दिलीप कुमार हिंदी फिल्मों के वे महानायक थे, जिन्होंने केवल भारत ही नहीं, दुनिया भर में हिंदी-उर्दू समझने वाली कई पीढ़ियों को प्रभावित किया था. आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी यादों की खुशबू उनके किए किरदारो में और चाहने वालो में फैली हुई है.
दिलीप कुमार की फिल्मों को दक्षिण भारत के उत्तरी कर्नाटक के हुबली शहर के बालक विक्रम ने बहुत छोटेपन से ही देखना शुरू कर किया था और इसी के साथ मन में पहले पर्दे पर आने के सपनों ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी थी.
अपने बचपन के फिल्मों में आने के सपने से हिट फिल्म ‘जूली’ के हीरो के रूप में स्थापित विक्रम अपनी सफलता के पीछे कहीं-कहीं दिलीप कुमार को मानते है. खास बात यह है कि हिंदी फिल्मों में दक्षिण से बहुत लोग हीरो बनने के लिए आए, लेकिन उनमें विक्रम उन चंद गिने चुने कलाकार हैं, जो हीरो के रूप स्थापित हो सके.
आज हम अपने जमाने के सितारे विक्रम मकानदार से बातचीत में दिलीप कुमार से जुड़ी कुछ यादें साझा करने जा रहे हैं.
सवाल: ‘आपने सबसे पहली बार दिलीप कुमार का नाम कब सुना था?’
जवाब: "जहां तक मुझे याद आता है, मैंने दिलीप कुमार का नाम पहली बार तब सुना था जब मै कोई आठ साल में था, उनकी फिल्म ‘मधुमती’ मेरे घर के पास गणेश टाकीज में रिलीज हुई थी, उसमें उनको देखा तो बहुत अच्छा लगा, इस फिल्म को कितनी ही बार देखा. यह मेरी दिलीप कुमार की पहली मेमोरी है. एक एक करके उनकी फिल्में देखता गया. 1960 में अपने सपनों की दुनिया बम्बई पहली बार आया तो उन दिनों यहां पर दिलीप कुमार की दो फिल्में लगी थीं. मराठा मंदिर में ‘मुगल-ए-आजम’ और लिबर्टी में ‘कोहिनूर’, दोनों देखीं."
"उस समय तक दिलीप साहब एक बड़ा नाम बन चुके थे. उन दिनों मनोरंजन का एक मात्र साधन फिल्में ही हुआ करती थी, हमारे शहर हुबली में लोग कहते थे, भाई फलां-फलां फिल्म लगी है, उसमें दिलीप कुमार है. गोया यह बहुत बड़ी चीज हो. वैसे भी हमारे यहा लोगों के बीच बातचीत का विषय दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद ही हुआ करते थे."
"फिल्मी क्रेज की हालत यह थी कि टेलर से लेकर बारबर तक अपने व्यवसाय को चमकाने के लिए इन सितारों की लोकप्रियता का सहारा लेते थे. बाल कटाने जाओ पूछते थे कौन सा कट चाहिए दिलीप, राज कपूर या देवानंद कट. देवानंद कट में आगे की तरफ जुल्फों का एक गुच्छा घुमा कर छोड़ दिया जाता था, दिलीप कट में आगे कोई खास कलाकारी नहीं होती थी, बस पीछे जरा स्टाइल से लम्बे बाल छोड़ दिए जाते थे. राजकपूर कट कुछ ऐसा होता था आगे से जरा रस्टिक लुक और पीछे जीरो की मशीन फेर दी जाती थी."
"मै अपने बारबर को बोलता था मेरे बाल दिलीप कुमार जैसे बना दो, बाल सेट करने के बाद वो पूछता था कलम कैसी बनाऊ, देवानंद जैसी? मैं कहता था बिल्कुल दिलीप कुमार जैसी, अब मुझे लगता है कि उस दौर के बच्चे और किशोर बालो के स्टाइल से ही अपने आप को दिलीप कुमार समझने लगते थे. टेलर भी गजब करता था, पूछता था तुम्हारी पेंट दिलीप कुमार स्टाइल की बना दूं, थोड़ा पैसा ज्यादा देना पड़ेगा."
सवाल: ‘दिलीप साहब से रू-ब-रू मुलाकात कब हुई?’
