टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympic) में भारत की छोरियां कमाल कर रही हैं. आज वूमेंस हॉकी (Woman's Hockey) में भी बेटियों ने कमाल का प्रदर्शन करते हुए इतिहास रच दिया है. इस बार भारतीय महिला हॉकी प्लेयर्स ने जिस अंदाज से खेला है उसे देखकर फिल्म चक दे की यादें ताजा हो जाती हैं. यहां भी आपको देश की अलग-अलग हिस्सों से आने वाली खिलाड़ियों की संघर्ष गाथाएं देखने को मिलेगी. आइए जानते हमारी चक दे गर्ल्स के बारे में...
ये हैं रियल चक दे गर्ल्स
मोनिका मलिक : पिता चाहते थे बेटी कुश्ती में हाथ आजमाएं लेकिन बेटी को हॉकी से था प्यार
सोनीपत जिले के गामड़ी गांव की मोनिका मलिक को बचपन से ही पिता तकदीर सिंह ने खेलों के लिए प्रोत्साहित किया था. इसीलिए मोनिका ने 8वीं कक्षा के दौरान ही हॉकी की ओर कदम बढ़ा दिए थे. मोनिका ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके पिता उन्हें कुश्ती में आगे बढ़ाना चाहते थे, लेकिन मेरी हॉकी के प्रति इच्छा को देखते हुए उन्होंने मुझे हॉकी में ही आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया.
मोनिका अर्जेंटीना की प्रसिद्ध खिलाड़ी आइमर को अपनी आदर्श खिलाड़ी मानती हैं. आइमर को खेलते देखकर वे बहुत कुछ सीखती हैं. मोनिक मानती हैं कि आइमर हर प्रकार की परिस्थितियों में टीम को मजबूती प्रदान करती हैं. उनसे भारतीय महिला खिलाड़ियों को तनाव में बेहतरीन प्रदर्शन की कला सीखनी चाहिए. बड़े टूर्नामेंट्स में माइंड गेम भी चलता है. हॉकी कोच राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में मोनिका ने हॉकी की बारीकियां सीखीं हैं. अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर वह तेजी से एक दमदार खिलाड़ी के रूप में उभरीं. स्कूल और कॉलेज स्तर पर उन्होंने काफी उपलब्धियां हासिल की थी. राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भी उन्होंने खूब नाम कमाया है.
लालरेम्सियामी : 10 साल की उम्र में इंटर स्कूल टूर्नामेंट में जीते 500 रुपये, पिता करते थे खेती
मिजोरम के छोटे से गांव से निकली लालरेम्सियामी ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मेरे गांव में हॉकी काफी मशहूर नहीं है. बहुत कम लोग खेलते हैं, लेकिन मेरी हमेशा से हॉकी में रुचि थी. यही वजह है कि मैने थेंजाल जाने का फैसला किया जो मेरे गांव से काफी दूर था. मुझे शुरुआती साल हॉस्टल में बिताने पड़े थे.
युवा स्ट्राइकर लालरेम्सियामी का ये पहला ओलंपिक है. मिजोरम के कोलासिब की रहने वाली 21 वर्षीय इस स्ट्राइकर ने उस समय इतिहास रच दिया था जब वह ओलंपिक में जगह बनाने वाली राज्य की पहली महिला खिलाड़ी बनीं थीं.
अपनी हॉकी यात्रा के बारे में लालरेम्सियामी ने बताया था कि “मुझे अपने घर के पास एक खेल के मैदान में हॉकी से मिलवाया गया था. और जैसे ही मेरे स्कूल हॉकी कोच ने मुझे खेलते हुए देखा, उन्होंने मुझे स्कूल टीम के लिए चुना. जब मैं 10 साल की थी तब मैंने अपना पहला इंटर-स्कूल टूर्नामेंट खेला और 500 रुपये नकद पुरस्कार के साथ सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी का पुरस्कार जीता. इस तरह इस खूबसूरत खेल के साथ मेरा प्यारा सफर शुरू हुआ.
