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‘वर्क फ्रॉम होम’ की अनचाही सौगात और अपने कमरे से मेरी मुलाकात

बरसों से रूठी बुकशेल्फ की किताबें कर रहीं तकाजा!

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अपना कमरा कभी इतना छोटा नहीं लगा. कमरे में बरसों से रखे बेकार बैग.. डिब्बे.. अखबार.. पत्रिकाएं.. किताबें.. फाइलें.. दस्तावेज, कैलेंडर, पैंसिल-बॉक्स, पेन-स्टैंड, इंकपॉट, सब अचनाक घुसपैठिये से दिखने लगे हैं. जैसे वीजा खत्म होने के बाद भी अवैध तरीके से रह रहे हों. और देखो तो- कैसे बेतरतीबी से एक-दूसरे में घुसे हैं? ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ की तो कोई तमीज ही नहीं.

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मैं ट्रेन टिकट, बोर्डिंग पास, खास आयोजनों के एंट्री पास वगैरह फेंकने के बजाए किताबों में बुकमार्क के तौर पर रख दिया करता था. जब कभी महीनों-बरसों में वो किताब खुलती तो उस बुकमार्क के साथ यादों की एक अलमारी भी खुल जाती. लेकिन गौर कर रहा हूं कि ज्यादातर की स्याही मिट चुकी है और वो रुआंसे होकर कह रह हैं- ‘हम अजनबी नहीं हैं लेकिन क्या करें, हमारी कोई पहचान भी नहीं बची.’

बरसों से ये कमरा रात को सोने के लिए इस्तेमाल होने वाली सराय की भूमिका निभा रहा है. हफ्ते के ज्यादातर दिन तो दफ्तरी दिनचर्या में चले जाते हैं. इतवार वगैरह की छुट्टी का भी बड़ा हिस्सा बाहर ही गुजर जाता है. कभी-कभार घर पर रहे भी तो नेटफ्लिक्स और गूगल. और, बचा-खुचा वक्त किचन में कुकिंग के नाम. अपने कमरे से मिले तो जैसे बरसों बीत चुके थे.

कोरोना वायरस के कहर ने दुनियाभर को एक खुली जेल में बदल दिया. ऊंची-ऊंची दीवारों का पहरा भले ना हो लेकिन रहिए अपने घरों में ‘लॉकडाउन’. अब तक कश्मीर के लिए सुनते थे ये शब्द, लेकिन एक महामारी ने पूरे देश के लिए कर दिया. तालाब के पानी सी ठहरी हुई इस जिंदगी में काम चालू रखने का जो फलसफा सामने आया उसका नाम है- ‘वर्क फ्रॉम होम’. यानी बिस्तर भी इसी कमरे में और दफ्तर भी इसी कमरे में.

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नए कॉरपोरेट ऑफिस के नए एग्जीक्यूटिव!

तो साहब, ‘वर्क फ्राम होम’ की वजह से बने इस नए कॉरपोरेट ऑफिस में जो नए एग्जीक्यूटिव घुसे, वो हैं- लैपटॉप, ट्राईपॉड, कॉलर माइक, वाईफाई मॉडम, पॉवर बैंक, चार्जिंग कैबल्स, ईयर-पीस यानी वो तमाम चीजें जो ज्यादातर दफ्तर में ही इस्तेमाल हो रही थीं. इसके अलावा सेनिटाइजर की शीशी, क्लीनिंग स्प्रे, टिशू पेपर के डिब्बे, कॉटन क्लॉथ की कतरनें वगैरह वगैरह. अब इन सभी को अपने-अपने कैबिन भी चाहिए थे.

लैपटॉप रखने के लिए मेज पर हफ्तों से रखी पत्रिकाओं का एक बंडल हटाने लगा तो घूरकर बोलीं- ‘अच्छा अब हम पराए हो गए?’ मेरा हाथ छिटककर पीछे हो गया. बुक शेल्फ में पाकिस्तान से लाई 8-10 म्यूजिक सीडी रखीं हैं. बरसों से इस्तेमाल नहीं हुईं लेकिन कब्जा पूरा. हटाने लगा तो तुनककर बोलीं-

‘हुजूरेवाला, ये आशियाना न रहा तो हम कहां जाएंगी? यूं भी इस मुल्क में लावारिस होना गुनाह से कम नहीं.. ऊपर से पाकिस्तानी. क्या आप वाकिफ नहीं इससे?’
बरसों से रूठी बुकशेल्फ की किताबें कर रहीं तकाजा!
कमरे में बरसों से बिना इस्तेमाल हुए रखीं पाकिस्तानी सीडी
(फोटो: नीरज गुप्ता)

क्या करता?? हजारों किलोमीटर के सफर के साथी एक ट्रेवल बैग को अलमारी से हटाकर जगह बनाई. स्टोर-रूम में जाते वक्त वो भी बड़बड़ाता रहा- ‘अगली बार चलना मेरे साथ. बीच रास्ते में धोखा दूंगा.