जवाब: "मेरे शहर हुबली के पास एक बस्ती हावेरी थी. वहा अंजुमन-ए-इस्लाम द्वारा फंड जुटाने के रंगारंग कार्यक्रम में दिलीप कुमार आए थे. मेरे पिताजी के पास उस कार्यक्रम के टिकट भेजे गए थे. वो तो कहीं ऐसे कार्यक्रमों में आते-जाते नहीं थे. लौट फिर के मुझे ही जाना पड़ता था. मुझे याद है दिलीप कुमार अपने पारिवारिक डॉक्टर मोकाशी के कहने से वहां आए थे.
आज जहां सितारे बारबर सेलून से लेकर बुटीक के उद्घाटन का फीता काटने तक के पैसे लेते है. दिलीप साहब चैरिटी के लिए बिना किसी पैसे के खुशी-खुशी चले जाते थे. मोहम्मद रफी, जानी वाकर, मुकरी भी उनके साथ थे. कार्यक्रम बहुत सफल रहा. मैं फ्रंट रो में बैठा हुआ था. मेरी दीवानगी देखिए, मैं उन्हें एक टक देख रहा था. मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वो भी मुझे देख रहे हैं. जिधर से वे गुजरे वहा खड़े हो कर मैं देर तक लम्बी-लम्बी सांस लेता रहा. मुझे लगा मैं उनकी सांस को महसूस कर पा रहा हूं."
सवाल: ‘दिलीप साहब को लेकर उनके प्रशंसकों की दीवानगी के बचपन के कुछ और किस्से?’
जवाब: "फेहरिस्त लंबी है. हमारे गृह नगर हुबली में पांचवें दशक में फिल्म प्रेमियों के तीन ग्रूप बन गए थे, देवानंद फैन क्लब, राज कपूर फैन क्लब और दिलीप कुमार फैन क्लब. इनमें से जिनके भी पसंदीदा स्टार की कोई फिल्म रिलीज होती, उनके फैन बाकायदा गाजे-बाजे के साथ पूरे शहर में जुलूस निकालते थे. गंगा जमुना की रिलीज के समय का जुलूस मुझे आज भी याद है. अद्भुत नजारा होता था.
1960 में गजब हुआ, एक थिएटर के बाहर पोस्टर लगा था 'Mughal-e-Azam Coming' मात्र इस पोस्टर से शहर में हंगामा हो गया, पोस्टर देखने के लिए इतने लोगों की भीड़ थिएटर के बाहर जमा हो गई कि कुछ न पूछिए. इन दीवानों को तितर-बितर करने के लिए पुलिसकर्मी को हरकत में आना पड़ा, थिएटर की खिड़की के शीशे टूटे पथराव हुआ. उसी दौरान दिलीप कुमार की ‘कोहिनूर’ लगी, उस दिन उनके फैन ने हाथियो पर बैठ कर जुलूस निकला था."
सवाल: ‘अपनी दिलीप कुमार से पहली बार हुई मुलाकात के बारे में बताइए?’
जवाब: "FTII में पढ़ाई के दौरान सत्यजीत रे, अशोक कुमार जैसे बडे कलाकार हमे सम्बोधित करने आते थे और बडे खुलेपन से मिलते भी थे. दिलीप कुमार इस दौरान नही आ सके थे. 1972 मे FTII से निकलने के बाद मुझे पहली फिल्म मिली थी ‘प्यासी नदी’. इसके निदेशक कानागी शंकर ‘सगीना महतो’ में विमल राय के सहायक थे और उनका दिलीप कुमार से बड़ा नज़दीक का रिश्ता था इसलिए उन्होंने बतौर स्वतंत्र निदेशक पहली फिल्म का मुहूर्त क्लैप देने के लिए आमंत्रित किया.
मुझे जब पता लगा कि दिलीप कुमार क्लैप देने आ रहे हैं, रोमांचित हो गया, एक नए हीरो के लिए यह वाकई बडी बात थी पर निदेशक टेंशन में थे. उन्होने मुझसे पूछा दिलीप कुमार के सामने संवाद बोलने में कोई परेशानी तो नही होगी, अच्छी तरह रिहर्सल कर लेना. लेकिन मेरी FTII का प्रशिक्षण और आत्मविश्वास मेरे साथ था, बस मेरी एक ही तमन्ना थी वे मेरी ऐक्टिंग देख कर मुझे शाबाशी दे दे, मेरे लिए यही आस्कर होगा. शाट लिया गया पहली बार में ओके हो गया, दिलीप साहब ने कहा, अच्छा शाट दिया, मेरा दिन बन गया.’
'इसके बाद कभी आपको दिलीप कुमार के साथ काम करने का अवसर मिला?’
‘मेल मुलाकात का सिलसिला खूब चला पर काम करने का मौका नही मिला.'
