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लोकतंत्र में मजबूत होता ‘जेलतंत्र’, अच्छे भविष्य का संकेत नहीं

Prisoner Data: आखिर भारत में इतनी अधिक मात्रा में कैदी क्यों हैं?

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नौकरशाही, मीडिया, राजसत्ता के बीच एक अघोषित गठजोड़ सा है. तीनों के स्वार्थ एक से हैं या कहें एक दूसरे से जुड़े हैं. तीनों ही ग्लोबल-पूंजी के सिपहसलार की भूमिका में हैं. राजसत्ता अपनी मनमानी नीतियां बनाकर जनता पर थोप दे रही है. मीडिया (Media) का एक बड़ा वर्ग मदारी स्टाइल में इन नीतियों के फायदे गिनवाने में लग जाता है और नौकरशाही इन मनमानी नीतियों का विरोध करने वालों का दिलखोलकर दमन करती है. राजसत्ता ने दमन के अनगिनत पैतरों को विकसित किया है या पहले से मौजूद को और अधिक मजबूत किया है. जेलें उनमें से एक हैं, जिसे जब मन किया उठाकर जेल में डाल दिया.

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अपने यहां की जेलें अपने कार्यप्रणाली में पूरी तरह औपनिवेशिक ही तो है. वही अंग्रेजियत और वही अकड़. उत्पीडन के अंग्रेजी तरीकों को आज यह खुद अंग्रेजों से अधिक प्रयोग कर रही. ये जेलें दमन के ऐसे केंद्र हैं जहां से आपकी चीखें भी बाहर नहीं निकल सकती, चाहे आपकी चीखें कितनी ही अर्थपूर्ण क्यों न हो!

जेल में भीड़ का मतलब

एक स्वस्थ्य लोकतान्त्रिक समाज में अपराध कम होने की आशा की जाती है. आपकी जेलें अगर भरी हुई है यानि समाज में सबकुछ ठीक नहीं है. व्यक्ति के अपराध के पीछे समूह और सत्ता की भी प्रेरणा होती है. समाज बेचैन है, तो व्यक्ति को कैसे चैन मिल सकता है. उसकी बेचैनी को समझने और उसका समाधान करने का प्रयास होना चाहिए था.

दुर्भाग्य से यहां जेलें लगातार भरी जा रही हैं. वर्ष 2018, 2019, 2020 में कुल कैदियों की संख्या क्रमशः 466802, 481387 और 488511. वर्ष 2020 में ही देखें तो देश में कुल दोषसिद्ध कैदियों की संख्या 112589 थी और विचाराधीन कैदियों की संख्या 371848. वर्ष 2015 से 2020 तक के NCRB डेटा को देखें तो चौंकाने वाले मामले सामने आते हैं. जेलों में इनकी क्षमता से अधिक कैदियों को ठूंसा जा रहा है और इन जेलों का वातावरण ऐसा है कि असमय मौतें हो जा रही है. कैदियों का जीवन नारकीय है.

आखिर इस ‘नए होते भारत में इतने अपराधी और दोषी कैसे पैदा हो रहें? और अगर उन्हें जेलों में रखा जा रहा है तो क्या इन कैदियों का कोई मानवाधिकार है भी या नहीं? क्या केवल जेल में होना ही उनके अन्य मानवीय अधिकारों से उन्हें वंचित कर देता है?

जेल में अमानवीय माहौल

आमतौर पर इन जेलों का वातावरण इतना अमानवीय और असुरक्षित होता है कि इसे यहां होने वाली मौतों के सन्दर्भ में समझा जा सकता है. वर्ष 2020 में 189 कैदियों ने जेलों में ही आत्महत्या कर ली थी और इस मामले में अन्य राज्यों की तुलना में उत्तर-प्रदेश, जिसे ‘उत्तम-प्रदेश’ के रूप में भी प्रचारित किया जाता है...सबसे आगे था, जहां 33 कैदियों ने आत्महत्या कर ली.

