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रेगिस्तान में चला,जंगल में भटका, अब ओलंपिक पहुंचा-Tokyo से संघर्ष की 5 कहानियां

Tokyo Olympics में हिस्सा ले रहे शरणार्थी खिलाड़ियों की कहानी देती है हार न मानने की प्रेरणा

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टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympics) में ये दूसरा मौका है जब शरणार्थी खिलाड़ी (Refugee athletes) एक ही बैनर तले उतर रहे हैं. उन्हीं खिलाड़ियों में से एक ईरानी शरणार्थी किमिया अलीजादेह (Kimia Alizadeh) ने दो बार की ताइक्वांडो गोल्ड मेडलिस्ट को हराकर हाल ही में सुर्खियां बटोरी हैं. अलीजादेह रियो ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडलिस्ट रह चुकी हैं. तब ये ईरान की ओर से खेलती थीं, लेकिन अब ये बतौर शरणार्थी ओलंपिक में शामिल हुई हैं. आइए जानते हैं टोक्यो में खेल रहे ऐसे ही पांच रिफ्यूजी खिलाड़ियों की संघर्ष भरी दास्तान...

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पहले एक नजर टोक्यो में शरणार्थियों के दल पर

टोक्यो ओलंपिक में 29 सदस्यीय रिफ्यूजी टीम उतरी है. इस टीम में ऐसे खिलाड़ी शामिल हैं जो अपना देश छोड़ने को मजबूर हुए हैं और आज किसी अन्य देश में रहते हुए ओलंपिक खेलों में हिस्सा ले रहे हैं.

स्नैपशॉट
  • 29 रिफ्यूजी प्लेयर्स टोक्यो ओलंपिक में ले रहे हैं हिस्सा.

  • 11 देशों के शरणार्थी हैं इनमें शामिल.

  • 12 अलग-अलग खेलों में प्रस्तुत करेंगे चुनौती.

  • 13 देशों में की है 56 रिफ्यूजी प्लेयर्स ने कठिन ट्रेनिंग.

  • 56 खिलाड़ियों को मिली है स्कॉलरशिप.

  • ओपनिंग सेरेमनी में IOC के झंडे के साथ आए थे नजर.

  • रियो ओलंपिक में पहली बार IOC के बैनर तले शामिल हुए थे रिफ्यूजी प्लेयर्स.

  • रियो में 4 देशों के 10 एथलीट्स ने लिया था हिस्सा.

ओलंपिक खेलों में हर खिलाड़ी किसी न किसी देश का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन उन खिलाड़यों का क्या जिनका अपना कोई देश ही नहीं? ये खिलाड़ी शरणार्थी हैं. जिनको किसी न किसी वजह से अपना देश छोड़ना पड़ा. रियो ओलंपिक 2016 से इन शरणार्थियों को भी ओलंपिक में मौका दिया जाने लगा है. इसके लिए IOC यानी ओलंपिक कमेटी और संयुक्त राष्ट्र की शणर्थियों की एजेंसी UNHCR ने साथ मिलकर काम किया है. 2016 ओलंपिक से अब शरणार्थी खिलाड़ी रिफ्यूजी ओलंपिक टीम के बैनर तले हिस्सा लेते हैं. ये IOC के सफेद झंडे के साथ आते हैं.

1. खुद की आजादी के लिए किमिया ने छोड़ा देश, टोक्यो में सबको चौंकाया

2016 के रियो ओलंपिक में ताइक्वांडो में कांस्य पदक जीतकर किमिया अलीजादेह ने ईरान के लिए इतिहास रचा था. तब वे ईरान की इकलौती महिला ओलंपिक पदक विजेता बनी थीं. किमिया ईरान की ओर से वर्ल्ड चैंपियन बनने वाली पहली महिला भी हैं. लेकिन उन्होंने अपने खेल और आजादी के कारण ईरान छोड़ दिया.

देश छोड़ने के दौरान किमिया ने अपनी सोशल पोस्ट में लिखा था, "मैं ईरान की लाखों सताई गई महिलाओं में से एक हूं जो सालों तक देश के लिए खेलती रही हूं. अधिकारियों ने जो भी कहा मैं उसे मानती रही. उनके हर आदेश का पालन किया, लेकिन उनके लिए हममें से कोई भी अहमियत नहीं रखता. हम उनके लिए केवल इस्तेमाल होने वाले हथियार भर हैं."