‘आपने उन्हे करीब से देखा परखा, आपके हिसाब से उनके इंडस्ट्री में बने रहने के पीछे क्या सीक्रेट था?’
‘दिलीप कुमार 1947 से 1960 तक सबसे व्यस्त कलाकार थे ‘शोला और शबनम’, ‘तराना’, ‘अमर ‘, ‘कोहिनूर‘, ‘गंगाजमुना‘, ‘गोपी’ एक के बाद एक फिल्म की शृंखला है. व्यस्त होने के बावजूद फिल्म हमेशा स्क्रिप्ट पढ़ कर ही लेते थे. यह सुनिश्चित कर लेते थे कि फिल्म की कहानी उनके कैरेक्टर के इर्द गिर्द घूमती हो.’
‘स्क्रिप्ट पढ़ कर साइन करने के बावजूद उनकी कई फिल्मे फ्लाप हुई?’
‘यह सही है उनकी कई फिल्मे सिर्फ फ्लाप नही सुपर फ्लाप हुई. कई फिल्मो में तो निर्माता का बेडा ही गर्क हो गया. कारदार साहब की ‘दिल दिया दर्द लिया’ बाक्स आफिस पर जबरदस्त फ्लाप हुई. वही दा रहमान के साथ उन्होने पाच फिल्मो की थी, उसमे ‘राम और श्याम’ को छोड कर बाकी चार फ्लाप हुई. यहां तक कि ‘लीडर’ भी नही चली.
मेरे जेहन में सवाल रहता था दूसरे अभिनेताओं की दो तीन फिल्म फ्लाप होते ही वे मार्केट से बाहर हो जाते थे तो आखिर दिलीपकुमार कैसे टिके रहे. दिमाग लगाया तो मेरी समझ में आया कि दिलीप कुमार की फ्लाप फिल्म देख कर हाल से बाहर निकलते थे, उनकी ज़बान पर एक ही बात होती थी फिल्म तो बहुत बेकार थी लेकिन दिलीप साहब का काम बढ़िया था . यही कारण है फिल्मे फ्लाप हुई लेकिन बतौर हीरो दिलीप कुमार फ्लाप नहीं हुए.’
'स्क्रिप्ट पढ कर फिल्म साइन करने के वावजूद फ्लाप फिल्मे …..?’
‘किसी फिल्म के हिट या फ्लाप होने मे केवल हीरो या कहानी का ही हाथ नही होता, कहानी का ट्रीटमेंट , गीत -संगीत और निदेशन आदि भी काफी महत्वपूर्ण होते है. ‘प्यासा’ को यह सोच कर दिलीप कुमार ने छोड दिया था कि यह ‘देवदास’ जैसी कहानी है. लेकिन साहिर लुधियानवी के गीत, एस डी बर्मन का संगीत, गुरुदत्त का सधा निर्देशन इस फिल्म को एक अलग ऊचाई पर ले गए. ‘आदमी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, और ‘बैराग’ फ्लाप हुई, ‘बैराग’ के बाद पांच छ: साल दिलीप कुमार ऐसे ही खाली बैठे रहे, उस बीच मे भी फिल्मो के प्रस्ताव आते रहे और वे स्क्रिप्ट सुनते रहे.
ऐसा समय हर आर्टिस्ट के जीवन मे आता है. दिलीप कुमार की खूबी यह रही कि ऐसे वक्त मे हडबडी में ऐसी वैसी फिल्म साइन नही की. ‘राम और श्याम’ के हिट होते ही उनके केरियर को आक्सीजन मिल गया. फिर 1970 के बाद 1979 मे कहीं जा के मनोज कुमार की ‘क्रांति’ मिली, इसके लिए भी उन्होने आसानी से हा नही की थी. जब उन्होने देख लिया की उनको आफर किया गया टोल कहानी के हिसाब से महत्वपूर्ण है तभी तैयार हुए. बस इसी फिल्म से कैरेक्टर आर्टिस्ट के रोल स्वीकार करने की शुरुआत हुई, आगे ‘विधाता ‘ और ‘कर्मा ‘ में भी ऐसे ही रोल थे‘.
'आप जिस समय अपने आप को बतौर हीरो स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे उस समय आपको दिलीप कुमार की ऐक्टिंग में वो क्या कुछ नज़र आता था जिसे आप कापी कर सके?’