लालरेम्सियामी एक इंटरव्यू में कहा था कि "2016 में दिल्ली आने से पहले मैंने थेनजोल में अपने जीवन के पांच साल प्रशिक्षण में बिताए. जब मैं अपना घर छोड़ रही थी, तो मैंने अपने पिता से कहा कि मैं एक दिन भारत का प्रतिनिधित्व करूंगी और मैं आज यहां हूं. मेरे शुरूआती दिनों में चुनौतियां थीं. मेरे परिवार के लिए आय का एकमात्र स्रोत खेती था. जब मैं एफआईएच महिला श्रृंखला में खेल रही थी, उसी दौरान पिता की मृत्यु हो गई थी, वह बहुत कठिन समय था, बावजूद इसके मैंने टीम के लिए खेलना जारी रखा. मेरे पिता ही थे जिन्होंने मुझे समर्थन दिया और मुझे अपने सपनों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया."
लालरेम्सियामी ने 2017 में बेलारूस के खिलाफ एक टेस्ट सीरीज में पदार्पण किया था, 2018 एशियाई खेलों और एफआईएच महिला सीरीज फाइनल हिरोशिमा 2019 सहित प्रमुख टूर्नामेंट्स में शानदार प्रदर्शन के बाद सीनियर टीम में आ गईं. इसके बाद एफआईएच राइजिंग स्टार ऑफ द ईयर 2019 का पुरस्कार जीतने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं.
गुरजीत कौर : पिता चाहते थे बेटी पढ़ाई करे, लेकिन बोर्डिंग स्कूल से शुरु हुआ हॉकी का सफर
25 साल की गुरजीत कौर किसान परिवार से हैं. अमृतसर की मियादी कला गांव की रहने वाली गुरजीत के परिवार का हॉकी से कोई संबंध नहीं था. गुरजीत के पिता सतनाम सिंह बेटी की पढ़ाई को लेकर काफी गंभीर थे. गुरजीत और उनकी बहन प्रदीप ने शुरुआती शिक्षा गांव के निजी स्कूल से ली और फिर बाद में उनका दाखिला तरनतारन के कैरों गांव में स्थित बोर्डिंग स्कूल में करा दिया गया. गुरजीत का हॉकी का सपना वहीं से शुरू हुआ. बोर्डिंग स्कूल में लड़कियों को हॉकी खेलता देख गुरजीत बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने इसे अपनी जिंदगी बनाने का फैसला कर लिया. गुरजीत और उनकी बहन ने खेल में जल्द ही महारत हासिल कर ली थी जिसके बदौलत उन्हें मुफ्त शिक्षा भी प्राप्त हुई.
गुरजीत को देश के लिए खेलने का पहला मौका 2014 में सीनियर नेशलन कैंप में मिला था. हालांकि वह टीम में अपनी जगह पक्की नहीं कर पाई थी. लेकिन गुरजीत एक मात्र महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने 2017 में भारतीय महिला हॉकी टीम की स्थायी सदस्य बनी. उन्होंने मार्च 2017 में कनाडा में टेस्ट सीरीज भी खेली थी. उन्होंने अप्रैल 2017 में हॉकी वर्ल्ड लीग राउंट 2 और जुलाई 2017 में हॉकी वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल में प्रतिनिधित्व किया था.
टोक्यो में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ हुए मैच के 22वें मिनट में गुरजीत ने पेनल्टी कॉर्नर पर एक महत्वपूर्ण गोल किया था. इसी गोल से भारत की जीत पक्की हुई. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ मिली जीत के बाद गुरजीत ने कहा कि यह वर्षों की मेहनत का परिणाम है. हम लंबे समय से कड़ी मेहनत कर रहे थे, लेकिन यह आज काम कर गई. पूरी टीम ने इसके लिए कड़ी मशक्कत की है. यह हमारे लिए गर्व का दिन है, क्योंकि हम पहली बार सेमीफाइनल में पहुंचे हैं. हम अब अगले मैच की तैयारी के लिए जुटेंगे. हमें सभी से सपोर्ट मिल रहा है.
