7 फरवरी 2023 को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर मनसुख मंडाविया ने राज्यसभा में बताया कि केंद्र सरकार ने डॉक्टरों और स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यरत कर्मियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए अलग से कोई कानून बनाने का फैसला नहीं किया है.
डेढ़ साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया. कहा कि ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए कानून पहले से ही मौजूद हैं.
हालांकि एक समूह के रूप में, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों के लिए खतरे की संभावना शायद अधिक है. इसलिए वे केवल हिंसा के खिलाफ कानून और अपने कार्यस्थल पर सुरक्षा की मांग कर रहे हैं.
आरजी कर मेडिकल कॉलेज कोलकाता में तीन महीने पहले हुई भयावह और घृणित घटना इस तरह के कानून को लागू करने की सख्त जरूरत पर बल देती हैं, क्योंकि मौजूदा कानून दोषियों को सजा दिलाने में या तो अपर्याप्त हैं या अप्रभावी.
एक विशेष कानून की आवश्यकता केवल इसलिए नहीं है कि हेल्थ सेक्टर अपने आप में असमान्य है, बल्कि इसलिए भी कि चिकित्सक, अनुच्छेद 21 के अंतर्गत रोगी के मौलिक अधिकारों की, यानि जीवन की स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखने के लिए काम करते हैं. इसके अलावा, डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा कई अन्य रोगियों के जीवन को खतरे में डालती है.. क्योंकि वह घायल अवस्था में उनकी देखभाल करने के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं.
एक अनुमान के अनुसार, अगर किसी एक डॉक्टर पर ऐसी घटना होती है तो लगभग एक सौ डॉक्टर, जटिल और इमरजेंसी रोगियों को लेना बंद कर देंगे. इसलिए जिन मरीजों को इस प्रकार की गहन चिकित्सा की सबसे अधिक आवश्यकता है वह इससे वंचित रह जाएंगे. इन मरीजों के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या होगी?
वहीं दूसरी तरफ भारत में डॉक्टर 90 से अधिक विभिन्न कानूनों, अधिनियमों और लागू नियमों के तहत एक या दूसरे तरीके से जवाबदेह हैं. उन पर 12 अलग-अलग अदालतों/आयोगों यानि उपभोक्ता न्यायालयों, आपराधिक न्यायालयों, सिविल अदालतों, मानवाधिकार आयोगों, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोगों, राज्य चिकित्सा आयोगों में एक साथ मुकदमा चलाया जा सकता है. ऐसा किसी भी अन्य पेशेवर के साथ नहीं होता है.
भारत के गृह मंत्री द्वारा संसद में डॉक्टरों को इस कानून से मुक्त रखने का वचन दिया गया था, हाल ही में डॉक्टरों को भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) 2023 के दायरे में लाया गया. माननीय गृह मंत्री ने सदन में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) द्वारा किए गए अनुरोध के जवाब में डॉक्टरों को आपराधिक दायित्व से मुक्त रखने के लिए एक संशोधन लाने का वादा किया था, लेकिन अब तक ऐसा कोई भी संशोधन नहीं लाया गया. बीएनएस की धारा 106 (1) में कहा गया है कि
'जो कोई भी उतावलेपन या उपेक्षा पूर्ण तरीके से किसी की मृत्यु कारित करता है तो उसे 5 साल की अवधि तक कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माना भी लगाया जा सकता है. और अगर ऐसा कार्य चिकित्सा प्रक्रिया करते समय किसी रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी (RMP) द्वारा किया जाता है, तो उसे दो वर्ष तक की कारावास और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा.'
पहली बार चिकित्सीय लापरवाही को धारा के तहत लाने के लिए निर्दिष्ट किया गया है. इससे पहले आईपीसी की धारा 304 ए के तहत एक अवधि के लिए कारावास का प्रावधान था जो दो साल तक बढ़ सकती थी, या फिर जुर्माने का प्रावधान था या फिर दोनों. हालांकि मौजूदा कानून के तहत कारावास और जुर्माना दोनों को अनिवार्य कर दिया गया है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि अस्पष्ट भाषा के कारण बीएनएस की धारा 117 और धारा 124 का पुलिस द्वारा दुरुपयोग किया जा सकता है. कोई भी कार्य जो किसी व्यक्ति की स्थायी क्षति या विकृति (vegetative state) का कारण बनता है, तो उसे 10 साल के कठोर कारावास से दंडित किया जा सकता है, लेकिन आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है. चिकित्सा के दौरान, स्थायी विकृत अवस्था (vegetative state) तब हो सकती है जब एक रोगी जिसे कार्डियक अरेस्ट हो गया हो और CPR के द्वारा उसे पुनर्जीवित कर दिया जाए. अधिकांश गहन देखभाल इकाइयों (ICU) में यह एक असामान्य घटना नहीं है.
दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि कार्डियक अरेस्ट के बाद ऐसे मरीज को पुनर्जीवित नहीं करना न केवल चिकित्सा नैतिकता और हिप्पोक्रेटिक शपथ के सिद्धांतों के खिलाफ है, बल्कि परमानंद कटारा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून के खिलाफ भी है. परंतु डॉक्टर अपने सिर पर लटकती हुई कानून की तलवार (बीएनएस धारा 117 और 124) के बारे में हमेशा आशंकित रहेगा, क्योंकि अगर मरीज की मृत्यु हो जाती है और उसे बीएनएस की धारा 106 के तहत लापरवाह ठहराया जाता है, जिसमें 2 साल की कारावास की सजा है.