‘मै FTII मे जब पढ रहा था तो हमें मेथड ऐक्टिंग सिखाई जाती थी. लेकिन दिलीप कुमार ने मेथड ऐक्टिंग की शुरुआत काफी पहले कर दी थी. हा, यह बात जरूर है कि वे चरित्र में घुस जाते थे लेकिन बीच बीच में दिलीप कुमार भी दिख जाते थे . ‘देवदास ‘ में दिलीप कुमार ने पूरी तरह से मेथड ऐक्टिंग की और अपने आप को देवदास के चरित्र में आत्मसात लिया था.
हम जब पुणे से पढ कर फिल्म इंडस्ट्री में आये थे हमारे सामने एक रोड मैप था कि हमे दिलीप कुमार नही बनना है, जो चरित्र निभाने को दिया जाएगा उसी में दिखेंगे कोई अपनी विशिष्ट इमेज नहीं बनानी है. आप मेरे ‘जूली’ के रोल को याद कीजिए वह नौजवान रेलवे अधिकारी का बेटा था, अच्छा बेटा था बुरा नही था. जब मैने अपने निदेशक से पूछा था - मेरा फिल्म मे रोल कैसा है उसने कहा - ए गुड बाय, मैने वापस पूछा - ए गुड बाय या ए वेरी गुड बाय. वे मुझे सही सही नहीं बता पाए, मैने वापस स्क्रिप्ट कई बार पढा तो मुझे पता चला यह भूमिका गुड बाय की है, मैने उसी हिसाब से ऐक्टिंग की, बाकी फिर एक इतिहास बन गया.’
‘जब आप के जेहन में दिलीप कुमार की तस्वीर उभरती है, आप उन्हे का रूप में याद करते है ?’
‘मै तो यही कहूंगा कि दिलीप कुमार अभिनेता के रूप में बहुत ही सेल्फिश थे, इसका मोटा मोटा अर्थ यह है वे अपनी छवि को लेकर बहुत गम्भीर थे और छवि प्रबंधन पर काफी मेहनत करते थे. लोगो से बडे प्यार से मिलते थे, ताकि उन्हे यह न लगे कि वे मगरूर किस्म के आदमी है.यदि किसी फिल्म के आफर को इनकार भी करना होता था तो बडी विनम्रतापूर्वक करते थे. निजी जीवन में काफी संजीदा इंसान थे. उन्होने अपने आप को एक अच्छे वक्ता के रूप भी स्थापित किया. इसमे उनके स्व-शिक्षण ने बड़ी मदद की, उर्दू हिंदी के साथ ही साथ अंग्रेजी पर भी सामान अधिकार था. उनको लेकर लोगों में धारणा बन गई थी कि वे अच्छे अभिनेता के साथ साथ अच्छे वक्ता भी हैं, वे अपने आप में एक फैंटैस्टिक पैकेज थे. एक बार वे हृदय रोग विशेषज्ञो के सम्मेलन में पहुंचे तो वहा जब उन्होने सम्बोधित करना प्रारम्भ किया तो श्रोताओ को लगा यह महज अभिनेता नही है दिल के बारे में खासी जानकारी रखते हैं. इसके ठीक उलट उनके समवर्ती अभिनेता मंच पर पहुंच कर इतना ही कह पाते थे कि मुझे बुलाया गया उनके लिए आभारी हूं दोबारा बुलाएंगे फिर आ जाऊंगा, दिलीपकुमार की तरह वे धारा प्रभाव से नही बोल पाते थे.
बीते दिन के पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान ने अपनी मां के नाम से पाकिस्तान में एक कैंसर हास्पिटल बनाने के लिए लंदन में एक चैरिटी कार्यक्रम रखा था. उसने दिलीप कुमार को इतना ही संदेशा भिजवाया कि मेरे पास इस हास्पिटल को बनाने के लिए पैसा नही है, अगर आप इस कार्यक्रम में लंदन आ जाएंगे बहुत मदद हो जाएगी. इमरान ने केवल उन्हे टिकट भेजा और रहने की व्यवस्था की. दिलीप कुमार वहां गए, इमोशनल स्पीच दी, देखते देखते कैंसर हास्पिटल के वहां पर्याप्त कलेक्शन हो गया.’
‘हमारी फिल्म इंडस्ट्री के लोग उन्हे किस निगाह से देखा करते थे?’
'आज की नई पीढी के अभिनेत्री दिलीप कुमार से बहुत कुछ सीख सकते हैं.वे जब भी किसी से बात करते थे अदब से पेश आते थे, प्यार से बात करते थे. किसी नए कलाकार का परिचय करते समय कहते थे ये हमारे जूनियर कलीग हैं. इस सोच के पीछे उनका यह मानना था कि उन्हे इन लोगो के ही बीच रहना है और उनके साथ ही काम करना है.‘
‘क्या उनके काम करने की शैली उस दौर के सितारो से अलग थी?’