निक्की प्रधान : चोट ने किया परेशान, बांस से करती थी प्रैक्टिस
निक्की प्रधान भारत के लिए हॉकी खेलने वाली झारखंड की छठी खिलाड़ी हैं. अपने करियर की शुरुआत के बाद से ही वो चोट की वजह से खासा परेशान थी. हालांकि अपने सपने और जिद्द के आगे उन्होंने हर मुश्किल का सामना किया. उन्होंने अपना इंटरनेशनल करियर 2015 में ही शुरू किया था, लेकिन 2016 में दक्षिण अफ्रीका के दौरे में चुने जाने के बाद उन्होंने टीम में अपनी जगह पक्की कर ली. इसके बाद वो भारत के लिए ओलंपिक में खेलने वाली झारखंड की पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बनी. उन्होंने रियो ओलंपिक में हिस्सा लिया था. इसके अलावा एशिया कप 2017 व 2018, हॉकी विश्व लीग, महिला विश्व कप जैसे बड़े टूर्नामेंटों में भारत की प्रतिनिधित्व किया है.
निक्की के कोच दशरथ के मुताबिक शुरू में उनके पास हॉकी की स्टिक नहीं थी. इस दौरान वो बांस की स्टिक और बांस की गेंद बनाकर ट्रेनिंग करती थी.
सलीमा टेटे : पिता खुद रहे हैं हाॅकी प्लेयर, बेटी को हर साल प्रतियोगिता में ले जाते थे
सलीमा टेटे झारखंड के सिमडेगा जिला के बड़की छापर गांव की रहने वाली हैं. इनके पिता का सुलक्षण टेटे भी अच्छे हॉकी खिलाड़ी रहे हैं. सुलक्षण गांव की टीम से सलीमा को सिमडेगा जिला के लठ्ठाखम्हन हॉकी प्रतियोगिता में साल 2011 से लगातार खिलवाने ले जाते थे. यहीं पर उन्हें बेस्ट खिलाड़ी का भी पुरस्कार मिला. उसी प्रतियोगिता में सिमडेगा के मनोज कोनबेगी की नजर सलीमा पर गई और उनके पिता को सेंटर के लिए ट्रायल देने के लिए कहा.
नवंबर, 2013 में सलीमा का चयन आवासीय हॉकी सेंटर, सिमडेगा के लिए हो गया और उसी साल दिसंबर में रांची में आयोजित एसजीएफआई नेशनल हॉकी प्रतियोगिता के लिए झारखंड टीम के लिए उन्हें चुना गया. साल 2014 में हॉकी इंडिया द्वारा पुणे में आयोजित राष्ट्रीय सब जूनियर महिला प्रतियोगिता में पहली बार सलीमा झारखंड टीम से चुनी गईं और तब टीम ने रजत पदक प्राप्त किया था.
2016 नवंबर में एक प्रतियोगिता के लिए सलीमा का चयन सीनियर महिला टीम के लिए हुआ और वे ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गईं. उसके बाद से वो लगातार जूनियर भारतीय महिला टीम से खेलती रही. फिर 2018 यूथ ओलंपिक में सलीमा को जूनियर भारतीय महिला हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया और टीम ने रजत पदक जीता. 2019 में उनका चयन सीनियर भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए हुआ फिर ओलिंपिक के लिए चुनी गईं.
शर्मिला देवी : शरारती पोती को दादा ने सबसे पहले हॉकी के लिए प्रोत्साहित किया
शर्मिला देवी भारतीय टीम में फॉरवर्ड प्लेयर है, वे हिसार के कैमरी गांव की रहने वाली हैं. शर्मिला ने एक इंटरव्यू में बताया था कि उनके दादा ने नेशनल लेवल पर हॉकी खेली थी. मैं बचपन में काफी शरारत करती थी. लेकिन दादा मुझसे काफी प्यार करते थे, उन्होंने ही मुझे हॉकी से जाेड़ा था. मैं 2012 में चंडीगढ़ अकादमी में सलेक्ट हुई इसके बाद नेशनल लेवल पर खेलने लगी थी.
