(गुड़गांव में एक दंपति के घर हाउस हेल्प के रूप में काम करने वाली एक 14 वर्षीय लड़की को पांच महीने की भीषण यातना और दुर्व्यवहार के बाद छुड़ाया गया है. भारत में हाउसहेल्प के अधिकारों की क्या हालत हैं और उन्हें किस माहौल में काम करना होता है, यह समझने के लिए इस आर्टिकल को फिर से पब्लिश किया गया है. यह मूल रूप से 6 जनवरी को प्रकाशित हुआ था.)
नोएडा के एक अपार्टमेंट में एक हाउस हेल्प (जी हां, आप इन्हें इसी नाम से पुकारें) के साथ मार-पिटाई की खबर, बहुत नीरस लगती है. इसमें कोई लच्छेदार पंच नहीं है. आप इस पर क्यों लिखना और पढ़ना चाहेंगे? मजदूरों-कामगारों को पिटना, या उनका पिटना कोई खबर बनती भी नहीं. फिर औरतों का पिटना, कौन सी नई बात है. महिलावादी चर्चाओं में घर काम के बंटवारे की बात उठती है, पुरुषों के काम शेयर न करने की बात उठती है. लेकिन इस विमर्श में घरेलू काम का मुद्दा, और दलित जातियों की औरतों का इन कामों को करना, अक्सर इनकी तरफ नजर जाती ही नहीं.
केयर यानी देखभाल का काम हमेशा से जेंडर्ड
घरेलू काम हमेशा से जेंडर्ड वर्क रहा है. औरतें ही इसे करती हैं. उन पर ही केयर वर्क का दबाव होता है. चूंकि केयर यानी देखभाल को लेकर हमारी समझ जेंडर्ड और पितृसत्तात्मक है. देखभाल के काम को स्त्रियोचित विशेषता माना जाता है. यही वजह है कि केयर वर्क को औरतों के लिए उपयुक्त पेशा माना जाता है. आखिर में, केयर वर्क का पूरा भार औरतों की तरफ खिसक जाता है.
यह न सिर्फ उनके शोषण का कारण बनता है, बल्कि उन्हें हाशिए पर धकेल देता है. इस बीच घरेलू काम के इंटरसेक्शंस पर भी बात होने लगी हैं. ये इंटरसेक्शंस हैं, वर्ग, और जाति के. इस लिहाज से सोचने पर पता चलता है कि असल में, सबसे कम विशेषाधिकार प्राप्त औरतें ही केयर वर्क का बोझ ढो रही हैं. और उन पर यह बोझ डालने वाले हैं पुरुष और विशेषाधिकार प्राप्त औरतें.
हां, इस दमन और शोषण के कारण ही प्रभावशाली जातियों की औरतों के लिए घरेलू काम के उबाऊपन से बचना आसान होता है. वे अपनी सामाजिक पूंजी और रोजगार को बचा पाती हैं.
भारत में घरेलू काम करने वाली ज्यादातर दलित बहुजन औरतें
जहां तक भारत का सवाल है, वहां केयर वर्क, या पेड डोमेस्टिक वर्क दलित और बहुजन औरतों के जिम्मे है. बेशक, भारत एक जाति आधारित समाज है. जाति आधारित गुलामी से पोषित. भारत की वर्ण और जाति व्यवस्था के तहत घरेलू काम शूद्र और अतिशूद्र किया करते थे. तो, जाति आधारित गुलामी भारतीय समाज में गहराई तक समाई हुई है, और समकालीन संस्थाओं और संबंधों में साफ जाहिर होती है.
सेंटर फॉर विमेंस डेवलपमेंट स्टडीज, दिल्ली की एक रिपोर्ट बताती है कि अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) की क्रमशः 82%, 81% और 64% महिला प्रवासी मजदूर घरेलू काम, निर्माण के काम में लगी हुई हैं. विस्थापन और जंगलों पर अपना हक खोने के चलते एससी और एसटी महिलाओं को एक इलाके से दूसरे इलाके में पलायन करना पड़ता है. देश के 20 राज्यों में जेंडर और प्रवास पर अध्ययन से यह खुलासा हुआ था.
इससे यह भी पता चला था कि अपर कास्ट की 66% प्रवासी महिलाओं को सफेदपोश नौकरियां मिलीं, जबकि दूसरी जाति समूहों में यह आंकड़ा बहुत कम था- ओबीसी में 36%, एससी में 19% और एसटी में 18%.
