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आर्य नस्ल की सच्चाई: अंबेडकर, पेरियार की राय और भारतीय राजनीति पर असर

क्या आर्य नस्ल की थ्योरी 'ब्राह्मण बनाम दलित' का मुद्दा है? हरगिज नहीं.

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हाल ही में तमिलनाडु (Tamilnadu) के राज्यपाल ने सत्तारूढ़ DMK, या द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, जिसका अर्थ 'द्रविड़ प्रगतिशील संघ' है, द्वारा उनके लिए तैयार किए गए भाषण में 'द्रविड़ मॉडल' के संदर्भ को छोड़ दिया. पिछले महीने 81वीं भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष ने कहा था कि वेदों की रचना करने वाले (ब्राह्मण) भारत के बाहर से आए आर्य थे. इससे आर्य बनाम द्रविड़ का मुद्दा भी ब्राह्मण बनाम दलित का मुद्दा बन जाता है. इसलिए, तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के अभिभाषण में दो दलित आइकन, आम्बेडकर और पेरियार, के संदर्भों को शामिल किया. लेकिन क्या आर्य नस्ल की थ्योरी 'ब्राह्मण बनाम दलित' का मुद्दा है? हरगिज नहीं.

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आर्य थ्योरी और ब्रिटिश कनेक्शन

'आर्यों' के बारे में पहला दावा विलियम जोन्स ने 1786 में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी की दूसरी वर्षगांठ के भाषण के दौरान किया था. ये सोसाइटी जोंस ने ही स्थापित की थी.

जोंस ने कहा कि संस्कृत, फारसी, ग्रीक और लैटिन की समानताएं इन भाषाओं के एक सामान्य मूल के कारण हैं. बाद में भाषाओं के एक सामान्य मूल की बात भाषा बोलने वाले लोगों के एक सामान्य समूह की बात में बदल गयी और यह विश्वास फैला कि यह समूह आर्यों का था.

वैसे ब्रिटिश का मकसद कोई सीधा-सादा नहीं था. उस समय वे भारत को जाति और क्षेत्र के आधार पर (धार्मिक भागों के अलावा) विभाजित करना चाहते थे. उनकी सोच थी कि इस विभाजन से भारत को कमजोर कर उस पर शासन करने में सक्षम हो जाएंगे.

याद रहे कि यह ब्रिटिश शासन की शुरुआत में हुआ जब वे सैन्य रूप से असुरक्षित और तकनीकी रूप से पिछड़े भी थे और सियासी फायदा लेने लिए चर्च की कपोल कल्पनाओं का इस्तेमाल करते हुए भारतीयों पर मानसिक तौर पर हावी होने की नई तरकीबें निकालते रहते थे. उपनिवेशवाद की स्थापना में इस चर्च-राज्य गठजोड़ पर बहुत कम चर्चा हुई है.

वास्तव में तिलक के जन्म से पहले ही एक नस्लवादी 'बौद्धिक' काउंट गोबिन्यू स्पष्ट रूप से आर्यों को श्वेत वर्चस्व से जोड़ चुका था. नस्ल से आर्यों के इस संबंध को अमेरिकी गृहयुद्ध से ठीक पहले 1850 के दशक में अमेरिका में जोर-शोर से प्रचारित किया गया था. इसे अश्वेतों की गुलामी को उचित ठहराने के लिए 'वैज्ञानिक' कारण बताया था.

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आर्य थ्योरी और गुलामों का व्यापार

गोबिन्यू के अमेरिकी संपादक ने कहा कि गुलामी का ये 'वैज्ञानिक' औचित्य 'ईसाई धर्म की शुद्ध भावना से किसी भी तरह से अलग हुए बिना' हासिल किया गया था. उनका इशारा था उस ईसाई वर्चस्ववादी हठधर्मिता की ओर जिसे अश्वेत अफ्रीकियों की गुलामी को शुरू करने और बनाए रखने के लिए इस्तेमाल किया गया.

जैसा कि मार्टिन बर्नाल ने बताया, आर्यों की पहचान काकेशियन के रूप में बाइबिल के उस मिथक के आधार पर की गई थी, कि वे क्रिस्तानी भगवान के चुने हुए लोग थे, क्योंकि नूह की नाव दक्षिणी काकेशस में अरारत पहाड़ में उतरी थी. ये भी याद रहे कि ईसाई / श्वेत श्रेष्ठता की मात्र कल्पना पर गुलामी को उचित ठहराया गया था. लेकिन इस कल्पना का एक ठोस परिणाम यह था कि पश्चिम को उससे बड़े पैमाने पर आर्थिक लाभ हुआ. एक बुरे तर्क और स्रोत के आधार पर गुलामी को 'नैतिक रूप से सही' ठहराते हुए लगभग मुफ्त में पहले गैर क्रिस्तानियों और बाद में अश्वेतों से जबरन मजदूरी करायी गयी.