भारत की पूर्व इंटरनेशनल हॉकी प्लेयर प्रीतम रानी सिवाच ने शर्मिला को तराशने का काम किया है. खुद शर्मिला कहती है कि रानी से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला है. उनसे आत्मविश्वास भी काफी मिला है. मैंने यह सीखा कि जब आप मैच के दौरान कठिन दौर से गुजर रहे होते हैं तो कैसे वापसी करें.
शर्मिला ने 2019 टोक्यो टेस्ट इवेंट के दौरान सीनियर श्रेणी में डेब्यू किया है. 19 वर्ष की आयु में 9 इंटरनेशल कैप हासिल करने वाली शर्मिला टोक्यो ओलंपिक से पहले काफी उत्साहित थीं, उन्हें पूरा विश्वास था कि उनका चयन टीम में हो जाएगा.
नवजोत कौर : पेंटिंग और संगीत का शौक, दुनिया की बेस्ट फिनिशर बनने का है लक्ष्य
हरियाणा के कुरुक्षेत्र की रहने वाली नवजोत कौर अपनी सफलत का श्रेय अपने पिता को देती हैं. नवजोत कहती है कि अगर मुझे अपने माता-पिता खासतौर पर पिता का सहयोग नहीं मिलता तो आज मैं जहां हूं, वहां नहीं पहुंच पाती. मेरे पिता ने मुझे स्कूल में हॉकी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया. उनका शुरू से सपना था कि उनका एक बच्चा खिलाड़ी बने और मुझे बहुत खुशी है कि मैं उनका सपना पूरा करने में सफल रही.
नवजोत कौर को संगीत सुनना, शॉपिंग करना, टीवी देखना और पेंटिंग करना पसंद है. जसजीत कौर और रानी रामपाल को अपनी प्रेरणा मानने वाली नवजोत की पसंदीदा खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया की जेमी ड्वायर हैं, जो एक हॉकी प्लेयर हैं.
2012 में न्यूजीलैंड के खिलाफ खेली गई सीरीज में नवजोत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कॅरियर की शुरुआत की थी. इससे पहले, उन्होंने जूनियर एशिया कप और नीदरलैंड्स के खिलाफ अंडर-21 टूर्नामेंट में अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया था.
नवजोत टीम की बेस्ट खिलाड़ियों में से एक हैं. उनकी प्रतिभा को देखते हुए ही हाल ही में उन्हें अर्जुन पुरस्कार देने की घोषणा की गई है. वे कहती है कि मैं अपनी तकनीक पर काम जारी रखना चाहती हूं और उम्मीद है कि एक दिन मैं दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिनिशर बनूंगी. उन्हें पूरा विश्वास है कि टीम ओलंपिक का पदक जरूर जीतेगी.
दीप ग्रेस एक्का : बनना चाहती थीं गोलकीपर, लेकिन अब हैं डिफेंडर
दीप ग्रेस एक्का का हॉकी में चयन उनकी कद-काठी और शारीरिक क्षमताओं के आधार पर किया था. 2006 में सुंदरगढ़ स्पोर्ट्स हॉस्टल उन्होंने ज्वाॅइन किया था, यहीं पर उनके कोच तेज कुमार ने उन्हें हॉकी के गुर सिखाए थे. एक्का का जन्म उड़ीसा में एक साधारण से आदिवासी परिवार में हुआ था. उनके पिता, चाचा और बड़े भाई हॉकी के स्थानीय खिलाड़ी हैं.
शुरूआती दौर में एक्का गोलकीपर बनना चाहती थीं. गोलकीपिंग करते समय कई बार उन्हें बॉल लग जाती थी, लेकिन वह अपना दर्द छुपा लेती थीं. ताकि किसी को पता न चले, लेकिन उनके भाई और मामा जो गोलकीपर रह चुके थे तो उन्होंने दीप को गोलकीपिंग करने की बजाय डिफेंडर के तौर पर खेलने के लए प्रेरित किया.
