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मकर संक्रांति पर झारखंड में टुसू पर्व का उल्लास कहां गुम हो गया?

14 जनवरी को जब देश में मकर संक्रांति और पोंगल मनाया जाता है, झारखंड के आदिवासी टुसू का पर्व मनाते हैं.

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जो माटी अपनी भाषा-संस्कृति से मुंह मोड़ लेती है वह तरक्की की राह पर कुछ कदम चलकर ही लड़खड़ाना शुरू कर देती है. यही हाल झारखण्ड का है. बीस साल बाद भी यहां की भाषा-संस्कृति रहनुमाओं का बाट जोह रही हैं. अलग राज्य का मतलब सिर्फ खनिज संपदा की लूट नहीं बल्कि उसका संरक्षण और सदुपयोग भी है.

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14 जनवरी को जब देश में मकर संक्रांति और पोंगल मनाया जाता है, झारखंड के आदिवासी टुसू का पर्व मनाते हैं. 14 जनवरी यानी आखाइन जात्रा का दिन. पीठा परब का दिन. शिकार परब का दिन. खेतों से नई फसल काटकर खलिहान भरने का उत्सव मनाने का अवसर, लेकिन ये सब धीरे-धीरे सपने बनते जा रहे हैं और सपने तो टूटकर बिखरने के लिए ही होते हैं.

झारखण्ड का आंदोलन महज अलग राज्य का आंदोलन भर नहीं रहा. यह जंग सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए नहीं लड़ा गया. यह आंदोलन खनिज संपदा की लूट को रोकने का आंदोलन था । भाषा-संस्कृति के संरक्षण की यह लड़ाई रही. नारी सम्मान , कुमारी पूजा , कर्म की आराधना, खेत खलिहान का उत्सव यहां के पर्व त्योहारों में अनायास देखने को मिल जाएंगे.

किसी इलाके को मटियामेट कर अपना साम्राज्य कायम करना है तो पहले वहां की भाषा-संस्कृति को तहस नहस कर देना है. या तो उसकी संस्कृति पर सीधा हमला करे या ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें कि परेशान, अभावग्रस्त लोग अपनी संस्कृति को आयातित संस्कृति में विलीन करने को बाध्य हो जाए.

14 जनवरी को जब देश में मकर संक्रांति और पोंगल मनाया जाता है, झारखंड के आदिवासी टुसू का पर्व मनाते हैं.
टुसू विसर्जन में संथाली नृत्य
(फोटो- क्विंट हिंदी)
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भारत की बहुआयामी संस्कृति की खुबसूरती इसी में है कि विविधताओं के बीच मूल संदेश एक ही निसृत होता है. पंजाब की लोहड़ी से लेकर झारखण्ड की टुसू , आखाइन , पीठा और दक्षिण के पोंगल तक एक ही संदेश गूंजता है. श्रम की पूजा, खेत खलिहान और किसानी की मर्यादा , गांव की सोंधी माटी और उल्लास का सामूहिक बंटवारा.

झारखण्ड की अकूत खनिज संपदा के उजाड़ के लिए जो अभियान वर्षों से चल रहा है वह अब संगठित रूप ले चुका है. इस अभियान से यहां की भाषा रोज लहूलुहान हो रही है । यहां की संस्कृति हर दिन तार-तार हो रही है. यहां की खान-खनिज , खेत-खलिहान और भाषा-संस्कृति की रक्षा के लिए ही झारखण्ड समेत बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों को लेकर अलग राज्य का आंदोलन शुरू हुआ था. इन इलाकों की बोलियों में फर्क ज़रूर था लेकिन संस्कृति एक सी थी. हालांकि बाद में बिहार का बंटवारा कर झारखण्ड का गठन तो हो गया लेकिन बाकी राज्यों के हिस्सों को छोड़ दिया गया.

झारखंड में 13 जनवरी को लोग बाउंड़ी मनाते हैं. नए धान की पूजा । 14 को टुसू विसर्जन । आखाइन जात्रा. पीठा परब. ' डिगदा डिगदा मोकोर पोरोबे, छांका पीठार गोरोबे ' अब कहां सुनने को मिलता है? बंगाल के मानभूम की बांग्ला भाषा का इस इलाके की संस्कृति के साथ सरोकार आसानी से समझा जा सकता है.

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14 जनवरी से किसानी का नए रूप से आगा होता है. बैलों को खेतों में जोता जाता है. बैलों के पैरों में तेल लगाने की प्रथा है. शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण आर्थिक हालात भी बदतर हुए हैं. गाय अगर कहीं कहीं दूध के लोभ में दिख भी जाएं तो बैल अनफिट होकर कसाई की दहलीज पर पहुंचा दिए गए हैं. हल बैल की जगह ट्रैक्टर और नई मशीनों ने ले ली है. थापा पीठा ,गुड़ पीठा , भापा या जल पीठा ..अब कहां ? बड़ी दुकानों स्वीट्स ने पीठा को ठीक उसी तरह विस्थापित कर दिया है जैसे अपनी जमीन उद्योगों में देकर किसान डिस्प्लेस हो गए हैं

ऐसा नहीं है कि दुनिया के अन्य मुल्कों में भाषा-संस्कृति पर हमले नहीं हुए हैं. अन्य देशों में दूसरे मुल्क के लोग ऐसी साज़िश करते हैं. हमारे यहां अपने ही देश के लोग ऐसा करते हैं. उस समय भूल जाते हैं हम सभी एक ही राष्ट्र के लोग हैं. सभी को अन्य की भाषा-संस्कृति को समृद्ध बनाने की कोशिश करनी चाहिए. आखिर विविधता ही भारत की पहचान है. काश ! ऐसा होता तो अपने ही राज्य में खोरठा , मुंडारी , हो, बांग्ला.... असहाय नहीं बन जातीं. खोरठा एवं अन्य स्थानीय भाषा के कलाकार भी पद्मश्री , पद्मभूषण जैसे पुरस्कार पाते. उन्हें भी भोजपुरी और पंजाबी की तरह स्टेटस मिलता। वे अभाव और फाकाकशी में नहीं जीते.