सोसायटी फॉर रीजनल रिसर्च एंड एनालिसिस की 2010 की रिपोर्ट में देश के चार राज्यों के 1,600 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया था और पाया गया था कि छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा की तीन चौथाई से ज्यादा प्रवासी आदिवासी औरतें घरों में काम करके गुजारा चलाने को मजबूर हैं. इत्तेफाक ही है कि नोएडा की हाल की घटना में घरेलू कामगार भी एससी है.
कौन नहीं दे रहा घरेलू कामगारों को अलग बर्तनों में खाना
हां, नाम बदल गया है. वह घरेलू नौकरानी नहीं, मेड कहलाने लगी हैं, लेकिन फिर भी इस पेशे में हेरारकी कायम है. घरेलू काम में भी जाति आधारित शुद्धता और अशुद्धता की धारणा के आधार पर कार्यों को स्तरों में बांटा जाता है. किस जाति के व्यक्ति को क्या काम दिया जाएगा, यह इस पर निर्भर करता है कि हेरारकी में उसके काम का क्रम क्या है. जैसे रसोई घर पवित्र है तो खाना पकाने का काम अपर कास्ट औरतों को दिया जाएगा. साफ-सफाई का काम दलित बहुजन को.
2017 में पुणे की एक घटना से इसे आसानी से समझा जा सकता है. वहां मौसम विज्ञान विभाग की एक सीनियर साइंटिस्ट ने अपनी हाउस हेल्प पर एफआईआर किया था कि उसने काम करने से पहले उनसे अपनी जाति छिपाई (हाउस हेल्प एससी थी). वह दो साल से उनके घर पर खाना पका रही है और उस पके खाने को भगवान को चढ़ाकर उन्हें ‘अपवित्र’ कर रही है. उस समय पुणे यूनियन ऑफ हाउसमेड्स एंड डोमेस्टिक वर्कर्स ने कहा था कि जातिगत भेदभाव उनके सदस्यों के लिए कोई नई बात नहीं. और यह भी असामान्य बात नहीं, कि कई घरों में बर्तन आंगन में धुलाए जाते हैं, किचन में नहीं. और घरेलू कामगारों को खाने-पीने के लिए अलग बर्तन दिए जाते हैं.
भेदभाव के अलावा हिंसा का सामना भी करना पड़ता है. जैसा कि नोएडा वाले मामले में हुआ. इन हाउस हेल्प्स पर शक करना बहुत ही आम बात है. अगर घर से कोई चीज गायब हुई, तो धमकी, मार पिटाई, पुलिस की तफ्तीश, हिरासत में रखना, नौकरी से निकाल देना, अक्सर होता है.
ज्यादातर लिव-इन हाउस हेल्प ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की होती हैं तो उन्हें नए वातावरण, संस्कृति और भाषा को भी अपनाना पड़ता है. उन्हें फोन का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता, परिचितों, और परिवार वालों से मिलने-जुलने पर पाबंदी होती है. नोएडा में पिटाई की शिकार अनीता सिर्फ रविवार को ही अपने घर वालों से बात कर सकती थी.
क्योंकि घरेलू कामगारों के लिए कानून है ही नहीं
कोई पूछ सकता है कि कानून क्या कर रहा है? क्या देश में कई लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यह मान बैठे हैं कि कुछ लोगों की जिंदगी दूसरों की सेवा करने के लिए ही बनी है? हमारे लिए ‘नौकर’ की क्या अवधारणा है. हमारे यहां श्रम कानूनों में वर्कमैन, या इंप्लॉयर या इस्टैबलिशमेंट्स की परिभाषाएं हैं, ‘घरेलू कामगार’ की नहीं. उनके काम की प्रकृति, नियोक्ता-कर्मचारी के संबंधों की परिभाषा, और वर्कप्लेस की प्राइवेट घर की बजाय पब्लिक प्लेस मानने के चलते मौजूदा कानूनों में उनका कवेरज नहीं किया गया.
2010 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने घरेलू कामगार कल्याण और सामाजिक सुरक्षा बिल का मसौदा तैयार किया लेकिन उस पर ज्यादा काम नहीं हुआ. केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों ने कुछ नियम बनाए और न्यूनतम वेतन तय किए लेकिन ज्यादातर सब मनमाना है. घरेलू कामगार की परिभाषा के बिना, कानूनन अधिकार मिलना मुश्किल ही है. इसके लिए अगस्त 2016 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने लोकसभा में प्राइवेट मेंबर बिल घरेलू कामगार कल्याण बिल पेश किया था जिसमें यह परिभाषाएं साफ थीं.