पानी की बोतल, चाय की थर्मस, बैड-टी का झूठा कप.. यूंही सब कमरे में छोड़कर ऑफिस भाग जाया करता था. वापस आने पर सब साफ-सुथरा मिलता. अब वो फोन पर बात करते वक्त पैर से टकरा रहे हैं. मुझपर पर गुर्रा रहे हैं. यूं घूर रहे हैं जैसे मैं गरीबों की बस्ती पर कब्जा करने वाला कोई भ्रष्टाचारी बिल्डर हूं.

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नाराज किताबें, रूठे शब्द!

किसी जमाने में बड़े करीने से बुक शेल्फ में किताबें सजाई थीं. हिंदी साहित्य, ऑटोबायोग्राफीज, सिनेमा, नॉन-फिक्शन, अंग्रेजी साहित्य, उर्दू शायरी, बाल-साहित्य, तरह-तरह की डिक्शनरी, कार्टूनिंग के संकलन, पत्रिकाओं के विशेषांक. एक हिस्सा तो दोस्तों और जान-पहचान के लेखकों की उन किताबों का था जिनपर मैने खुद उनके दस्तखत लिये थे. माने.. Writer’s signature वाली किताबें. लेकिन सब घालमेल होकर एक-दूसरे में मिल चुकी हैं.

सबसे खराब होता है जरूरत के वक्त अपनी ही बुक शेल्फ में मनचाही किताब का ना मिल पाना.

  • कुछ लिखते वक्त याद आया कोई धुंधला सा संदर्भ जो कह रहा हो- ‘जरा वो सुरेंद्र वर्मा का ‘मुझे चांद चाहिए’ उठाओ. 60-70वें पेज के बीच कहीं मैं मिल जाऊंगा.’ अब लीजिए, पेज पर कहां से पहुंचेंगे, उपन्यास ही नहीं मिल रहा.
  • धूल से ढका ‘रागदरबारी’ का कवर पेज तकाजा कर रहा है- ‘एक जमाना था जब रोज  शिवपालगंज आया करते थे. अब तो  मुलाकात हुए जमाना गुजर गया.’
  • गुलज़ार साहब की अन-रिलीज्ड फिल्म ‘लिबास’ की स्क्रिप्ट आंखे तरेरकर बुदबुदा रही है- ‘खामोश सा अफसाना, पानी से लिखा होता, ना तुमने कहा होता, ना हमने सुना होता.’
  • मंटो, फैज़, साहिर तो यूं घूर रहे हैं जैसे मैं दंगों के वक्त मुसलमानों के मुहल्ले में चला आया कोई हिंदू हूं.
  • एक कोने में ‘भारत के संविधान’ का पॉकेट संस्करण रखा था. उसे उठाने लगा तो बुजुर्गाना अंदाज में बोला- ‘भई, मुझे तो आजकल पढ़ो, ना पढ़ो, एक ही बात है.’

वाकई.. इन सब के साथ कितना वक्त गुजरता था. पता नहीं गम-ए-रोजगार ने कब इतना दीवाना बना दिया कि ये प्यारा सा साथ लगभग छूट ही गया. लेकिन इन दिनों, अपने कमरे के साथ यूं लग रहा है जैसे ‘इजाजत’ फिल्म के रेखा और नसीर बरसों बाद किसी रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में मिल गए हों और ट्रेन कब आएगी इसका पता ही ना हो.

अंग्रेजी में कहावत है- Every cloud has a silver lining यानी हर निराशा में उम्मीद की एक किरण होती है. तो वक्त अभी बाकि है. लॉकडाउन भी चलेगा और मेल-मिलाप का सिलसिला भी. देखें आगे किस-किस से मुलाकात होती है.

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