जब सोचता हूं तो लगता है कि कहीं ये सब कोई सियासी खेल तो नहीं है, या फिर कोई आपसी रंजिश. आखिर, ये लोग इतनी नफरत लाते कहां से हैं. फिलहाल, मैं बेंगलुरु में हूं, लेकिन जब दिल्ली दंगों की आग में जल रही रही थी, तब मैं बाहर था. टीवी की कमी खल रही थी, लेकिन दिल्ली दंगों से संबंधित अलग-अलग एंगल की खबरें सोशल मीडिया के जरिए मुझ तक पहुंच रही थी
अभी पिछले हफ्ते ही दिल्ली - नोएडा का बिजनेस ट्रिप लगा. यूं तो दिल्ली अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी, लेकिन कहीं न कहीं कुछ अजीब सी बेचैनी जरूर थी. शाहीन बाग में प्रोटेस्ट का 62वं दिन था. नहर के रास्ते दिल्ली से नोएडा की ओर जा रहा था, ओला के ड्राइवर ने कहा - यही शाहीन बाग का एक रास्ता है. सड़क के आने-जाने के दोनों रास्तों पे बेरिकेड लगी थी. कुछ पुलिस वाले बेरिकेड के आसपास कुर्सी डाले बैठे थे. पास ही पुलिस की दो पेट्रोलिंग जिप्सी खड़ी थीं, जिसमें से एक के ऊपर लाउडस्पीकर लगा था.
बस पैदल राहगीरों के लिए रास्ता खुला था. सड़क के दोनों ओर कुछ महिलाएं बुरके में जा रही थीं और कुछ लोग कुर्ते पायजामे में नजर आ रहे थे. लेकिन माहौल में एक अजीब सा सन्नाटा था.
अपने इस बिजनेस ट्रिप के दौरान मैंने दो दिन में कम से कम 4-5 बार टैक्सी से सफर किया. दोनों ही दिन मुझे नोएडा, फरीदाबाद और सेंट्रल दिल्ली जाना पड़ा. इस दौरान मैंने जितनी ही टैक्सियों में सफर किया, करीबन हर ड्राइवर शाहीन बाग को लेकर थोड़ा सा बेचैन दिखा. इनमें से कुछ शाहीन बाग मामले पर खुल के बोले और कुछ ने इशारों में अपनी बात रखी. फिर भी अब तक सब ठीक ठाक सा ही था.
मैं 21 फरवरी को वापस बैंगलोर आ गया. उधर दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे को लेकर जोरशोर से तैयारी चल रही थी. मेनस्ट्रीम मीडिया में सिर्फ ट्रम्प के भारत दौरे की खबरें आ रही थीं. मसलन, ट्रंप के दौरे पर इतना खर्च होगा, ट्रम्प के दौरे से भारत को क्या मिलेगा ? मेलानिया दिल्ली के सरकारी स्कूल में जाएंगी.अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को ट्रंप दौरे से दूर रखा गया...वगैरह-वगैरह.
इसी बीच सोशल मीडिया पर कुछ भड़काऊ वीडियो तैरने लगे. इनमें से दो बयान सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहे. पहला एआईएमआईएम नेता वारिस पठान और दूसरा बीजेपी नेता कपिल मिश्रा का. इसके अगले ही दिन कुछ लोग सड़कों पर उतरे. सीएए का समर्थन और विरोध करने वाले भिड़ गए. सड़कों पर पत्थरबाजी हुई और फिर देखते ही देखते दिल्ली के कई इलाकों में हिंसा भड़क उठी. घरों, दुकानों और वाहनों को फूंक दिया गया. इस हिंसा में दो दर्जन से ज्यादा लोगों की जान चली गई और कई लोग जख्मी हो गए. इतना ही नहीं इस हिंसा की वजह से सैकड़ों लोगों को बेघर भी होना पड़ा.
इस हिंसा में दिल्ली पुलिस के कॉन्स्टेबल रतन लाल की भी जान चली गई. वहीं एक डीसीपी गंभीर रूप से जख्मी हो गए. दिल्ली में करीब चार दिन तक कर्फ्यू लागू रहा.
इस घटना ने मुझे बेचैन कर दिया. दिल में बस एक ही सवाल बार-बार कौंध रहा था कि आखिर ये दंगा क्यों भड़का? सोशल मीडिया पर दो धड़े सक्रिय दिखे. पहले वो जो इस दंगे के लिए भड़काऊ भाषण को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और दूसरे वो जो शाहीन बाग के प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहरा रहे थे.
आखिर, इतनी नफरत का कारण क्या हो सकता है? आखिर, कैसे कोई इंसान दूसरे इंसान के खून का प्यासा हो सकता है? कैसे कोई इतना बेरहम हो सकता है जो अपनी नफरत की आग में किसी घर-दुकान को फूंक देता है? ये कैसे संभव है? मुझे नहीं लगता है कि शाहीन बाग का प्रदर्शन या CAA का समर्थन इस हिंसा का कारण हो सकता है.
कारण कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि दिल्ली में नफरत की जीत और इंसानियत की हार हुई है.
किसी भी प्रजातंत्र का अभिभावक उसका ज्यूडिशियल सिस्टम होता है. जब भी किसी व्यक्ति विशेष, या किसी समूह का मौलिक अधिकार खतरे में होता है, या किसी व्यक्ति विशेष, समूह, प्राइवेट ऑर्गेनाईजेशन या सरकारी संस्थान का बर्चस्व कायम होने की संभावना होती है, इन सभी मामलों में ज्यूडिशियल सिस्टम का किसी भी तरह का पक्षपात किए बिना कानून का इकबाल कायम करता है.
दिल्ली में दंगाइयों ने सारी हदें पार कर दीं. लगातार चार दिनों तक दिल्ली जलती रही. मरने वालों की संख्या बढ़ती रही. दंगाइयों ने उनको भी नहीं बख्शा, जो न तो सीएए के समर्थन में थे और ना ही इसके विरोध में. दंगाइयों ने मेहनत-मजदूरी कर अपना पेट पालने वालों के घर जला दिए, उनकी दुकानों को लूटा. जो जख्मी हुए, उन्हें अस्पताल जाने तक का भी रास्ता नहीं मिला.
इस हिंसा में मारे गए लोगों का शव पाने के इंतजार में परिजनों को मोर्चरी के चक्कर लगाने पड़े. इस सबके बावजूद कानून अपनी आंखों पर पट्टी बांधे खड़ा रहा. देखना ये है कानून की नजर में इसका जिम्मेदार किसको ठहराया जाता है. फैसला जो भी हो, इसका जिम्मेदारी पूरे समाज को लेनी होगी.
(हेमंत झा स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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