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डिप्रेशन के साथ जीना:’मैंने जाना कि वास्तव में इसका कोई इलाज नहीं’

पत्रकार और फिल्म मेकर Minnie Vaid कर रही हैं मेंटल हेल्थ पर अपने अनुभव शेयर

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"आप दवा लेने के बजाय योग या ध्यान की कोशिश क्यों नहीं करती?"

साल 2021 में भी जब आपका केमिस्ट आपको बहुत हानिकारक दवाओं के साथ यह अनचाहा सलाह देता है, तो आप समझ जाते हैं कि तीन दशकों में मानसिक स्वास्थ्य की दुनिया में सचमुच कुछ भी नहीं बदला है.

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साल 1986

एक के बाद एक मेरे जीवन में घट रही दर्दनाक घटनाओं ने मुझे कमजोर करके डिप्रेशन में धकेल दिया. इस वजह से मुझे मनोचिकित्सक के पास जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. मुझे इस बीमारी, इसके इलाज के बारे में या ऐसे वक्त में मदद के लिए किसके पास जाना है, इसकी जानकारी नहीं थी. इंटरनेट युग आने से पहले, मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता अखबारों-पत्रिकाओं के लेखों में पढ़ी गई बातों तक सीमित थी. समाचार पत्रों ने ऐसे विषयों को तब तक कोई महत्व नहीं दिया जब तक कि वह सनसनीखेज न हो, उदाहरण के लिए एक परेशान एक्ट्रेस के पैरानोया को पारंपरिक मीडिया में असंवेदनशीलता के साथ परोसा जाता था.

किसी ने एक नाम सुझाया और आप उस पर भरोसा कर लेते थे. निश्चित रूप से उस वक्त खोजबीन करके कदम उठाने का विकल्प नहीं था.

हालांकि मुझे याद है कि जब मैं पहली मंजिल पर उस क्लिनिक में जा रही थी तो किसी ने मुझे चेतावनी नहीं दी थी. आगे मैं कई सालों तक वहां गयी. लेकिन अगर किसी ने उस पहले दिन ही चेतावनी दे दी होती तो मैं वहां जाती ही नहीं.

मैंने बहुत बाद में मुश्किल रास्ते यह सीखा कि वास्तव में डिप्रेशन का कोई इलाज नहीं है.हम इसके साथ जीते हैं, उससे दोस्ती करते हैं और उसके उतार-चढ़ाव के साथ आगे बढ़ते रहने की पूरी कोशिश करते हैं.

लेकिन 1986 में मैं नौजवान थी और इसको लेकर आश्वस्त थी कि मैं अगले सप्ताह, या उसके अगले सप्ताह, या समस्या X के समाप्त होने के बाद,या ईवेंट Y पूरा होने के ठीक बाद तक डिप्रेशन को दूर कर लूंगी. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. आपके यह जाने बिना कि डिप्रेशन आपके मन में कितनी अंदर तक समाया हुआ है, वह जड़ जमा लेता है. मैं लगन से उस क्लिनिक की सीढ़ियों पर ऊपर और नीचे चढ़-उतर रही थी और अक्सर सोच रही थी,चाह रही थी कि यह आखिरी बार हो.

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दवा, और कुछ नहीं

दवा उस समय इलाज का सामान्य और सबसे तेज रास्ता था. दवा के साथ आता था SSRIs (सेलेक्टिव सेरोटोनिन रीपटेक इनहिबिटर्स) जिसके कारण अक्सर आपका वजन बढ़ जाता था (कभी-कभी आपको बुरा लगता ); साइड इफेक्ट जो तब कम पता थे लेकिन आज कहीं अधिक गंभीर माने जाते हैं. चूंकि एक मनोचिकित्सक का प्रेस्क्रिप्शन ही दवा लेने का एकमात्र तरीका था, इसलिए आपको उससे मिलना होता था. कभी-कभी आप ड्रग-रेसिस्टेन्स डिप्रेशन के लिए ECT की बात सुनते थे और आपको राहत महसूस होती थी कि आपको उसकी जरूरत नहीं है, खासकर तब जब आपने फिल्मों में ECT से जुड़े भयानक सीन देखे हों.

थेरेपिस्ट और काउंसलिंग तब साइकोऐनलिसिस (Psychoanalysis) जैसे अधिक पारंपरिक रूपों तक सीमित थे, उस समय CBT या rTMS जैसे विकल्प नहीं थे,जिनसे कोई कलंक नहीं जुड़ा.अगर थे भी तो बहुत कम.

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तीन दशक पहले किसी को भी यह पता नहीं चलता था कि क्या आप किसी मनोचिकित्सक से कंसल्ट कर रहे हैं- न आपके मित्र , न आपके परिवार को ही (एकदम करीबी सदस्य को छोड़कर) और निश्चित रूप से आपको नौकरी देने वालों को भी नहीं. डॉक्टरों के पास आने जाने के अलग-अलग दरवाजे थे ताकि मरीजों के बारे में किसी को ‘पता’ लगे बगैर ही इलाज किया जा सके !

यदि केवल एक रास्ता था, तो आप प्रवेश द्वार की ओर अपनी पीठ करके खड़े होते थे, खिड़की से बाहर देख रहे होते थे जैसे कि आप केवल एक राहगीर थे और आप किसी भी तरह से नजर मिलाने से बचते थे.