साई में चयन के बाद 13 साल की उम्र में उन्होंने स्टेट लेवल पर खेलना शुरू कर दिया। 16 साल की उम्र में वह सोनीपत में सीनियर नेशनल में खेलीं. इस ओलंपिक में हिस्सा लेते ही वह दो ओलंपिक में भाग लेने वाली ओडिशा की पहली महिला खिलाड़ी बन गई हैं.
2011 में बैंकाॅक में अंडर -18 एशिया कप में भारत के लिए उन्होंने डेब्यू किया था. उन्होंने जर्मनी में खेले गए ऐतिहासिक एफआईएच जूनियर महिला हॉकी विश्व कप 2013 में देश को पहला कांस्य पदक जिताने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
टोक्यो में पदक की उम्मीद के बारे में ग्रेस कहती हैं कि 'जब हम ओलंपिक में भाग ले रहे हैं, तो हम निश्चित रूप से पदक जीतना चाहते हैं. हम प्रतिद्वंदी की ताकत के हिसाब से हर मैच को एक नई चुनौती की तहर ही खेलेगें. टीम का हर सदस्य टोक्यो में अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए दृढ़ है.'
वंदना कटारिया : सबसे बच कर टहनियों से करती थीं अभ्यास, अब लगाई हैट्रिक
वंदना कटारिया मूलत: हरिद्वार के रोशनाबाद की रहने वाली हैं. बचपन में वंदना को उनके आस-पड़ोस के लोगों ने कहा था कि एक लड़की के लिए खेल ठीक नहीं है. रोशनाबाद के बुजुर्गों की नजर में लड़की का खेलना अनुचित था. ऐसे में वंदना चुपके से सबसे बचते-बचाते पेड़ों की शाखाओं की मदद से खेलती थीं और अपने हॉकी मूव्स की प्रैक्टिस करती थी.
वंदना हॉकी से पहले खो-खो खेलती थीं. 2002 में खो-खो की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में वंदना ने शानदार खेल दिखाया था. 11 वर्ष की वंदना की एनर्जी देखकर कोच कृष्ण कुमार ने उन्हें हॉकी में उतारा था. वंदना ने हॉकी की शुरुआती ट्रेनिंग मेरठ के एनएएस कॉलेज स्थित हॉकी मैदान पर कोच प्रदीप चिन्योटी के मार्गदर्शन में ली थी. वंदना ने मेरठ में 2004 से 2006 तक प्रशिक्षण लिया और जिले से लेकर प्रदेश स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया. 2007 की शुरुआत में वंदना का चयन लखनऊ स्थित हॉकी हॉस्टल में हो गया था.
वंदना को 2007 में भारतीय जूनियर टीम में चुना गया था. वहीं 2010 में इनको सीनियर राष्ट्रीय टीम में चुना गया. वंदना ने 2013 में जापान में हुई तीसरी एशियन चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था. 2014 में कोरिया में हुए 17वें एशियन गेम्स में वे कांस्य पदक विजेता रहीं. 2016 में सिंगापुर में हुई चौथी एशियन चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक विजेता बनीं. 2018 में जकार्ता में हुए एशियाई खेल में रजत पदक विजेता थीं जबकि 2018 में गोल्ड कोस्ट में हुए 11वें राष्ट्रमंडल खेल में चौथे स्थान पर रहीं.
वंदना ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ हैट्रिक लगाकर इतिहास रच दिया है. वे पहली भारतीय महिला हैं जिसने यह उपलब्धि हासिल की है. वंदना ने मुकाबले में चौथे, 17वें, 49वें मिनट पर गोल दागा. मई में वंदना के पिता का निधन हो गया था, उन्हें उस समय बहुत दुख हुआ था, लेकिन अब वंदना चाहती है कि वह ओलंपिक का मेडल जीतकर अपने पिता को श्रद्धांजलि दें. वंदना के पिता की इच्छा थी कि बेटी ओलंपिक में स्वर्ण पदक विजेता टीम का हिस्सा बने.
