सोनल परेशान थी. लेकिन सोच से सोलह आने पक्की. 21-22 की उमर होगी उसकी. कह रही थी- मेरी किसी से भी शादी हो जाए चलेगा. रंग-रूप कैसा भी हो. धन-दौलत से साधारण हो, तो भी कोई बात नहीं. लेकिन उसकी विचारधारा ‘वो वाली’ न हो. मैंने पूछा- ‘वो वाली’ से क्या मतलब? जवाब मिला- बस वह ‘भक्त’ न हो. मेरे लिए ये सिर्फ एक चौंकाने वाली बात नहीं थी. मेरे सामने एक ऐसी सोच वाली लड़की खड़ी थी, जिसके बारे में मैं सोच तक नहीं सकता था. मैं अचंभित था.
जिस दौर में युवा निजी सुख-सुविधाओं से आगे कम ही चीजों को तरजीह देते हैं, वैसे समय में सोनल विचारधारा को लेकर इस हद तक आक्रामक थी. मैंने सोनल की विचारधारा को आक्रामक माना. इसे मैं विचारधारा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता नहीं मान सकता था. क्योंकि अपनी विचारधारा के प्रति कोई भी प्रतिबद्धता दूसरे की विचारधारा को इस तरीके से खारिज करने की अनुमति नहीं देती.
अब मेरे सामने सवाल था कि एक विपरीत विचारधारा को लेकर सोनल इस कदर आक्रामक मनोदशा में क्यों चली गई? मेरे जेहन में यह सवाल बुरी तरह से कौंध रहा था. क्योंकि लोकतंत्र में तो असहमति को स्वीकार करना ही होता है. सच तो ये है कि लोकतंत्र की बुनियाद ही असहमतियों को कबूलने पर टिकी होती है. और जहां तक मैंने सोनल को समझा है वह मौजूदा दौर के अधिसंख्य बच्चों/युवाओं से बिल्कुल अलहदा है
राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर बेबाक, प्रखर और वैचारिक पूर्वाग्रहों से विरक्त. तो फिर ऐसी सोच वाली सोनल ऐसे पति को कबूल करने के लिए तैयार क्यों नहीं थी, जिसकी राजनीतिक विचारधारा उससे अलग हो?
लोकतंत्र के गौरव को शिद्दत से महसूस करने वाली सोनल लोकतंत्र की बुनियादी शर्त को ही क्यों ठुकरा रही है? मैं परेशान भी हो रहा था. स्वस्थ बहस करने और विरोधी विचारों को सम्मान देने वाली सोनल मुझे निराशा की तरफ ले जा रही थी. आखिरकार मैंने ये जानने की कोशिश शुरू की कि उसे उन लोगों से (जिन्हें वह ‘भक्त’ कहती है) इतना ऐतराज क्यों है?
सोनल ने जो वजह बताई वह मेरे लिए जीवन के एक और पाठ की तरह थी. उसने कहा- विरोधी विचार से उसे कोई परहेज नहीं है. वह ऐसे जीवन साथी के साथ खुशी-खुशी रह सकती है, जो राजनीतिक विचारधारा में उससे अलग या यहां तक कि उलट भी हो. लेकिन ऐसी विचारधारा के साथ नहीं निभा सकती, जो सिर्फ अपनी बात को ही सही समझे.
खुद की विचारधारा से अलग सोच रखने वालों को हिकारत के भाव से देखे. खुद से असहमति रखने वालों के खिलाफ बात-बात में आक्रामक और यहां तक कि जुबानी रूप से हिंसक हो उठे.
सोनल बोलती ही चली गई- भगवान राम से भी उनके भक्तों ने सवाल किए थे. राम राज में भी असहमतियों को स्थान मिला था. लेकिन यहां तो एक वर्ग में ‘शून्य सहमति’ की अवस्था है. मैं तो कहती हूं कि मौजूदा दौर के ‘भगवानों’ में उतनी दिक्कत नहीं है, जितनी ‘भक्तों’ में है.
इसके बाद सोनल ने पलटकर सवाल किया- क्या अपने विचारों को एकतरफा तरीके से सामने वाले पर थोपना लोकतंत्र को कमजोर करने के बराबर नहीं है? मैं चुप रहा. क्योंकि मैं नि:शब्द हो रहा था.सोनल ने फिर कहा- हम पढ़-लिखकर अगर घर से ही लोकतंत्र का गला घुटता हुआ देखेंगे, तो फिर कैसे नागरिक बनेंगे? कैसा समाज बनाएंगे?
इसके बाद सोनल ने ब्रह्मास्त्र चलाया- क्या अब भी आप नहीं मानेंगे कि लोकतंत्र की बुनियाद हमारे-आपके घर के रिश्ते से ही शुरू होती है? अगर घर की दहलीज के अंदर ही लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास होने लगेगा, तो फिर हम घर के बाहर लोकतंत्र को महफूज और मजबूत रखने की लड़ाई कैसे लड़ पाएंगे?
मेरे जेहन में अमेरिकी संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ और स्वीडन के शोध संस्थान वी-डेम की रिपोर्ट घूम गई. जिसने भारत में लोकतंत्र की अवस्था पर गहरे सवाल उठाए हैं.
काश, 21 साल की सोनल की लोकतंत्र पर इस गहरी सोच को वे लोग भी समझते, जिनकी वजह से (भक्ति से) वह मौजूदा लोकतंत्र को अधूरा या फिर खोखला लोकतंत्र मान रही है.
यही नहीं, स्वस्थ लोकतंत्र की खातिर वह जीवन के अपने सबसे बड़े फैसले में आधुनिक समाज की सबसे बड़ी प्राथमिकताओं को नजरअंदाज कर भारी जोखिम तक उठाने के लिए तैयार है. सिर्फ एक ऐसी चौंकाने वाली शर्त पर अपना जीवन साथी चुनने के लिए तैयार है, जिसका कोई मौद्रिक लाभ उसे मौजूदा दौर में नहीं मिलने वाला. उल्टे हानि जरूर हो सकती है.
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