भारतीय संदर्भ में गोबिन्यू ने 'भारत के श्वेत विजेताओं (जिन से ब्राह्मण जाति का गठन हुआ) ...' ऐसी काल्पनिक बात कर के आर्य नस्ल की कल्पना को जाति के साथ जोड़ दिया. इस नस्लवादी विभाजन को बाद में उत्तरी भारत के आर्यों और दक्षिणी द्रविड़ों के बीच एक क्षेत्रीय (उत्तर-दक्षिण) विभाजन के साथ भी जोड़ दिया गया. सुप्रसिद्ध अफ्रीकी नस्ल-चिन्तक शेख अंता दीओ ने इस 'आर्यन विजयवादी' विश्वास को केवल दो वाक्यों में खारिज किया:

'यह अक्सर कहा गया है, बिना किसी निर्णायक ऐतिहासिक दस्तावेजों के, कि आर्य थे ... जिन्होंने अश्वेत आदिवासी द्रविड़ आबादी को वशीभूत करने के बाद जाति प्रणाली का निर्माण किया.

अगर ऐसा होता तो रंग की कसौटी उसकी बुनियाद होनी चाहिए थी; अधिक से अधिक तीन जातियां होनी चाहिए थी” [श्वेत, काला, मिश्रित].

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आर्य थ्योरी और अंबेडकर

वेदों में दो संस्कृत शब्द 'आर्य' और 'दास' का यूरोपीय लोगों द्वारा/के लिए गलत अनुवाद किया गया था, सबसे पहले विलियम जोंस ने और प्रचलित नस्लवादी पूर्वाग्रहों के साथ जोड़ दिया गया था, क्योंकि उपनिवेशवाद से पहले ब्रिटिश दौलत गुलाम व्यापार पर टिकी थी. भारत के सन्दर्भ में (श्वेत) आर्य वेदों के कथित निर्माता बताये गए. उनको विजयी नायकों के रूप में चित्रित किया गया, और उनके शत्रुओं (ब्लैक) दास को विजित के रूप बताया गया.

अंबेडकर ने इस को खारिज किया. वेदों में दो शब्द 'आर्य' और 'दास' के उपयोग का एक विस्तृत विश्लेषण कर इसका निर्णायक रूप से खंडन किया. उन्होंने कहा कि पश्चिमी लेखकों की आर्य थ्योरी में कई दिक्कत हैं. यह इस बात से पता लगता है कि ऋग्वेद में छह सूक्त ऐसे हैं जहां आर्य और दास दोनों को वेदों के रचनाकारों का दुश्मन बताया गया है! उदाहरण के लिए, ऋग्वेद vi.3.33.3 'हमारे शत्रुओं' दासों और आर्यों दोनों को नष्ट करने के लिए इंद्र की प्रशंसा करता है. स्पष्ट है कि वेदों की रचना करने वाले और दासों या द्रविड़ों पर विजय पाने वाले आक्रमणकारी 'आर्यों' का पूरा मिथक झूठा है.

इस प्रकार तिलक जैसे कुछ ब्राह्मणों ने आर्य थ्योरी को स्वीकार किया (हालांकि तिलक ने जोर दिया कि आर्य ऑर्कटिक मूल के थे जो कि धार्मिक रूप से कॉकेशियन मूल के विश्वास का उलट था) और कुछ दलितों ने इसका विरोध किया. लेकिन यहां कोई बाइनरी नहीं है, क्योंकि रोमिला थापर जैसे कुछ ''उदारवादी'' इतिहासकार आज भी आर्य नस्ल थ्योरी का समर्थन करते हैं.

आर्य थ्योरी और पेरियार

जो बात पूरी तरह से इस तरह की बाइनरी के खिलाफ जाती है वह है पेरियार का समर्थन. ये सच है कि पेरियार ने केवल द्रविड़ों का समर्थन किया था, लेकिन द्रविड़ियन शब्द को स्वीकार करने का मतलब है आर्य नस्ल को मान्यता देना. यदि कोई 'आर्यन' शब्द को अस्वीकार करता है, तो उसे केवल तमिल लोगों की बात करनी चाहिए, द्रविड़ियन की नहीं. यह विडम्बना है कि द्रविड़ों के अधिवक्ता, और कथित 'आर्यों'/ब्राह्मणों द्वारा उनके साथ कथित ऐतिहासिक अन्याय के विरोधी, पेरियार आर्य नस्ल थ्योरी के सबसे मजबूत और प्रभावी समर्थक बन गए! द्रविड़ राजनीति आज एक निर्विवाद राजनीतिक वास्तविकता है. यह वह ठोस राजनीतिक परिणाम है जो आर्यों की पुरानी कल्पना से शुरू हुआ और आज भी विद्यमान है.

संक्षेप में, आर्य नस्ल केवल ब्राह्मण बनाम दलित (या उत्तर बनाम दक्षिण) का मुद्दा नहीं है, हालांकि ठीक इसी तरीके से ब्रिटिश तब इसे देखना चाहते थे, और पश्चिम इसे आज भी देखना चाहता है (भारत को बाल्कनाइज करने के लिए).

(उपरोक्त सभी उद्धरणों के मूल स्रोत एक स्थान पर इस किताब में पाए जा सकते हैं: आर्य नस्ल की अटकलों का खंडन: अंकगणितीय साक्ष्य और यूनान-पर-विजय की थ्योरी', कांत अकादमिक प्रकाशक, दिल्ली 2022.)

(इस आलेख के लेखर प्रो. सीके राजू इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन के मानद प्रोफेसर हैं. लेख में व्यक्ति गए गए विचार लेखक के अपने हैं और क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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