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महिला दिवस: 'औरत' सुनते ही जेहन में क्या आता है? कभी नहीं सोचा, तो अब सोच लीजिए!

Women's Day: महिलाओं को लेकर मौजूदा वक्त की बात की जाए तो स्थिति पहले से थोड़ी सुधरी जरूर है लेकिन संतोषजनक नहीं है.

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शायद एक मासूम सी सूरत, संवेदनशीलता की मूरत,

कोई देवी, किसी के घर का सम्मान,

इज्जत और पाकीजगी का दूजा नाम,

किचन, घर, बच्चे और ऐसे तमाम,

जिसे दिए जाते हैं इतने सरल काम!

हया की चादर में लिपटा शायद गुलाबी सा कोई रंग,

कुछ भी करने के लिए जिसे चाहिए ही किसी का संग,

बातें जितनी भी हैं दकियानूसी और रस्में नई पुरानी,

उसी बेचारी महिला उसी औरत को है निभानी!

शायद ये ही छवि बनती होगी...इनमें से पूरी नहीं तो एक-दो बातें तो सत्य होंगी ही. दरअसल समाज द्वारा लड़कियों या महिलाओं (Women) को इन्हीं कुछ रूपों में गढ़ा जाता रहा है. जैसा कि साइमन द बुआ कहती हैं कि महिलाएं पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती हैं.

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अब आप कहेंगे कि मैं किस दुनिया में जी रही हूं, शायद मैं प्राचीन काल के अपाला और घोषा या मध्यकाल की राजिया, रोशन आरा, जहान आरा, रानी दुर्गावती और रानी लक्ष्मीबाई को नहीं जानती. सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा , इंदिरा गांधी जैसे नामों से अनजान हूं या मौजूदा वक्त में मिल जाते हैं ऐसे कई नाम हर क्षेत्र में...और यह सच भी है मिलते भी हैं ऐसे तमाम नाम.

तो इन्हें रास्ते बनाने पड़े हैं, लड़ना पड़ा है, झगड़ना पड़ा है. जैसा कि शायर और गीतकार जावेद साहब कहते हैं कि अभी भी औरतों के लिए हमने पूरे दरवाजे नहीं खोले हैं, ग्लास सीलिंग टूटी नहीं है अभी बल्कि थोड़ी सी सांस लेने की जगह खुली है और महिलाएं आज भी बामशक्कत निकल कर आ रही हैं.

मौजूदा वक्त की बात की जाए तो स्थिति पहले से थोड़ी सुधरी हुई जरूर कही जा सकती है लेकिन संतोषजनक नहीं और न ही 'बेहतर' लफ्ज देना सही होगा.

उदाहरण के लिए सरकार से लेकर समाज तक के कुछ आंकड़े देखते हैं.

  • अंतर संसदीय संघ के मुताबिक संसद में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के अनुपात में संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों में से भारत 148वें स्थान पर है. पाकिस्तान (20%), बांग्लादेश(20.3%) और नेपाल(29.9%) की संसदों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या भारत की तुलना में अधिक है. महिला आरक्षण विधेयक 25 वर्ष पहले संसद में पेश किया गया था, जो कि आज तक पारित नहीं हो सका. ये हमारी सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति की लोचशीलता को दर्शाता है.

  • सुप्रीम कोर्ट में आज तक कोई महिला मुख्य न्यायाधीश न होना और सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ 12% , हाई कोर्ट में 11.5% और अधीनस्थ न्यायालयों में 30% महिलाओं की उपस्थिति कहीं न कहीं न्यायिक संस्थाओं के पितृसत्तात्मक रुझान को प्रदर्शित करता है.

  • वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक 2022 में भारत 146 देशों में से 135वें स्थान पर है. यही नहीं विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक भारत में पुरुष श्रम आय का 82% अर्जित करते हैं और महिलाएं केवल 18% अर्जित करती हैं. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के मुतबाकि भारतीय महिलाएं अपना 19.5% वक्त अवैतनिक घरेलू कामों में बिताती हैं जबकि पुरुष सिर्फ 2.5% वक्त ही इन कार्यों में लगाते हैं.

