टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympic) में भारत की बेटियां इतिहास रच रही हैं. वंदना कटारिया (Vandana Katariya) और कमलप्रीत कौर (Kamalpreet Kaur) ने भी ऐसा मुकाम हासिल किया है जो अब तक भारत की ओर से किसी ने नहीं किया है. जहां वंदना ओलंपिक में भारत की ओर से हॉकी में हैट्रिक लगानी पहली महिला बनी हैं वहीं कमलप्रीत ने अपने चक्के से डिस्कस थ्रो फाइनल इवेंट में जगह बनाते हुए कीर्तिमान स्थापित किया है. आइए जानते हैं इनके संघर्ष की कहानी और इनसे मिलने वाली सीख...
कमलप्रीत: पढ़ाई में कमजाेरी और शादी के दबाव से बचने के लिए चुना खेल
कमलप्रीत पंजाब के मुक्तसर के एक छोटे से गांव कबरवाला में जन्मी थीं. किसान परिवार से आने वाली कमलप्रीत के घर की वित्तीय स्थिति कुछ खास नहीं थी. कमलप्रीत बचपन से ही पढ़ाई में कमजोर थीं. इस वजह से उनको शादी का भी डर सताने लगा था. लेकिन वे इन सबसे बचना चाहती थीं तो उन्होंने खेल की तरफ रुख किया. एक इंटरव्यू में खुद कमलप्रीत ने कहा है कि "मुझ पर कम उम्र में शादी करने के लिए बहुत दबाव डाला गया था."
उन्होंने कहा था कि “मुझे पता था कि अगर मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं करती हूं और अच्छे कॉलेज में जगह नहीं बना पाती हूं, तो मेरी किस्मत वही होगी.” इसी वजह उन्होंने कुछ अलग करने की ठानी, पढ़ाई में न सही खेलों में अपनी किस्मत आजमाने का फैसला किया. क्योंकि उन्हें पता था कि यह उनके कॅरियर का टर्निंग पॉइंट हो सकता है और शादी से बच सकती हैं.
कमलप्रीत को स्कूल की खेल शिक्षिका ने एथलेटिक्स से रूबरू कराया जिसके बाद 2011-12 में उन्होंने खुद को एथलीट के तौर पर देखना शुरू किया. कमलप्रीत अपनी पहली स्टेट मीट में चौथे स्थान पर रहीं थी. उसके बाद वे क्षेत्रीय और जिला स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगीं, लेकिन तब उन्होंने फैसला किया था कि वह अपने पिता पर अतिरिक्त वित्तीय दबाव नहीं डालेंगी. क्योंकि उन पर पहले से ही संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी थी.
इसके बाद कमलप्रीत ने अपने प्रारंभिक कोच के कहने पर ही एथलीट्क्स में आने का फैसला किया. इसके बाद 2013 में अंडर-18 राष्ट्रीय जूनियर चैम्पियनशिप में उन्होंने हिस्सा लिया जहां वे दूसरे स्थान पर रहीं. साल 2014 में कमलप्रीत ने अपनी ट्रेनिग को ज्यादा गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. वे साई सेंटर से जुड़ी और अगले साल राष्ट्रीय जूनियर चैम्पियन बन गईं.
कमल नहीं कमालप्रीत, चक्के से पहले फेंकती थीं गोला
कमलप्रीत की शुरुआती ट्रेनिंग बादल गांव में स्थित स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के सेंटर में हुई है. शुरुआत में वो शॉट पुटर यानी गोला फेंक स्पर्धा में थीं. लेकिन साई सेंटर के कोच प्रीतपाल मारू जोकि खुद डिस्कस थ्रोअर थे, उनकी सलाह के बाद कमलप्रीत ने इस खेल को गंभीरता से लेना शुरू किया था.
व्यवस्थित ट्रेनिंग और कठिन परिश्रम की वजह से कमलप्रीत ने 2016 में अपना पहला सीनियर राष्ट्रीय खिताब जीता 2016 में वे अंडर-18 और अंडर-20 राष्ट्रीय चैंपियन बनीं तो वहीं 2017 में 29वें विश्व विश्वविद्यालय खेलों में छठे स्थान पर रहीं. जबकि 2019 में दोहा में एशियाई एथलेटिक्स चैंपियनशिप में वह पांचवें स्थान पर रही थीं.
24वें फेडरेशन कप सीनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में कमलप्रीत ने कमाल करते हुए इतिहास रचा, वह चक्का फेंक में 65 मीटर बाधा पार करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं थी. वहीं, 2019 में ही कौर के नाम 60.25 मीटर चक्का फेंककर गोल्ड पदक जीतने का कारनामा दर्ज हो गया था.