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आपके पास सहायता समूहों तक कोई पहुंच नहीं थी क्योंकि कौन तब यह स्वीकार करने को तैयार होता कि वह डिप्रेस्ड है या उसे मदद की आवश्यकता है ? कभी-कभी आपको अपनी दवा और डॉक्टर के अधिकार की रक्षा भी करनी पड़ती थी-“इस डॉक्टर ने इन भयानक दवाओं से आपका जीवन बर्बाद कर दिया है. आप एक्सरसाइज क्लास में शामिल क्यों नहीं होती,आप बहुत बेहतर महसूस करेंगी?"

आपने बस इसे झेला,अपनी दवाइयां ली और ऐसा व्यवहार करने लगे जैसे सब ठीक था.आपने मुखौटे ओढ़ लिया, आपने उन दिनों कड़ी मेहनत की जब आप बिस्तर से नहीं उठ सकते थे, आप अपने डिप्रेशन के बावजूद एक पेशेवर के रूप में अपने सभी लक्ष्यों में सफल हुए.आपने कभी भी अपने खराब स्वास्थ्य की तरफ ध्यान नहीं दिया या 'मानसिक स्वास्थ्य' के लिए छुट्टी नहीं ली. उस समय दुनिया ऐसी थी- डिप्रेस्ड लोगों के मामले में उससे जुड़े कलंक, रिसोर्स और लोगों की प्रतिक्रिया बेरहम थी.

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क्या बदला है, क्या बदलने की जरूरत है

पेशेंट के नजरिये से देखें तो पिछले 30-35 सालों में मेंटल हेल्थ के क्षेत्र में क्या बदला है (या बदलने की जरूरत है)?

पहले से अधिक विकल्प- हालांकि पारंपरिक उपचार में SSRI अभी भी कई लोगों के लिए डिफॉल्ट विकल्प हैं. अब आपके पास SNRI (सेरोटोनिन और नॉरपेनेफ्रिन रीपटेक इनहिबिटर) और अन्य दवाइयों तक पहुंच है जिनके साइड इफेक्ट प्रोफाइल की बेहतर समझ है. आपके पास थेरेपिस्ट और काउंसलर हैं, हालांकि उनकी संख्या अब भी भारत में जरुरत से बहुत कम है.

सबसे महत्वपूर्ण आज मानसिक स्वास्थ्य, चिकित्सक और मनोवैज्ञानिकों के बारे में अधिक बातचीत हो रही है. कई ऐसे प्लेटफॉर्म मौजूद हैं जहां लोग बिना शर्म के अपनी कहानियां साझा कर सकते हैं.

आज की पीढ़ी, कम से कम एक निश्चित (पैसे वाले) वर्ग / वर्ग के लोग, अब ‘मेरे थेरेपिस्ट ने आज मुझे क्या बताया’ के बारे में बेपरवाह बात करते हैं और सोशल मीडिया पर सलाह पोस्ट करते हैं.
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इसका नकारात्मक पहलू है -मेंटल हेल्थ के क्षेत्र में शामिल '2-सप्ताह के कोर्स' वाले काउंसलर्स की अधिकता, जो अक्सर प्रासंगिक या पर्याप्त प्रशिक्षण के बिना ही सलाह देते हैं जबकि खुद प्रोफेशनल्स के द्वारा दिए गए सलाह पर ध्यान नहीं देते .उनका पहला लक्ष्य सोशल मीडिया पर 'लाइक' और फॉलोअर्स बढ़ाना होता है. उनके लिए अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के बारे में कोई जागरूकता फैलाना तो दूसरा काम है .

आम जनता (इसमें परिवार, दोस्त और काम करने वाले सहयोगी शामिल हैं) के बीच बड़े पैमाने पर जागरूकता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि इस देश में मानसिक स्वास्थ्य रोगियों और प्रशिक्षित कर्मियों के अंतर को कम करने की है. डेटा के मुताबिक प्रति 100,000 भारतीयों पर 0.2 मनोचिकित्सक हैं,चाहे यह सुनने में कितना भी अजीब क्यों न हो,सच यही है.
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इन दो प्रमुख मापदंडों पर संतोषजनक ट्रैक रिकॉर्ड का ना होना और तीन दशकों में साइकी दवाइयों में कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं मिलने ने इस विश्वास को बढ़ाया है कि 'Plus ca change plus c’est la meme chose'. मतलब जितनी अधिक चीजें बदलती हैं, उतनी ही वे पहले की तरह बनी रहती हैं.

आखिरकार,1986 में भी केमिस्ट ने अफसोस जताया था कि "आप इन दवाओं पर निर्भर हो जायेंगी और अंत में उन्हें हमेशा के लिए लेना होगा!"

पिछले तीन दशकों में उन दवाओं के साइड इफेक्ट्स के बारे में अधिक जानने के बाद लगता है शायद वह अपने सलाह में दयालु और केयरिंग था.आज होते बदलावों में मेरा योगदान है -अपने दृष्टिकोण और स्वीकृति में परिवर्तन .

(मिनी वैद एक पत्रकार, डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर,टेलीविजन पेशेवर और लेखिका हैं.वो अपनी फिल्मों और किताबों के माध्यम से अन्याय के खिलाफ लड़ती हैं, ग्रामीण भारत में ग्रामीणों के साथ शूटिंग करते समय सबसे खुश होती हैं और शाहरुख खान से प्यार करती हैं-शायद ठीक इसी क्रम में!)

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