क्या आपने भारत-पाकिस्तान का कोई मैच पाकिस्तानी फैन्स के बीच बैठकर देखा है, उन्हीं के देश में? मैंने देखा है, वो भी 2011 वर्ल्डकप का हाई-वोल्टेज सेमीफाइनल.
असल में तो वो ‘युद्ध’ भारत के मोहाली क्रिकेट ग्राउंड में लड़ा गया था, लेकिन पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में बड़ी-बड़ी स्क्रीन्स पर उसके लाइव टेलीकास्ट का इंतजाम किया था. 30 मार्च, 2011 के उस ‘निर्णायक’ दिन मैं उसी गद्दाफी स्टेडियम में था- मैच की कवरेज के लिए.
खचाखच भरे मैदान में वो माहौल था कि मोहाली में भी क्या होगा. उन्माद से लबरेज हजारों दर्शक, चमकती फ्लड लाइट्स, हजारों वॉट के स्पीकर, हवा के झोंकों को ललकारते झंडे, नतीजे को अपने हक में खींच लाने की तर्कहीन जिद, आसमान का सीना ठोंकता वतनपरस्ती का जुनून और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे.
प्रॉब्लम बस इतनी सी थी कि हर गेंद पर अपनी हर फीलिंग का 180 डिग्री एंटी-फीलिंग रिफलेक्शन मैदान में दिखता था और फिर उसी के साथ ताली या गाली देनी पड़ती थी. मसलन वीरू के चौकों पर चुप्पी, सचिन के विकेट पर झप्पी. गहराती नाउम्मीदी, फिर भी बूम-बूम अफरीदी.
37वें ओवर की आखिरी गेंद पर 85 रन बना चुके तेंदुलकर का कैच शाहिद अफरीदी ने लपका, तो मैदान में वो जोश था कि जैसे पाकिस्तान ने वर्ल्डकप ही जीत लिया हो. अचानक मैंने महसूस किया कि माहौल की मस्ती में मैं भी ताली बजा रहा हूं.
उसी तरह पाकिस्तान की पारी के 42वें ओवर की पांचवीं गेंद पर हरभजन ने अफरीदी को पैविलियन भेजा, तो मैदान में मरघट-सा सन्नाटा छा गया.
PCB ने ये पूरा इंतजाम अपने लोगों की कसक पर मरहम लगाने के लिए किया था. कसक इस बात की कि मार्च, 2009 में श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर हुए आतंकी हमले और उसके बाद मैच फिक्सिंग के अंधेरे आरोपों ने पाकिस्तान से विश्वकप की मेहमाननवाजी छीन ली. वरना शायद ये सेमीफाइनल लाहौर में ही हो रहा होता.
खैर जनाब, उखड़ती उम्मीदों और उमड़ती उमंगों की छुपम-छुपाई के बीच मैच नतीजे पर पहुंचा और पाकिस्तान क्रिकेट टीम का शानदार सफर मंजिल से एक पड़ाव पहले खत्म हो गया.
मैच भारत के पक्ष में झुकना शुरू हुआ, तो मैं और मेरे वीडियो जर्नलिस्ट पंकज तोमर मैदान से जाने की सोचने लगे. इस डर से कि कहीं ये नाराज तमाशबीन हमीं पर न बिफर पड़ें.
लेकिन न जाने कौन सी गांठ हमें बांधे रही. भारत 29 रन से मैच जीत गया और मैदान में बने रहने का हमारा फैसला सही साबित हुआ. नतीजे के बाद जो भी मिला, मुबारकबाद के साथ मिला. हम ‘उस पार’ से आए हैं, ये जानने के बाद हर शख्स ने हमें फाइनल के लिए शुभकामनाएं दीं.
अपने ड्राइवर वाहिद के होठों पर मुस्कुराहट के बावजूद आंखों में हार का गम मैं साफ देख रहा था. उन्हें गले लगाकर मैंने कहा:
वाहिद भाई, कोई बात नहीं.. जीतकर ट्रॉफी हम आपके पास भेज देंगे.
इस पर भर्राए गले से उन्होंने जवाब दिया, ''कोई गल नी जनाब.. तुस्सी जीत्ते, अस्सी जीत्ते, इक्को गल है (कोई बात नहीं जनाब, आप जीते या हम, एक ही बात है).''
इसके बाद पाकिस्तानी मीडिया का हैरान कर देने वाला रवैया टीवी पर मेरे रूबरू था. चंद मिनटों पहले अपने 'प्रिय' प्रतिद्वन्द्वी से हारी पाक क्रिकेट टीम के लिए टीवी पर गाना बज रहा था, 'तुम जीतो या हारो, हमें तुमसे प्यार है.' मुझे लगा कि हमारे यहां हारने के बाद खिलाड़ियों पर पत्थर न सही, गालियां तो बरस ही रही होतीं.
वैसे मायूस हसरतों की मासूम नाराजगी भी दिलचस्प चर्चा की शक्ल में सड़क पर आम थी. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी वो मैच देखने भारत आए थे. उस पर 21 साल के ऑटो ड्राइवर सैयद कुर्बान अली अंजुम का मानना था, ''गिलानी ते उत्थे मैच देण वास्ते ई गया सी'' (गिलानी तो वहां मैच देने ही गया था).
दो दिन बाद भारत ने श्रीलंका को हराकर 2011 का वर्ल्डकप जीत लिया था, लेकिन मेरे लिए तो वो सेमीफाइनल ही फाइनल था. आज भी भारत पाकिस्तान के हर मैच से पहले यादों का वो फ्लेशबैक आंखों के सामने नाचने लगता है.
(ये स्टोरी सबसे पहले 18 जून, 2017 को पब्लिश की गई थी)
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