ओलंपिक डॉट कॉम को दिए गए इंटरव्यू में किमिया बताती हैं कि जब उन्होंने रियो में पदक जीता था, तब देशवासी उनके साथ सेल्फी लेना चाहते थे. उनको खूब मान-सम्मान मिल रहा था, लेकिन यह सिर्फ बाहरी दिखावा था. अंदरुनी सच्चाई कुछ और ही थी. उनके ऊपर मानसिक दवाब था, क्योंकि शादी के बाद उन पर कई तरह की टोका-टाकी होने लगी थी. ऐसे में उन्होंने अपने खेल और आजादी के लिए वतन छोड़ने का निर्णय लिया था. इसके बाद उन्होंने जर्मनी में रहने का फैसला लिया था.

किमिया के लिए देश छोड़ना काफी कठिन था, क्योंकि नए देश में भाषा, रहन-सहन काफी कुछ अलग था.

टोक्यो ओलंपिक में महिला ताइक्वांडो के 57 किलो भारवर्ग में बड़ा उलटफेर करते हुए किमिया ने ब्रिटेन की दो बार की ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट जेड जोन्स (Jade Jones) को राउंड ऑफ 16 के मुकाबले में 16-12 से हराकर सबको चौंका दिया था. इस जीत के बाद किमिया को हालांकि हार का मुंह देखना पड़ा और वे बाहर हो गईं. लेकिन किमिया ने महिलाओं के लिए, खासकर ऐसी महिलाओं को जो सामाजिक ताने-बाने से जकड़ी हुई हैं, आशा की किरण बनने का काम किया है.

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2. मासोमा पर फेंके गए पत्थर, लेकिन खेल के लिए हार नहीं मानी

साइकिलिंग इवेंट में हिस्सा लेने वाली मासोमा अली जादा मूलत: ईरान की हैं. लेकिन ईरान से निकाले जाने पर उनका परिवार अफगानिस्तान में आकर बस गया था. यहीं पर उन्हें और उनकी बहन को उनके पिता ने साइकिल चलाना सिखाया. अपने टैलेंट के दम पर उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में नेशनल टीम में जगह बना ली थी. लेकिन उनका खेलना वहां के लोगों को पसंद नहीं आया. एक बार ड्राइवर ने उन्हें ठोकर मारकर उनकी हंसी उड़ाई. उन्हें, उनके सहयोगियों और कोच को जान से मारने की धमकी भी मिली.

एक इंटरव्यू में मासोमा ने कहा था कि मैं सोच भी नहीं सकती कि लोग हमें मारना चाहते थे. पहले साल जब मैंने साइकिलिंग शुरू की, तब किसी ने मुझे टक्कर मारी थी, वह कार से था. उसने मेरे हाथ में भी पीछे की तरफ मारा था. वहां जो भी लड़की साइकिल चलाती थी, उसे लोग बेइज्जत करते थे. मेरे अंकल भी परिवार से बार-बार यही कहते थे कि मासोमा को साइकिल चलाने से रोकना चाहिए.

इसके बाद उन पर इतना दबाव बनाया गया कि उनके परिवार को 2017 में अफगानिस्तान छोड़कर फ्रांस आना पड़ा. इस बारे में मासोमा ने कहा था कि हमारे पास देश छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. हमारे समुदाय द्वारा हम पर साइकिल चलाना बंद करने और शादी करने का दबाव डाला गया.

कोविड महामारी ने मासोमा की ट्रेनिंग को बाधित कर दिया था. उनके पूर्व कोच अब्दुल सादिक की मौत की खबर ने भी उनको तकलीफ दी थी. लेकिन मासोमा कोच की मौत को प्रेरणा मान रही हैं. उन्होंने कहा है कि जब मैं अफगानिस्तान लौटूंगी, तो मैं महिलाओं और पुरुषों के लिए एक भव्य साइकिल रेस का आयोजन करूंगी और इसमें अब्दुल सादिक सादिक का नाम होगा.

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3. कम उम्र में जमाल ने पिता को खोया, कई साल भटकना पड़ा 

लंबी दूरी की दौड़ में हिस्सा लेने वाले जमाल जब सिर्फ 8 साल के थे, तब वो अपनी मां और भाई-बहनों के साथ सूडान स्थित अपने घर से भाग गए थे और इजराइल पहुंचने से पहले उन्होंने मिस्र और सिनाई रेगिस्तान की यात्रा की थी. इजराइल में उन्हें शरणार्थी सुरक्षा प्रदान की गई. उनके नए घर में एक एली रनर्स क्लब था, जो उभरते हुए एथलीटों को अवसर प्रदान करता है और उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने में मदद करता है.