ऑस्ट्रेलिया में भी आदिवासियों पर बेइंतहा ज़ुल्म हुए. उन्हें मलेरिया वाले जैकेट देकर मौत के मुंह में धकेला गया ताकि उनकी आबादी घटे. ठिठुरते ठंड में अंग्रेजों के दया के जैकेट पहनकर वे इस दुनिया से कूच करते गए. अब अपने ही मुल्क में वे अल्पसंख्यक बन गए. वहां की चकाचौंध अब बाहर के साहबों के लिए है. लम्बे समय के बाद ऑस्ट्रेलिया की संसद ने ट्राइबल पर हुए ज़ुल्म के लिए राष्ट्रीय खेद दिवस की घोषणा की है. साहबों की अगली पीढ़ी के लोग इसके लिए प्रायश्चित्त भी कर रहे हैं.

14 जनवरी को जब देश में मकर संक्रांति और पोंगल मनाया जाता है, झारखंड के आदिवासी टुसू का पर्व मनाते हैं.
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आज जब बच्चियां देश में असुरक्षित हो गई हैं वैसे समय यहां की टुसू पूजा पूरे देश को नया संदेश देती है. यहां न सिर्फ कुमारी टुसू की महीना भर तक पूजा होती है बल्कि जब मकर संक्रान्ति के दिन नदीघाट में टुसू का विसर्जन होता है तो सभी की आंखों में आंसू छलक पड़ते हैं. गाजे बाजे के साथ चौड़ल लेकर बच्चियां नाचते गाते अहले सुबह नदी घाट तक जाती हैं. मुझे लगता है पूरी दुनिया में कुंभ और छठ के साथ टुसू उत्सव ही एक ऐसा त्योहार है जो कल कल बहती नदियों की धारा की गीत गुनगुनाते हैं. अहले सुबह टुसू के विसर्जन की तस्वीरें देखने के लिए कभी सड़क की दोनों ओर , नदी तट पर अपार जनसमूह उमड़ पड़ता था. अब यह अतीत की कहानी बनता जा रहा है.


टुसू उत्सव यहां की संस्कृति के साथ बंगाल के मानभूम कल्चर के एकाकार होने का प्रमाण भी इस त्योहार में मिलता है. 'हामदेर टुसू एकला चले , बिन बातासे गा दोले ' , ' छाड़ दारोगा रास्ता छाड़ , आमादेर टुसू जाइछे कोइलकाता ' ' तेल दिलाम , सोइलता दिलाम , दिलाम स्वर्गेर बाती , सोकोल देवता तारे पूजे , तुमि लोक्खी-सोरोस्वती ' एक माह तक उल्लास-उमंग के बाद टुसू प्रतियोगिता ..किसकी टुसू बेहतर है इसे लेकर गायन प्रतिस्पर्धा फिर विसर्जन..बच्चियां रो उठती हैं ..वे नम आंखों से गाती हैं.. ' आघन सांकराइते टुसू हासे गो , पौष सांकराइते टुसू कांदे गो'

टुसू को लेकर कई किस्से-कहानियां प्रचलित हैं. इस पर विस्तार से नहीं लिखकर सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि टुसू कुमारी है. बेहद खुबसूरत है . अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ़ बगावत करती है. शोषक और अत्याचार की बुरी निगाह से बचने के लिए मकर संक्रांति के दिन नदी घाट में कूदकर जल समाधि लेती है.
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बंगाल , ओडिशा में कहीं टुसू की मौसी घर है तो कहीं बुआ घर . जिस अत्याचार से तंग आकर टुसू ने जलसमाधि ली थी वह अत्याचार आज भी जारी है. वे जुल्मी आज भी किसी न किसी रूप में दिख जाते हैं. वह गिद्धदृष्टि आज अधिक तीक्ष्ण हो चुकी है. और बदतर. घटिया. बेखौफ. अब झारखण्ड ही नहीं पूरे मुल्क की टुसूओं की आबरू खतरे में है. अच्छे लोग , पुलिस , कानून ,थाना , कोर्ट , कचहरी , संविधान ...सबकुछ रहने के बावजूद टुसू सिर्फ आघन-पूष नहीं हर माह , प्रतिदिन अंदर ही अंदर रो रही हैं. बाहर-बाहर जख्म, अंदर -अंदर आंसू पी रही हैं. झारखण्ड के पास सिर्फ वनपाथर और गर्भ में छिपी खनिज संपदा ही नहीं.. माफियाओं की नज़र हमारी खनिज सम्पदाओं पर ही नहीं बल्कि हमारी कुमारी टुसूओं पर भी है. ऐसा दिन आवे शर्म से चुल्लू भर पानी में इस बार खान-खनिज के लुटेरा डूब मरे । हमारी टुसूओं के पास अपार शक्ति है. वे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को श्रम , सामूहिकता और उत्सव-उल्लास की राह दिखा सकती हैं. अहिंसक तरीके से , जन भागीदारी से कभी ऐसा दिन आवे जब आसुरी शक्तियों का नाश हो...उल्लास से सराबोर हो माई , माटी , मानुष...

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