दूसरी ओर, यदि व्यक्ति ठीक हो जाता है, लेकिन vegetative है, तो उसमें 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है. किसी भी डॉक्टर के लिए पहले से यह जानना असंभव है कि वह अपने प्रयत्नों में रोगी को पुनर्जीवित करने में सफल होगा या नहीं और क्या रोगी पुनर्जीवित होने के बाद स्थाई रूप से वेजिटेटिव रहेगा या ठीक अवस्था में रहेगा.
इसके अतिरिक्त, यह धाराएं बीएनएस के अध्याय III में विभिन्न धाराओं का सीधा उल्लंघन है जो सद्भावपूर्ण सिद्धांत (doctrine of good faith) के अंतर्गत एक आरएमपी को आपराधिक दायित्व से छूट प्रदान करते हैं. ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता कि एक डॉक्टर अपने मरीज का इलाज करने में जानबूझकर और घोर लापरवाही करेगा जिससे उसकी मृत्यु या स्थायी विकलांगता हो जाएगी. क्योंकि न केवल यह उसका पेशा है, बल्कि उसकी आजीविका भी उसी पर निर्भर करती है. कोई भी डॉक्टर अपनी प्रतिष्ठा, जिसको बनाने में जीवन भर का समय लगता है, उस से खिलवाड़ नहीं करना चाहेगा.
इन सबसे ऊपर, मेन्स रिया (एक गैरकानूनी कार्य करने का आपराधिक इरादा) का मूल सिद्धांत, जिस पर आपराधिक कानून की इमारत टिकी हुई है, एक चिकित्सक के ऊपर लागू ही नहीं किया जा सकता क्योंकि वह कभी भी अपने मरीज का उपचार इस दुर्भावना से नहीं करेगा.
आरजी कर मेडिकल एक और कानून जो डॉक्टरों के गले में पड़ी बेड़ी की तरह है, वह है उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 (Consumer Protection Act 2019). डॉक्टर को इस कानून से बाहर रखने की मंशा के बावजूद, डॉक्टरों को इस पुन: अधिनियमित कानून के दायरे में लाया गया. माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में बारऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी के गांधी पीएस राष्ट्रीय संचारी रोग संस्थान बनाम union of India में यह ठहराया कि, अधिनियम का उद्देश्य पेशेवरों को कवर करना नहीं था, और उन्हें व्यापारियों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता है, जहां मुख्य रूप से एक वाणिज्यिक पहलू शामिल है. अदालत ने कहा कि व्यापार या व्यवसाय के दायरे में पेशेवरों को शामिल करने का अर्थ दायरे को बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं होगा.
नैदानिक प्रतिष्ठान अधिनियम Clinical establishment Act (सीईए) जो 2010 में पारित किया गया था, के नियम 9 के माध्यम से अनुच्छेद 19 (पेशे का अभ्यास करने या व्यवसाय, व्यापार या व्यवसाय करने की स्वतंत्रता) के तहत डॉक्टरों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, जिसमें सरकार निजी क्षेत्र में भी डॉक्टरों और नैदानिक प्रतिष्ठानों द्वारा प्रक्रियाओं और परामर्श के लिए शुल्क तय कर सकती है.
कठोर पीसीपीएनडीटी अधिनियम को 'शूटिंग द मैसेंजर' के क्लासिक मामले के रूप में देखा जाने लगा है. दुर्भाग्य से, यदि कोई ऐसा मामला है जो लिंग चयन के लिए प्रकाश में आता है, तो अकेले डॉक्टर को दोषी माना जाता है हालांकि वास्तविक दोषी रोगी या उसका परिवार है जो पैदा होने वाले बच्चे के लिंग का चयन करने का तरीका तलाशता है. बड़ी दुखद बात है कि इस दुष्कर्म के लिए अकेले डॉक्टर को दंडित किया जाता है, हालांकि रोगी स्वयं या उसका परिवार अपराध में समान भागीदार है और पीसीपीएनडीटी अधिनियम में प्रावधान 23 (3) के तहत दंडित होने के लिए उत्तरदायी है.
वास्तव में, न्यायालयों में दायर मामलों की संख्या, जहां लिंग निर्धारण वास्तव में किया गया है, बहुत कम है. डाक्टर अथवा अल्ट्रासाउंड केन्द्र के विरुद्ध अधिकांश मामले अथवा शिकायतें फार्म भरने और अभिलेखों के रख-रखाव में कुछ कमियों के कारण दायर की जाती हैं. लेकिन सजा उतनी ही कड़ी है.
ऐसा नहीं है कि डॉक्टरों को जवाबदेह नहीं होना चाहिए. उन्हें निश्चित रूप से जवाबदेह होना चाहिए. उच्चतम न्यायालय ने जैकब मैथ्यू मामले में सुझाव दिया है कि न्यायाधीश साधारण लोग हैं और चिकित्सा एक उच्च तकनीकी विषय होने के कारण, उनके मामलों को विशेषज्ञों द्वारा संभाला जाना चाहिए. न्यायालय की इस टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए, चिकित्सा लापरवाही के मामलों की सुनवाई के लिए एक विशेष चिकित्सा न्यायाधिकरण (medical tribunal) का गठन किया जा सकता है. इसमें अध्यक्ष के रूप में एक न्यायाधीश हो सकता है और सदस्य चिकित्सा पेशे से हो सकते हैं.
अगर ऐसे ही हालात रहे तो, चिकित्सा पेशेवरों को सेवा करने के लिए इस देश में रहना मुश्किल हो जाएगा.
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