अब आइना देखिए कि विदेशों में क्या हालत है
वैसे ऐसा नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में काम नहीं हुआ है. आईएलओ ने घरेलू कामगारों पर कन्वेंशन, कन्वेंशन 189 तैयार किया है. इस कन्वेंशन के तहत घरेलू कामगारों को रोजाना और हफ्ते में एक बार रेस्ट दिया जाना चाहिए. न्यूनतम वेतन देना चाहिए और उन्हें इस बात की इजाजत मिलनी चाहिए कि वे अपने छुट्टी के दिन को जिस तरह चाहें, बिताएं. भारत ने उस पर दस्तखत किए हैं लेकिन उसे मंजूर नहीं किया है.
चलिए, यह भी जान लें कि दूसरे देशों का क्या हाल है. विमेन इन इनफॉरमल इंप्लॉयमेंट- ग्लोबलाइजिंग एंड ऑर्गेनाइजिंग नामक ग्लोबल नेटवर्क के मुताबिक विश्व में साढ़े सात करोड़ घरेलू कामगार हैं, और इनमें 65% से ज्यादा औरतें हैं. इनमें 80% से ज्यादा क्लीनर्स और हेल्पर्स हैं. लेकिन दूसरे कई देशों में घरेलू कामगारों के कल्याण के लिए सख्त कानून मौजूद हैं.
अमेरिका के कैलीफोर्निया में डोमेस्टिक वर्क इंप्लॉयीज- लेबर स्टैंडर्ड्स नाम का कानून 2013 से लागू है. इसके तहत न्यूनतम वेतन के अलावा, केयर वर्कर्स को ओवरटाइम भी मिलता है. बेबीसिटर्स इसमें एक अलग काम ही है, जिसकी काम की शर्तें दूसरे केयर वर्क से अलग हैं.
इसी तरह अमेरिका के हवाई राज्य का डोमेस्टिक वर्कर्स बिल ऑफ राइट्स भी 2013 से लागू है. इसके तहत घरेलू कामगार को उसके इंप्लॉयर को पे स्टेटमेंट देना होता है, कि उसने कितने घंटे काम किया, काम के लिए कितना भुगतान किया गया, वेतन की दर क्या है, और अगर वेतन से कटौती की गई है तो क्यों. इस स्टेटमेंट में इंप्लॉयर का नाम और पता लिखा होता है.
ब्राजील में संवैधानिक संशोधन के जरिए 2013 में घरेलू कामगारों को 16 अधिकार दिए गए थे, जैसे ओवरटाइम पे, रोजाना अधिकतम आठ घंटे और हफ्ते में अधिकतम 44 घंटे का काम. इसके अलावा इंप्लॉयर्स को घरेलू कामगार के मासिक वेतन का 8% एक फंड में जमा कराना होगा जो अचानक किसी हादसे के वक्त उस कामगार के काम आए.
थाईलैंड ने श्रमिक संरक्षण एक्ट के तहत 2012 के रेगुलेशंस के जरिए घरेलू कामगारों को सुरक्षा दी गई है. न्यूनतम वेतन आदि के अलावा, इसमें नौकरी से निकालने की शर्तें भी लिखी हैं. इसके तहत इंप्लॉयर को काम से हटाने का नोटिस एक महीने पहले देना होता है. घरेलू कामगार को साल में 30 दिन की बीमारी अवकाश भी मिलता है.
पेरू में घरेलू कामगारों से जुड़े कानून में दो हिस्से हैं- एक, जो कामगार आपके साथ, आपके घर में रहता है. दूसरा, जो घर में नहीं रहता, और नियत घंटे तक काम करके अपने घर चला जाता है. अगर वह सार्वजनिक अवकाश के दिन आपके घर काम करता है तो उसे उस दिन की तनख्वाह के अलावा आधे दिन की तनख्वाह दी जाती है, या किसी दूसरे दिन छुट्टी और आधे दिन की अतिरिक्त तनख्वाह. उसे साल में दो बार आधे महीने की तनख्वाह का बोनस भी मिलता है.
संयुक्त अरब अमीरात के 2017 के घरेलू श्रमिक कानून में अभी पिछले ही महीने संशोधन हुआ है, जिसके तहत कानून के उल्लंघनों पर सजा और जुर्माना बढ़ाया गया है. यहां प्रवासी घरेलू कामगारों की संख्या बहुत है, और उन्हें कई अधिकार दिए गए हैं, जैसे हर दो साल में अपने मूल देश में जाने-आने का राउंड टिकट भी इंप्लॉयर को ही देना होता है.
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