कमलप्रीत ने इस साल दो बार 65 मीटर की थ्रो फेंकी है. मार्च में उन्होंने फेडरेशन कप में 65.06 मीटर की थ्रो फेंक कर नेशनल रिकॉर्ड बनाया था, तब कौर ने कृष्णा पूनिया का लंबे समय से चले आ रहे राष्ट्रीय रिकॉर्ड को तोड़ा था. इसके बाद जून में उन्होंने अपने ही इस रिकॉर्ड को और बेहतर किया. इंडियन ग्रेंड प्रिक्स-4 में उन्होंने 66.59 मीटर की थ्रो के साथ नया रिकॉर्ड बना डाला.
कभी एथलेटिक्स छोड़ने का बना लिया था मन, कोरोना में अवसाद दूर करने के लिया खेला क्रिकेट
एक इंटरव्यू में कमलप्रीत की मां राजिंदर कौर ने कहा था कि "शुरु-शुरु में जब कमलप्रीत हॉस्टल में रहने के लिए गई तो डर था कि अकेली लड़की कैसे रहेगी? क्या करेगी खेलकर? आखिर तो चूल्हा ही संभालना है. मां के कहने पर पहले तो कमलप्रीत ने एक बार एथलेटिक छोड़ने का मन भी बना लिया था, लेकिन पिता कुलदीप सिंह ने उनकी मां को समझाया और मां उन्हें हॉस्टल में भेजने के लिए राजी हुईं थीं. अगर उस समय बेटी ने मां के लिए खेल छोड़ दिया होता तो आज इतिहास कौन रचता. वहीं मां अब कह रही हैं कि बेटी की उपलब्धि पर आज गर्व होता है कि वह दुनिया में नाम बनाने के लिए पैदा हुई थी.
कमलप्रीत की कोच राखी त्यागी ने एक इंटरव्यू में से कहा है कि "कोविड-19 के कारण सबकुछ बंद था जिसकी वजह से पिछले साल कमलप्रीत अवसाद महसूस कर रही थी. वह बेचैन थी. वह खेलों में हिस्सा लेना चाहती थी, खासकर ओलंपिक्स में. ऐसे में तनाव को दूर करने के लिए उसने क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया था, वह अपने गांव के मैदानों पर ही क्रिकेट खेल रही थी.'
भारतीय ओलंपिक के इतिहास में अबतक किसी खिलाड़ी ने एथलेटिक्स में मेडल नहीं जीता है. ऐसे में कमलप्रीत के पास इतिहास रचने का मौका है. महिला डिस्कस फाइनल में उनके साथ 12 खिलाड़ी होंगे. कमलप्रीत की कोच त्यागी कहती हैं कि "मुझे लगता है कि कमलप्रीत अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करे तो इस बार पदक जीत सकती है. यह उसका पहला ओलंपिक है. 66 या 67 मीटर का थ्रो उसे और देश को एथलेटिक्स का पदक दिला सकता है.'
सीख :
कमलप्रीत की कहानी से अभिभावक और बच्चों दोनों को सीख लेने की जरूरत है. अगर आप पेरेंट्स हैं तो बच्चों पर दबाव न बनाएं. अगर वह पढ़ाई में कमजोर है तो उसकी ताकत किस क्षेत्र में इसे पहचान कर उसे प्रोत्साहित करें. वहीं यदि आप बच्चे के नजरिये से देख रहे हैं तो आपको बस फोकस यानी एकाग्रता और सतत परिश्रम करते रहने की सीख लेनी चाहिए. आपकी अपने लक्ष्य के आगे सब भूल जाएं.
कभी उड़ाया गया था वंदना का मजाक, अब रचा है इतिहास
वंदना कटारिया मूलत: हरिद्वार के रोशनाबाद की रहने वाली हैं. बचपन में वंदना को उनके आस-पड़ोस के लोगों ने कहा था कि एक लड़की के लिए खेल ठीक नहीं है. रोशनाबाद के बुजुर्गों की नजर में लड़की का खेलना अनुचित था. ऐसे में वंदना चुपके से सबसे बचते-बचाते पेड़ों की शाखाओं की मदद से खेलती थीं और अपने हॉकी मूव्स की प्रैक्टिस करती थी.
वंदना के पिता हरिद्वार BHEL भेल में काम करते थे. पिता की ही देख-रेख में वंदना ने हॉकी खेलना शुरु किया था. वंदना ने जब हॉकी खेलना शुरू किया तो स्थानीय लोगों और परिवार के कुछ सदस्यों ने उनका मजाक उड़ाया था. लेकिन उनके पिता नाहर सिंह ने इस बात को नजरअंदाज कर अपनी बेटी के सपने को साकार करना शुरू कर दिया.