‘निस्संदेह. जब मै पुणे इनस्टिट्यूट से पढ़ कर बम्बई आया था स्टूडियो से स्टूडियो जा कर उस दौर के सितारों को शूटिंग करते हुए देखता था, मैने पाया सामन्यत: कैमरामैन से लेकर लाइटमैन, मेकअपमैन और अन्य कर्मी अंतर्मुखी थे दूसरो से सहज नही रहते थे, इसलिए दिलीप कुमार हमेशा ऐसी टीम के साथ काम करना चाहते थे जिसमे सब लोग एक दूसरे से सहज हो और उनके लिए कम्फर्ट जोन का काम कर सके.’
‘आप यह कहना चाहते है कि शायद यही कारण था कि वे हर फ़िल्म के लिए तैयार नहीं होते थे?’
'आप देखिए उन्होंने गुरुदत्त के साथ कोई फिल्म नही की. दूसरी ओर महबूब खान के साथ ‘आन’, ‘अमर’ जैसी कितनी ही फिल्मे की. विमल दा के साथ भी उन्हे काम करना सुविधाजनक लगता था.’
‘कोई ऐसा वाकया, जिससे आपको उनका मानवीय पक्ष नजर आया हो.’
‘किस्से बहुत सारे हैं. मै यहां एक क़िस्सा बताना चाहूंगा. बम्बई में 92-93 में साम्प्रदायिक दंगे चल रहे थे. अजीब सा माहौल था शहर में, देर गए रात एक फ़ोन आया, मै उठाता हूं, उधर से आवाज आती है - हेलो मोईन, मेरा यह नाम बहुत कम लोग जानते हैं, जिनमें मेरे FTII के साथी और ससुराल वाले ही शामिल हैं. मै समझ नहीं पाया इतनी रात कौन बोल रहा है. मैने पूछा - आप कौन बोल रहे है. उधर से आवाज आई - मै यूसुफ हूं. मैने पूछा - कौन यूसुफ, अब बारी मेरे हैरान होने की थी, उधर से आवाज आई - अरे भाई मै दिलीप कुमार बोल रहा हूं.
मैने कहा - सर आप ? आवाज आई - हां भाई, बताओ ठीक हो बेगम कैसी है, कोई मदद चाहिए? मैने जवाब दिया - थैंक यू सर , आपने काल किया. सब ठीक है. सारी मैं आपकी आवाज नही पहचान सका. कहने लगे - अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. मैने अपने अजीजों की लिस्ट बनाई थी उसमें आपका नाम भी था, मैने सोचा आपकी खैरियत ले लू, फिर अपना नम्बर नोट कराया, हालांकि इंडस्ट्री मे सब लोगो के पास एक दूसरे के नम्बर रहते है, मेरे पास उनका नम्बर था. पर इस आत्मीयता के साथ दूसरे का हाल चाल लेना उनके मानवीय पक्ष को दिखलाता है.’
‘यह बताइए दिलीप कुमार अपनी फिल्मी पारी खेलने के बाद भी काफी लम्बे समय तक रहे वो अपना यह समय कैसे बिताते रहे?’
'दिलीप साहब ने अपने केरियर की आखिरी फिल्म एफ सी मेहरा की ‘किला’ 1998 में की थी. लेकिन उसके बाद भी वे सामाजिक कार्यो मे सक्रिय रहते थे. नेशनल एसोसिएशन आफ ब्लाइंड्ज से लम्बे समय तक अध्यक्ष के रूप में बडे सक्रिय तरीके से जुडे रहे. ऑटर क्लब के भी अध्यक्ष रहे .
मुझे याद है कि जब मेरी फिल्म जूली हिट हुई थी तो बी आर चोपडा ने मुझे कहा था जब तुम शिखर की तरफ चढते हो उस वक्त लोगो को सम्भाल लेना, जब तुम वहा से उतरना शुरू करोगे तो लोग तुम्हे सम्भाल लेंगे. वही कुछ ऐक्टर ऐसे होते है ऊपर चढते हुए लोगों को जख्मी करते हुए जाते हैं, ऐसे लोग साप सीढी के खेल जैसे सीधे नीचे आ जाते हैं. दिलीपसाहब ने ऊपर जाते समय लोगों को बहुत सम्भाला था वे लोग उन्हें आखिर तक सम्भालते रहे‘.
लेखक फिल्म और संगीत समीक्षक हैं
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