निशा वारसी : पिता टेलरिंग करते थे, मां को फैक्ट्री में काम करना पड़ा
सोनीपत के सोहराव अहमद की बेटी निशा वारसी ने अपने संघर्ष और जज्बे से कामयाबी की इबारत लिखी है. एक दौर में निशा के पिता टेलरिंग का काम करते थे, लेकिन लकवे की मार ने उनके हाथों से यह काम भी छीन लिया. 2016 में सोहराव को पैरालिसिस हुआ था जिसकी वजह से वे बिस्तर पर आ गए. उसके बाद आर्थिक तंगी की वजह से निशा की मां मेहरून फाॅम बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरी करने लगीं.
निशा को हॉकी के मैदान में लाने वाली उनकी की टीम साथी नेहा गोयल थीं. निशा ने 2019 में हिरोशिमा में FIH फाइनल सीरीज में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पदार्पण किया और तब से भारत के लिए नौ कैप अर्जित कर चुकी हैं. नेहा गोयल टीम में मिड फील्डर के रूप में पहली बार ओलंपिक में खेल रही हैं.
निशा कहती हैं कि वह ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन कर अपने पिता को बेहतर इलाज और एक घर देना चाहती हैं. वे कहती हैं कि “जीवन आसान नहीं था. मैं हमेशा खेल के बारे में बहुत भावुक थी, हम एक-दूसरे से जुड़े हुए थे. मेरे माता-पिता मेरे खेल कॅरियर में निवेश करने का जोखिम नहीं उठा सकते थे. इसलिए मैंने हॉकी को चुना, क्योंकि हमें उपकरणों पर खर्च नहीं करना पड़ता था.”
सविता पूनिया : टीम इंडिया की दीवार,अब बुलाया जा रहा है Save-ita Punia
सविता पूनिया हरियाणा के सिरसा जिले के जोधका गांव की रहने वाली हैं. छठवीं कक्षा में हॉकी स्टिक को सविता ने पकड़ा था, उस समय हॉकी स्टिक उनके कंधे तक आती थी. 2004 में उन्होंने सिरसा के महाराजा अग्रसेन स्कूल में कोचिंग शुरू की थी, स्कूल में खेल गतिविधियों में सविता की फुर्ती देखकर टीचर दीपचंद ने उनके पिता महेंद्र पूनिया से हॉकी नर्सरी में नाम दर्ज करवाने की बात कही थी. उस समय अभिभावकों का बेटियों को खेलकूद के क्षेत्र में भेजने का रुझान नहीं था, लेकिन पिता ने हॉकी की कोचिंग दिलवाने पर सहमति जताई. सविता के पिता ने कहते हैं कि टाइम मिलने पर सविता लड़कों के साथ हॉकी खेलने का अभ्यास करती थी.
31 वर्षीय इस खिलाड़ी से पार पाना विरोधी टीम के लिए असंभव साबित हुआ है. वह भारत को ऐतिहासिक सेमीफाइनल में पहुंचाने वाली एक अहम खिलाड़ी रही हैं. उन्होंने सात पेनाल्टी को विफल किया है. ऑस्ट्रेलिया के उच्चायुक्त बैरी ओ फैरेल ने टीम के डिफेंस की तारीफ की और गोलकीपर सविता पूनिया को 'ग्रेट वाल ऑफ इंडिया' बताया है.
