कोई सीरियल था, दूरदर्शन पर, और उसमें था एक छोटा-मोटा ठग. गुमटी पर बैठा चाय पी रहा है, पुलिस वाले उसी को खोजते आते हैं,पहचानते नहीं है, उसी से पूछ बैठते हैं, उस उचक्के बदमाश के बारे में. वह उन्हें, जाहिर है कि बहका देता है, और फिर चाय के कप में झांकता हुआ अपने आप में मुस्कराता है. थोड़ी ही देर में पुलिस वाले भन्नाते हुए लौटते हैं, उन्हें शायद पता चल गया है कि उन्हें बुद्धू बनाने वाला वही है, जिसे वो खोज रहे थे.
छोटे रोल में भी बड़ी अदाकारी
वह ठग, उचक्का, कप मेज पर रखता है, पूरी शाइस्तगी से, और फिर एकाएक बंदर की तरह उचककर भागता है. न सीरियल का नाम याद है, न ठीक से सन-संवत. शायद 94-95. लेकिन वह नौजवान, उसकी आंखें, उसकी मुस्कान,और बात का लहजा कभी नहीं भूलेगा. छूटते ही कहा था सुमन से- ‘मौका मिला तो यह लड़का महानतम अभिनेता बनने की कूवत रखता है.’वह इरफान था.
मकबूल.. एक मील का पत्थर..
‘मकबूल’ देखने के बाद मन ही मन विशाल भारद्वाज को धन्यवाद दिया. एक तो मैकबेथ जैसी गहन त्रासदी को इतने गजब ढंग से समकालीन बनाने के लिए, और दूसरे मकबूल के लिए इरफान का चुनाव करने के लिए. वह सही मायनों में पहला ब्रेक था, इरफान के लिए. इरफान ने साबित किया कि मकबूल उनसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता था. लेकिन क्या सिर्फ मक़बूल…?
“दरिया मेरे घर तक आ पहुंचा है…”
इन चंद शब्दों की अदायगी में इरफान ने मैकबेथ ( या मकबूल) के चरित्र की विडंबना,उसके पाप-बोध, भय और नियति को आकार और आवाज दोनों दे दिये थे. शेक्सपियर के चरित्रों को सजीव करना अभिनेताओं के लिए चुनौती भी रहा है, आकांक्षा भी. पता नहीं तकनीकी तौर पर इरफान शेक्सपियरन अभिनेता कहलाएंगे या नहीं, लेकिन मकबूल देखते लगातार लगता रहा कि काश एक बार इरफान को मकबूल ही नहीं, मैकबेथ की भूमिका में देख सकूं.
इरफान महान अभिनेता इसलिए थे कि कोई रोल उनके द्वारा अदा होने से इंकार कर ही नहीं सकता था. वे दिलीप कुमार, मार्लेन ब्रांडो, संजीव कुमार, धृतिमान चैटर्जी की कोटि के अभिनेता थे. आंख की जरा सी हरकत, हथेली की जुंबिश और आवाज के जरा से घुमाव से कितना असर पैदा किया जा सकता है, सामने वाले की रीढ़ में ठंडक भी दौड़ाई जा सकती है और उसे बेसाख्ता हंसने या रोने पर मजबूर भी किया जा सकता है, यह बात इन एक्टरों का काम देख कर समझ आती है.
आंखों का जादूगर
इरफान की आंखें सिर्फ बोलतीं नहीं थीं, सुनतीं भी थीं. लंचबॉक्स में अपने काम के धुनी, जरा सनकी से एकांउटेंट, किसी अनजान गृहिणी का भेजा लंच गलतफहमी में उसके हाथ एक दिन आ जाता है, फिर यह सिलसिला चलने लगता है. मैं केवल एक दृश्य याद करना चाहता हूं. गलत कहा, चाहने का सवाल ही नहीं, बाकी सब की याद धुंधला गयी है, लेकिन यह सीन जैसे कल ही देखा था.
वह एकाउंटेंट लंच खा रहा है, पीछे दो-एक लोग शायद अखबार पढ़ कर किसी लड़की की खुदकुशी की बात कर रहे हैं, इरफान को शक होता है कि कहीं यह वह तो नहीं. बस आधे मिनट में ही शक दूर हो जाता है, वह फिर से लंच खाने लगता है.
लेकिन यह जो आधा मिनट था न, इसमें इरफान की आंखें चौकन्नी होकर सुन रहीं थीं,उनका चेहरा आशंका और प्रार्थना में, खामोशी में डूबा हुआ था, बैठे हुए इरफान के शरीर का तनाव भी पढ़ा जा सकता था, और दूरी बरतने की कोशिश भी. किसी को मालूम भी नहीं पड़ना चाहिए कि मैं किसी अनजान व्यक्ति के लिए इतना चिंतित हूं. क्यों चिंतित होना चाहिए मुझे…?