वंदना हॉकी से पहले खो-खो खेलती थीं. 2002 में खो-खो की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में वंदना ने शानदार खेल दिखाया था. 11 वर्ष की वंदना की एनर्जी देखकर कोच कृष्ण कुमार ने उन्हें हॉकी में उतारा था. वंदना ने हॉकी की शुरुआती ट्रेनिंग मेरठ के एनएएस कॉलेज स्थित हॉकी मैदान पर कोच प्रदीप चिन्योटी के मार्गदर्शन में ली थी. वंदना ने मेरठ में 2004 से 2006 तक प्रशिक्षण लिया और जिले से लेकर प्रदेश स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया. 2007 की शुरुआत में वंदना का चयन लखनऊ स्थित हॉकी हॉस्टल में हो गया था.
वंदना ने प्रोफेशनल तौर पर मेरठ से हॉकी शुरूआत की थी. इसके बाद वे लखनऊ स्पोर्ट्स हॉस्टल पहुंच गईं, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक ने होने के कारण उन्हें अच्छी किट और हॉकी स्टिक खरीदने में दिक्कत होती थी. वंदना के सामने कई मौके ऐसे भी आए जब हॉस्टल की छुट्टियों में साथी खिलाड़ी घर चले जाते थे, लेकिन वो पैसों की कमी के कारण घर नहीं जा पाती थीं. ऐसे में उनके कोच मदद के लिए आगे आते थे.
वंदना कटारिया ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वे कभी भी हॉकी नहीं खेल पातीं अगर उनके पिता ने साथ नहीं दिया होता. उन्होंने कहा था कि एक समय ऐसा था जब परिवार में पिता को छोड़कर कोई नहीं चाहता था कि वे हॉकी खिलाड़ी बनें. लखनऊ स्पोर्ट्स हॉस्टल में पिता ने मां सोरन देवी से छिपाकर दाखिला कराया था और कहा था कि वे केवल खेल पर ही फोकस करें.
वंदना को 2007 में भारतीय जूनियर टीम में चुना गया था. वहीं 2010 में इनको सीनियर राष्ट्रीय टीम में चुना गया. वंदना ने 2013 में जापान में हुई तीसरी एशियन चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था. 2014 में कोरिया में हुए 17वें एशियन गेम्स में वे कांस्य पदक विजेता रहीं. 2016 में सिंगापुर में हुई चौथी एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक विजेता बनीं. 2018 में जकार्ता में हुए एशियाई खेल में रजत पदक विजेता थीं जबकि 2018 में गोल्ड कोस्ट में हुए 11वें राष्ट्रमंडल खेल में चौथे स्थान पर रहीं.
पिता का अंतिम दर्शन नहीं कर पाईं, मेडल से देना चाहती हैं श्रद्धांजलि
हरिद्वार से ओलंपिक तक का सफर उनके लिए बिलकुल भी आसान नहीं था. ओलंपिक की तैयारी के चलते वो अपने पिता को आखिरी बार देख भी नहीं पाई थीं. मई में उनके पिता का निधन हो गया था, उन्हें उस समय बहुत दुख हुआ था, लेकिन अब वंदना चाहती है कि वह ओलंपिक का मेडल जीतकर अपने पिता को श्रद्धांजलि दें. वंदना के पिता की इच्छा थी कि बेटी ओलंपिक में स्वर्ण पदक विजेता टीम का हिस्सा बने.
भारतीय महिला हॉकी टीम ने दक्षिण अफ्रीका पर 4-3 की जीत और बाद में मौजूदा चैंपियन ग्रेट ब्रिटेन की आयरलैंड पर 2-0 की विजय से 41 वर्षों में पहली बार ओलंपिक खेलों के क्वार्टर फाइनल में प्रवेश कर लिया है.
वंदना ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ हैट्रिक लगाकर इतिहास रच दिया है. वे पहली भारतीय महिला हैं जिसने यह उपलब्धि हासिल की है. वंदना ने मुकाबले में चौथे, 17वें, 49वें मिनट पर गोल दागा.
इस उपलब्धि के बाद वंदना के भाई ने बताया कि वह 9 भाई बहन हैं. अक्सर दादी वंदना को घर के कामों में और खाना बनाने पर ध्यान लगाने के लिए कहती थीं, मगर पिता हमेशा अपनी बेटी के समर्थन में खड़े रहते थे. अब बहन ने भी साबित कर दिया है कि वह पिता के भरोसे पर खरी उतरी है.
सीख :
हमें वंदना और उसके पिता से भरोसे और खेलप्रेम की सीख मिलती है. यदि आपमें किसी भी चीज चाहे वे खेल हो या अन्य कुछ भी यदि उसको लेकर आपके मन में जिद और जुनून है तो उसे हासिल करने के लिए आपको जी जान लगाना चाहिए. वहीं एक माता-पिता के तौर पर आपको बच्चे पर भरोसा करना सीखना होगा. भरोसे में ही सबसे बड़ी ताकत है.
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