पूनिया को उनके दादा महिन्दर सिंह ने हॉकी के लिए प्रेरित किया था. शुरुआत में पूनिया हॉकी छोड़ना चाहती थीं लेकिन वे इसमें जुटी रहीं. 2007 में उन्होंने सीनियर कैंप में जगह बनाई थी. लेकिन अपना पहला इंटरनेशनल मैच 2011 में खेला. वर्ष 2018 में सविता पूनिया अर्जुन अवार्ड से भी सम्मानित हो चुकी हैं
सुशीला चानू : फुटबॉल मैच देखकर खेल में आईं
सुशीला चानू मणिपुर के इंफाल से आती हैं. 1999 में मणिपुर में आयोजित राष्ट्रीय खेलों के दौरान चानू एक फुटबॉल मैच देखने के लिए अपने पिता के साथ गईं जहां से उनकी खेलों के प्रति रूचि बढ़ गई और उन्होंने महज 11 साल की छोटी सी उम्र से ही हॉकी खेलनी शुरू कर दी. कुछ साल बाद वे मध्य प्रदेश में ग्वालियर हॉकी अकादमी में चली गईं. सुशीला चानू पूर्व भारतीय हॉकी टीम की कप्तान भी रह चुकी हैं और उनके नाम कुल 150 अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लेने का खिताब है.
ग्वालियर हॉकी अकादमी में उन्हाेंने जमकर मेहनत की और महज 5 साल के अंदर ही वह अंतर्राष्ट्रीय लेवल पर खेलने लगीं. 2008 में उन्हें जूनियर एशिया कप में खेलने का मौका मिला और टीम ने ब्रांज मेडल जीता. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. जूनियर लेवल पर उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 2013 में मिली, जब उन्होंने जर्मनी में आयोजित जूनियर विश्व कप में अपनी कप्तानी में टीम को कांस्य पदक जिताया. रियो ओलंपिक में भी वह टीम की कप्तान थीं.
टोक्यो ओलंपिक के बारे में उनका कहना है कि " यह हम सभी के लिए एक बहुत बड़ा टूर्नामेंट है. इसके लिए हमने और हमारी टीम ने खूब मेहनत की है. ताकि हम उस लक्ष्य को पा सके जिसे टीम ने निर्धारित किया है."
नेहा गोयल : अच्छे कपड़े-जूतों के लिए हॉकी खेलना शुरू किया, मां थी फैक्ट्री वर्कर
हरियाणा की नेहा गोयल पहली बार हॉकी ओलंपिक टीम का हिस्सा बनी हैं. वो एक ऐसे माहौल में बड़ी हुई जहाँ ग़रीबी थी, पिता को शराब की लत थी पर आज वो ओलंपिक का अपना सपना पूरा कर रही हैं. कक्षा 6वीं से हॉकी खेलने वाली नेहा की पारिवारिक स्थिति ठीक नहीं थी, नेहा ने उस वक्त अच्छे कपड़े-जूतों के लिए हॉकी खेलना शुरू किया था.
नेहा ने एक इंटरव्यू में कहती हैं कि उनके घर के आसपास रहने वाले लोगों ने मां को बहुत बार हिदायत दी कि 'बेटी को यूं बाहर मत निकालों, कहीं कोई उठाकर कभी ले जाए तो? 'मां ने समाज के तानों से ऊपर अपनी बेटी और उसके खेलने के जज्बे को रखा.
नेहा के घर के पास ही हॉकी कोच प्रीतम सिवाच की अकादमी थी. सिवाच ने कई बार नेहा को ग्राउंड के आसपास घूमते देखा था. एक बार उन्होंने नेहा को रस्सी कूदने देखा और उसका स्टेमिना देकर वह हैरान थी. उन्होंने नेहा से कहा कि वह दो समय का खाना उन्हें देंगी अगर वह हॉकी खेलने को तैयार हो जाएं. नेहा उस समय अपनी बहनों और मां के साथ साइकिल टायर बनाने की कंपनी में मजदूरी का काम करती थी. इसी कमाई से घर चलता था. नेहा की मां मान गई और भारत को एक युवा स्टार मिल गया.
नवनीत कौर : पांच साल की उम्र से ही थाम ली थी हॉकी स्टिक
नवनीत शाहाबाद मारकंडा नाम के एक छोटे से शहर से हैं जो हरियाणा में है. उन्होंने पांच साल की उम्र से ही हॉकी स्टिक थाम ली थी. नवनीत को इसलिए हॉकी खेलने का मन किया, क्योंकि उनका स्कूल शाहाबाद हॉकी अकादमी के बगल में था. बचपन से हॉकी देखकर ही वो इंस्पायर होती थीं और फिर 2005 में उन्होंने हॉकी अकादमी ज्वाइन कर ली. उनकी टीम की साथी. रानी रामपाल और नवजोत कौर भी यहीं शाहाबाद हॉकी अकादमी में ट्रेनिंग लेती थीं.
