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श्रीकांत जिचकर, देश के सबसे काबिल शख्स की अद्भुत, अकल्पनीय कहानी

एक ऐसे व्यक्ति जो आईएस भी थे और आईपीएस भी , डॉक्टर और वकील भी

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14 सितंबर को हिन्दी दिवस पर याद करते हैं एक शख्स को जिसे दुनिया याद करती है लेकिन हमने उसे भुला दिया . एक ऐसा व्यक्तित्व जो आईएस भी था और आईपीएस भी , डॉक्टर भी था और वकील भी . एलएलबी भी था और एलएलएम भी, एमबीए था और फाइनेंशियल मैनेजर भी , इतिहास से लेकर अंग्रेजी तक कई विषयों में एमए, फर्राटेदार अंग्रेजी भी बोलते था और संस्कृत में डिलीट भी था. विज्ञान का झंडाबरदार भी था, साहित्य का हस्ताक्षर भी . एमएलए था और एमपी भी. 14 विभागों के मंत्री और कुलपति भी.

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डॉ श्रीकांत जिचकर (Dr Srikant Jichkar) का 14 सितंबर को जन्मदिन है. आइए ! आपको रु-ब-रु कराते हैं डॉ जिचकर की अद्भुत, अकल्पनीय कहानी से. हिंदी दिवस पर अंग्रेजी का चरणामृत पान करने वाले हाकिमों को शायद इनकी कहानी कुछ इशारा कर जाए.

आज ही के दिन वर्ष 1954 को श्रीकांत का जन्म नागपुर के आजनगांव में एक किसान परिवार में हुआ था. 42 विश्वविद्यालयों से उन्हें तकरीबन 20 डिग्रियां मिलीं. कुछ अन्य परीक्षाएं भी उन्होंने उत्तीर्ण की लेकिन यूनिवर्सिटी को इतनी उपाधियां देने में परेशानी होने लगी. सभी डिग्री फर्स्ट क्लास के साथ उन्होंने पास किया. सबसे पहले उन्होंने एमबीबीएस की डिग्री ली ,फिर एमएस किए. उन्हें डॉक्टरी पसन्द नहीं आई तो कानून पढ़कर एलएलबी की डिग्री ली. अंतरराष्ट्रीय वकालत करनी थी. सो एलएलएम कर लिए. कुछ समय बाद उन्हें अहसास हुआ कि बिजनेस एडमिन पर काम करना चाहिए सो उन्होंने एमबीए किया

वे आईपीएस बनकर पुलिस सेवा में आए. पसन्द नहीं आई तो आईएएस बन गए. एकबार उन्हें लगा सच उज़ागर कर देश की सेवा करें सो उन्होंने पत्रकारिता की डिग्री ली. गणित से लेकर विज्ञान , इतिहास से लेकर अंग्रेजी, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा-साहित्य, अर्थशास्त्र... अनेक विषयों में उन्होंने मास्टर की डिग्री हासिल कर ली. शिक्षा से लेकर प्रशासन , खेल से लेकर राजनीति , पत्रकारिता से लेकर फोटोग्राफी सर्वत्र उन्होंने काम किया. वे एक अच्छे चित्रकार और कार्टूनिस्ट भी बने.

इतना कुछ करने के बाद भी उन्हें खाली लगने लगा तो उन्होंने तय किया कि राजनीति के क्षेत्र में आकर जनसेवा करेंगे. वे विधायक बने. भारत में सबसे कम उम्र का विधायक बनने का ख़िताब उनके नाम पर है. उन्हें एकसाथ 14 मंत्रालयों का काम मिला हुआ था. बाद में वे राज्यसभा में भी गए. हालांकि राजनीति से ऊबने के बाद उन्होंने स्पष्ट किया कि मेधा आधारित व्यवस्था नहीं होने पर देश इसी तरह घिसी पिटी लकीर पर चलता रहेगा. बहुत अधिक विकसित नहीं बन सकता है. मुद्दे भी विकास के नहीं बल्कि बहुत हल्के होंगे. छोटी, ओछी और संकीर्ण बातों के समीकरण और आधार पर तय होने लगेंगे बड़े फ़ैसले.

वर्ष '1999 में इस महान शख़्स को फेफड़े का कैंसर हो गया. अस्पताल में वे अंतिम दिन गिन रहे थे. डॉक्टरों ने बताया कि अब उनकी आयु एक माह भी नहीं है. उसी समय एक अनजान व्यक्ति जिचकर के बेड के पास पहुंचते हैं. वे कहते हैं. तुम्हारा कुछ नहीं होगा. तुम्हें अभी आगे बहुत कुछ करना है. वे जाते-जाते संस्कृत की कुछ किताबें दे जाते हैं. यहां से जिचकर की ज़िंदगी नया मोड़ लेती है. वे शास्त्रों का अध्ययन करते हैं. कैंसर से उन्हें राहत मिल जाती है. वे संस्कृत पढ़ते हैं. डिलीट की उपाधि हासिल करते हैं. संस्कृत विश्वविद्यालय संदीपनी की स्थापना करते हैं. वे वहां के कुलपति भी बनते हैं.

वर्ष 2004 में 2 जून को नागपुर से 60 किलोमीटर दूर एक सड़क हादसे में इस महान विभूति का मात्र 49 वर्ष की आयु में दर्दनाक अंत हो जाता है. देश ने एक चमकता हीरा उसी दिन खो दिया. इतने बड़े काबिल आज तक दुनिया के इतिहास में नहीं दिखे. विवेकानन्द समेत सारे महान लोग इसी तरह कम उम्र में ही हमें अलविदा कह गए हैं. उनका नाम लिम्का बुक्स ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज है. उनकी निजी लाइब्रेरी का मुकाबला भी सम्भव नहीं है, जहां 52 हजार पुस्तकें हैं.

ऐसे महान , प्रतिभाशाली लोगों को दुनिया नमन करती है. ईर्ष्या भी , क्योंकि ये खुद एक इंसाइकोपलीडिया हैं. हमारा दुर्भाग्य कि ऐसे व्यक्तित्वों को भुला देते हैं. कभी याद भी नहीं करते हैं. इन्हें तरजीह मिले तो देश की नई पीढ़ी को शायद एक नई सोच मिले. जिचकर इस पीढ़ी को शायद प्रेरित करें. जिचकर की रौशनी शायद स्याह अंधेरी रातों में हमें नई राह दिखावे, जो उजाले की ओर जाती है.

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