देश में जेलों के भीतर मृत्यु के आंकड़े पिछले वर्षों में लगातार बढे हैं. वर्ष 2015 में यह 1584 था तो वहीं 2016 में यह बढ़कर 1655 हो गया. इसी तरह वर्ष 2017, 2018, 2019, 2020 में क्रमशः 1671, 1839, 1739, 1764, 1887 हो गया. जेलों में मृत्यु को दो भागों में बांटकर समझा जाता है- पहला प्राकृतिक मौत और दूसरा अप्राकृतिक मौत.

हालांकि जेल प्रशासन के लिए अप्राकृतिक मौतों को प्राकृतिक मौतों में बदलने में अधिक दिक्कतें नहीं आती, फिर भी कुछ मामले ऐसे आ ही जाते हैं, जहां ये ऐसा नहीं कर पाते और फिर यह सरकारी आंकड़ों में अप्राकृतिक मौतों के रूप में दर्ज हो ही जाता है. अगर आंकड़ों के सन्दर्भ में देखें तो अप्राकृतिक मौतों में भी लगातार वृद्धि ही हुई है. वर्ष 2015 से 2020 तक यह क्रमशः 115, 231, 133, 144, 160, 189 दर्ज किया गया.

दूसरी तरफ प्राकृतिक कारणों से 1642 मौतें हुई, जिनमें से 1542 बिमाड़ी के कारण और 100 वृद्धावस्था के कारण. अब सवाल है कि जेल प्रशासन ने वृद्धावस्था को कैसे परिभाषित किया और किस आयु को इन्होने मृत्यु की आयु मान लिया, इसपर आंकड़े या अध्ययन का पूर्णतः अभाव है. कैदी की आयु का अधिक होना भी अप्राकृतिक मौतों की लिस्ट को कम करने के लिए जेल प्रशासन के लिए एक आसान युक्ति होती होगी.

इसी तरह बीमारी का जो आंकड़ा (वर्ष 2020) है, उसमें हार्ट फेल से 480, फेफड़े खराब होने से 224, किडनी खराब होने से 92, टीबी से 65, कैंसर से 64, लीवर से 61, HIV से 37 आदि हैं.

चूंकि मौतों की संख्या सामान्य से बहुत अधिक है, ऐसे में जेल प्रशासन या इसकी कार्यप्रणाली या फिर इसके सामर्थ्य पर सवाल उठता है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में मौतें कैसे हो जा रही है. जेलों में टीबी जैसी साध्य बीमारीयों में अगर मौतें हो रही हैं तो फिर यह कैसे मान लिया जाए कि असाध्य बीमारियों में वहां कैदियों का समुचित इलाज किया जाता होगा.

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जेल के बाहर सरकारी अस्पतालों की स्थिति क्या है, वहां किस तरह का इलाज होता है इसके बारे में कुछ बताने की जरुरत नही है. तो ऐसी स्थिति में अपराधी या आरोपी मान लिए गए लोगों के जीवन को कितनी गंभीरता से इन जेलों में लिया जाता होगा यह संदिग्ध है.

कैदियों के जीवन पर अनगिनत भाषाओं में अनगिनत फिल्में भी बनी है, जो जेल के भीतर होने वाली अमानवीयता का चित्रण करते हैं.

“नए भारत” में उम्मीद की गई थी कि जनता को समाज की मानवीय पक्षों और जरूरतों के साथ स्थान दिया जाएगा, अच्छी शिक्षा होगी, अच्छे स्वास्थ्य होंगे, पर्याप्त रोजगार होंगे, विचार और अभिव्यक्ति की आजादी होगी, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से लोग जेल की दीवारों में कैद हो रहें हैं. और केवल कैद ही नहीं किये जा रहे, बल्कि जेल के भीतर एक अभिशप्त जीवन को जी रहे हैं. यह लोकतंत्र के अच्छे भविष्य का संकेत तो नहीं हो सकता.

डॉ केयूर पाठक सामाजिक विकास परिषद, हैदराबाद से पोस्ट-डॉक्टरेट हैं.

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