सही लिखा है जावेद अख्तर ने-
‘इरफान अभिनय में अपनी खुद की आवाज थे, किसी की प्रतिध्वनि नहीं.’
डायलॉग डिलीवरी का बाजीगर
और आवाज का यह खुदपन, जुनूनी समर्पण को सीखने के अनुशासन में ढालने से आता है. पानसिंह तोमर का वह दृ्श्य बहुत चर्चित हुआ,‘हमाए यहां गाली के बदले गोली देते हैं’ फिल्म लिखी भी संजय चौहान ने बडे़ मन से, बड़ी खूबी से है. संजय उसी इलाके के हैं. वे संवादों में स्थानीय प्रामाणिकता अच्छी तरह लाए हैं. लेकिन, संवाद की अदायगी की जान तो डिक्शन की प्रामाणिकता के तोते में बसती है.
और इस तोते को इरफान ने कैसे साधा है, यह पढ़ कर नहीं समझा जा सकता. वह दृ्श्य याद दिला देता हूं आप याद करें, फिर से देखें और परखें.
पानसिंह तोमर अपने बेटे को गांव से दूर करना चाहता है. बेटा, जाहिर है कि, पिता के संघर्ष का साथी बनना चाहता है. पानसिंह उसे कस कर डांटता है और अपनी बात की हामी भराने के लिए कहता है- “ कहो हां”. डरा-घबराया बेटा हां कह देता है.
याद करें इरफान के मुंह से इस ‘कहो’ का उच्चारण. मुरैना, ग्वालियर के इलाके में ‘ह’ के साथ लगने वाली स्वर की आवाज न ‘ओ’ होती है, न ब्रज इलाके की तरह ‘औ’. वह इन दोनों के बीच की आवाज है, जिसके लिए लिपि में कोई संकेत है नहीं. फर्क केवल सुनकर ही समझा जाता है और बोलना परिवेश से ही आता है. पढ़े-लिखों की शहराती भाषा से गायब भी हो जाता है.
इरफान ने इस नाजुक फर्क को पकड़ा और निभाया, टोंक राजस्थान के इरफान ऐन मुरैना के पानसिंह की ही तरह बोले- ‘कहौ हां…’
मीरा नायर ने याद किया है कि ‘नेमसेक’ के लिए इरफान ने बांग्ला बोलने का सही तरीका सीखना शुरु किया तो हालत यह कर दी कि मीरा को उनसे कहना पड़ा कि इतने खांटी लहजे वाली बांगला नहीं चलेगी. कैरेक्टर कोलकाता नहीं न्यूयॉर्क में रहने वाला बंगाली है.
इसीलिए इरफान के अभिनय की अपनी आवाज थी, नहीं थी नहीं- है. सही कहा है शाहरुख खान ने- ‘इरफान अभिनेताओं के प्रेरणा स्रोत थे.’ यह कूवत क्या केवल एक्टिंग का क्राफ्ट साध लेने से आ जाती है?
इरफान- एक एक्टिविस्ट
अग्रणी रंगकर्मी प्रसन्ना बिग बिजनेस लूट के विरुद्ध सैक्रेड इकॉनॉमी सत्याग्रह चला रहे हैं. वे याद कर रहे हैं कि इरफान इस सत्याग्रह के सक्रिय सत्याग्रही थे और इसमें भाग लेने कई बार कर्नाटक आये थे. ऐसी ही एक यात्रा में नाट्यलेखक और समीक्षक रवीन्द्र त्रिपाठी भी साथ थे. उन्होंने इसके बारे में लिखा भी था.
हर तरह की सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ के खिलाफ खुल कर बोलने की सजा इरफान को मौत में भी मिल रही है, कुछ लोग इस वक्त भी बदकलामी से बाज नहीं आ रहे.
लेकिन, कुल मिला कर इरफान के निधन पर प्रतिक्रियाओं से ऐसा तो लगता है कि कुछ कूढ़मगजों को छोड़ दें तो अच्छा कलाकार कम से कम कुछ देर के लिए लोगों को उनकी इंसानियत फिर से याद तो दिलाता है.
कोई थ्योरी गढ़ने या याद दिलाने का मन नहीं है, लेकिन इरफान के जीवन और काम के बारे में जो थोड़ी बहुत जानकारी है, उससे लगता तो यही है कि आज के दौर में यह मुश्किल ही है कि आप सामाजिक वास्तविकता से निर्लिप्त रहते हुए, साहित्यिक-रचनात्मक संवेदना से शून्य रहते हुए, बढ़िया अभिनेता या कलाकार बन सकें.
काल थोड़ी ही बीतता है, हमीं बीत जाते हैं.कहा था कवि, दार्शनिक भर्तृहरि ने- ‘कालो न यातो वयमेव याता:’
(लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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