य जनप्रिय खेलों को खेल से निकाल देने में सफल भी रहा.

भाषा के सन्दर्भ में प्रसिद्ध अफ़्रीकी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो ने लिखा था कि कोई भाषा अपने गुण और संरचना के कारण विलुप्त नहीं होती, बल्कि सत्ता की उपेक्षा उसे विलुप्त कर देती है- यह बात खेल पर भी लागू होती है. क्रिकेट को पूंजीगत सत्ता का भरपूर संरक्षण मिला है. क्रिकेट के कारोबार से अगर तुलना करें तो राष्ट्रीय खेल हॉकी का वजूद ही पता नहीं चलता है. साल 2016 से 2021 तक हॉकी का बजट मात्र 65 करोड़ का रहा है. अन्य खेलों के अर्थशास्त्र पर तो चर्चा करना भी ठीक नहीं.

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वहीं दूसरी तरफ क्रिकेट अपने आप में एक इंडस्ट्री बन चुका है. क्रिकेट के केवल आईपीएल के एक सीजन की ब्रांड वैल्यू साल 2022 में करीब 90038 करोड़ रुपये थी. ड्रीम-11 की साल 2020 की रेवन्यू करीब 20070 करोड़ थी. क्रिकेट का विज्ञापन से होनेवाली कमाई को देखें तो यह आश्चर्यजनक है- साल 2022 में आईपीएल के दौरान केवल दस सेकंड के टाइम स्लॉट के 15 से 18 लाख रुपये तक लिए जाते थे. और इसका यह अर्थशास्त्र लगातार बढ़ता ही जा रहा. खिलाडियों से अधिक सट्टेबाज, व्यापारी, उधोगपति, राजनेता, अभिनेता इसमें रूचि ले रहें हैं. यह पूंजी और पॉवर का केंद्र बन गया है.

खेल का उद्योग में तब्दील हो जाना बुरा नहीं, इससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि हो रही है तो इसका स्वागत किया जा सकता है. लेकिन खेल के नाम पर खेल की भावना और इसके मुख्य उद्देश्यों का मर जाना दुखद है. फिर आदमी के पास खेल से होने वाले सामान्य लाभों के लिए भी किसी अन्य इंडस्ट्री पर निर्भर होना पड़ता है- जैसे स्वास्थ्य के लिए जिम इंडस्ट्री का भारत में आना खेल के मृत हो जाने का ही परिणाम है. पहले खेल-खेल में तन-मन को गढ़ लिया जाता था. अब पैसे चुकाने होते हैं. पैसे चुकाने की व्यवस्था तेजी से विकसित होती जा रही है.  

(लेखक केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद्, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं. वहीं डॉ सतीश सी इलाहाबाद में समाजशास्त्रीय विभाग में कार्यरत हैं. )

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