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  • भारत में बेरोजगारी दर 2018-19 में 6.3% से बढ़कर दिसंबर 2021 में 7.91% हो गई है, जिसके तहत शहरी इलाकों में काम करने की इच्छुक महिलाओं में से 92.1% और ग्रामीण क्षेत्र की 54.8% महिलाओं के पास कोई रोजगार नहीं मिलता.

  • NFHS–5(2019–21) के मुताबिक 82% विवाहित महिलाओं ने अपने मौजूदा और 13% ने अपने पूर्व पति के विरुद्ध शिकायत की है. भारत में आज भी मैरिटल रेप को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम-2005 की धारा 3, किसी भी तरीके के शारीरिक, लैंगिक, मौखिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार को घरेलू हिंसा मानती है. तो क्या हम मैरिटल रेप उपर्युक्त में से किसी श्रेणी में नहीं मानते हैं? जबकि यूके, यूएस, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन, नार्वे, फ्रांस, जर्मनी और नीदरलैंड इत्यादि ने मैरिटल रेप को कानून के तहत दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा हुआ है.

  • संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक अपने लैंगिक और प्रजनन अधिकारों को लेकर केवल 57% महिलाएं ही फैसले लेने में सक्षम हैं.

  • भारत में बुल्लीबाई ऐप के जरिए सार्वजनिक जीवन में सक्रिय 100 से अधिक महिलाओं की तस्वीरों को फर्जी नीलामी के लिए पोस्ट किया जाना अपने आप में अपराधियों में डर के गिरते हुए स्तर को दिखाता है.

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आज भी ज्यादातर घरों में बेटी के जन्म लेने पर मुंह और नाक सिकोड़े जाते हुए देखे जा सकते हैं. तथाकथित आधुनिकता के इस दौर में भी सरकार को 'बेटी पढ़ाओ–बेटी बचाओ' जैसे अभियान चलाने की जरूरत पड़ रही है.

आज भी कई नेताओं और महिला आयोग की अध्यक्ष के मुंह से महिला विरोधी और पितृसत्तात्मक बयान सुनने को मिल जाया करते हैं.

शायद इसीलिए कैरोल पेटमैन कहती हैं कि महिलाएं आज भी प्राकृतिक अवस्था में जिंदगी गुजार रही हैं. इसलिए जरूरत है लोगों की आंखें खोलने की, जिनकी आंखें लड़के और लड़कियों व महिला और पुरुष में अतार्किक भेद करती हैं. जिन्हें पुरुष होने का मतलब सर्वोच्च होना नजर आता है और महिलाओं के संदर्भ में अरस्तू और कबीर जैसी छोटी सोच रखते हैं.

इसलिए समाज, सरकार और अन्य संस्थाओं सहित महिलाओं व लड़कियों को न केवल हक के लिए आवाज उठानी होगी बल्कि इस मुहिम को और तेज बनाना होगा. हाल में आई एक रिपोर्ट में विश्व स्तर पर जेंडर इक्वालिटी आने में 268 साल लगने की बात कही गई है. अगर वह सही हो गई तो हमें एस डी जी गोल क्या कोई भी गोल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा. जैसा कि कोफी अन्नान का कहना है कि महिला सशक्तिकरण विकास की पूर्व शर्त है.

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जस्टिस रामन्ना की बात को याद रखना चाहिए जिन्होंने अपने एक फैसले के दौरान कहा था कि विश्व की महिलाओं एक हो जाओ तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है शिवाय जंजीरों के और पाने के लिए पूरा संसार है.

(महरोज जहां एक सिविल एस्पिरेंट हैं, जो साहित्य, समाज, जेंडर और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @mahrojjahan है. आर्टिकल में व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं. क्विंट हिंदी का सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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