दरअसल 2003 में पश्चिमी सूडान के दारफुर क्षेत्र में युद्ध छिड़ गया. उस दौरान जब सरकार समर्थित मिलिटेंट ने जमाल के गांव पर रेड मारी थी तब उनके पिता की मौत हो गई थी. इसके बाद सात वर्षों तक दर-दर भटकने के बाद आखिरकार जमाल को इजराइल में ठिकाना मिला था.

अपने नए जीवन की शुरुआत से पहले, जमाल लगभग तीन सप्ताह तक एक होल्डिंग कैंप में थे. वर्ल्ड एथलेटिक्स दिए गए इंटरव्यू में वे कहते हैं कि "मुझे यह भी नहीं पता था कि कैसे या कहां से निकलना है. मैं कुछ घंटों के लिए बस में रहा और फिर एक और बस आई और मैंने कुछ लोगों का पीछा किया. उसके बाद एक अन्य सूडानी प्रवासी मुझे एक बिस्तर वाले अपार्टमेंट में ले गया, जहां मैं सात अन्य पुरुषों के साथ रहा."

जमाल इजराइल में फुटबॉल खेलते थे ऐसे में एक दिन उनके सबसे अच्छे दोस्त में से एक ने उनसे कहा कि आप गेंद के पीछे तीन या चार घंटे दौड़ सकते हैं, इसलिए मुझे लगता है कि आप एली रनिंग टीम के साथ दौड़ना शुरू कर सकते हैं. उसके बाद जमाल क्लब से जुड़ गए.

जमाल कहते हैं कि "यह क्लब मेरे लिए बहुत मायने रखता है, वे मेरे परिवार की तरह हैं. उन्होंने मेरे सपने को साकार करने में मदद करने के लिए सब कुछ किया है."
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4. बचपन में माता-पिता का छूटा साथ, 15 साल की उम्र में डोरियन ने शुरु की थी दौड़

टोक्यो ओलंपिक में 100 मीटर स्प्रिंट में पदक की उम्मीद जिनसे है, उनमें डोरियन केलेटेला का नाम भी शामिल है. डोरियन का जन्म 1999 में कांगो डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में हुआ था. जहां उन्होंने एक संघर्ष में अपने माता-पिता को खो दिया था. उसके बाद वो अपने चाची के साथ पुर्तगाल में शरण लेकर आ गए थे. यहां उन्होंने रिफ्यूजी सेंटर में काफी समय बिताया.

उन्होंने महज 15 साल की उम्र में दौड़ना शुरू किया और ट्रैक उनका दूसरा घर बन गया था. वे पुर्तगाल में सुरक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां आजादी है और इंसानों का सम्मान किया जाता है.

ओलंपिक डॉट काॅम को दिए गए इंटरव्यू में डोरियन केलेटेला ने कहा है "मैं चाहता हूं कि मेरे करियर के बाद, युवा मेरे नाम को एक प्रेरणा के रूप में याद रखें. जीवन में मेरा मकसद विश्वास, दृढ़ संकल्प, साहस, धैर्य और दृढ़ता के साथ आगे बढ़ना है."
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5. गृहयुद्ध की वजह से देश-परिवार छूटा, कई दिन जंगल में भटके मिसेंगा

नौ साल की उम्र में पोपोल मिसेंगा को कांगो में गृहयुद्ध की वजह से भागना पड़ा, जहां उन्होंने अपना परिवार खो दिया और आठ दिनों के बाद जंगल में अकेले घूमते हुए मिले थे. 2013 में रियो में विश्व जूडो चैंपियनशिप के दौरान उन्होंने ब्राजील में शरण लेने का फैसला किया था. 2014 में मिसेंगा को वहां शरण दी गई.

जूडो का यह प्रतिभावान खिलाड़ी 2001 में जब महज 9 साल का, तब उसकी मां की हत्या कर दी गई थी. इस घटना के बाद वह पास के रेनफॉरेस्ट यानी वर्षावन में भाग गया था जहां लगभग 8 दिनों के बाद वह मिला था. भटकते हुए पाए गए मिसेंगा को विस्थापित बच्चों के सेंटर में रखा गया जहां उसने जूडो को चुना और रियो के बाद टोक्यो ओलंपिक तक का सफर तय किया.

सोशल मीडिया में एक संदेश के दौरान मिसेंगा ने कहा था कि मेरे देश में मेरे पास घर, परिवार या बच्चे नहीं थे. वहां युद्ध ने बहुत अधिक मृत्यु और भ्रम पैदा किया और मुझे लगा कि मैं अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए ब्राजील में रह सकता हूं. मैं दिखाना चाहता हूं कि रिफ्यूजी महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं

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