2014 में सीनियर इंडिया टीम के लिए नवजोत ने पदार्पण किया था. 2018 महिला विश्व कप, एशिया कप, एशियाई खेलों में जबरदस्त प्रदर्शन के बाद प्रशंसकों ने इनके प्रयासों की खूब सराहना की है. वे कहती हैं कि मुझे ऐसी टीम का हिस्सा बनने पर गर्व महसूस होता है. यह टीम एक परिवार की तरह है. रानी और सविता हमारे साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करती रहती हैं कि हम एक टीम के रूप में एक साथ कैसे सुधार कर सकते हैं.
हॉकी इंडिया द्वारा जारी बयान में नवनीत ने कहा है कि “ओलंपिक में खेलना मेरा बचपन का सपना था और मैं इसे अद्भुत बनाने में कोई कसर नहीं छोडूंगी. अनुभव के साथ जिम्मेदारी आती है.
उदिता दुहन : हैंडबॉल छोड़कर हॉकी में आईं, अब दुनिया में पहचान बनाई
उदिता दुहन हॉकी टीम में मिड फील्डर प्लेयर हैं. भिवानी की रहने वाली उदिता पहले हैंडबॉल खेलती थीं, लेकिन एक बार उनके कोच तीन दिनों तक नहीं आए ऐसे में उन्होंने हैंडबॉल को छोड़ने का फैसला लिया और वैकल्पिक खेल के रूप में हॉकी को चुना.
उदिता के पिता एएसआई जसबीर सिंह खेल से जुड़े हुए थे. वे खेल मैदान में जाते तो अपनी बेटी को साथ लेकर जाते थे वहीं से खेल के प्रति उदिता आकर्षित हुईं.
उदिता हॉकी खिलाड़ी रानी रामपाल और वंदना कटारिया को अपना आदर्श मानती हैं. वह कहती हैं उन्होंने इन अनुभवी खिलाड़ियों से काफी कुछ सीखा है. उन दोनों को काफी अनुभव है और उनके बीच बहुत अच्छा तालमेल है. उन्होंने हमेशा मेरा सपोर्ट किया है.
रानी रामपाल : गरीबी और तानों से लड़कर बनीं कप्तान
हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में स्थित शाहाबाद मारकंडा से ताल्लुक रखने वाली रानी रामपाल ने छह साल की उम्र में हॉकी खेलना शुरू किया था. आज वे भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान हैं और उनकी कप्तानी में टीम अपनी एक वैश्विक पहचान बना रही है. हरियाणा के एक मजदूर की यह दृढ संकल्पी बेटी, हर साल अपने बेहतरीन खेल से देश के लोगों का दिल जीत रही है. रानी बहुत ही साधारण परिवार से आती हैं. घर चलाने के लिए उनके पिता तांगा चलाते थे और ईंटें बेचते थे.
एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि “मैं ऐसी जगह पर पली-बढ़ी हूं, जहां महिलाओं और लड़कियों को घर की चारदीवारी में रखा जाता है. इसलिए जब मैंने हॉकी खेलने की इच्छा ज़ाहिर की, तो मेरे माता-पिता और रिश्तेदारों ने साथ नहीं दिया. मेरे माता-पिता को लगता था कि स्पोर्ट्स में कॅरियर नहीं बन सकता और लड़कियों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं. साथ ही, हमारे रिश्तेदार भी मेरे पिता को ताने देते थे, ‘ये हॉकी खेल कर क्या करेगी? बस छोटी-छोटी स्कर्ट पहन कर मैदान में दौड़ेगी और घर की इज्ज़त ख़राब करेगी. उस पूरे मुश्किल समय में अगर कोई मेरे साथ खड़ा रहा, तो वह थे कोच सरदार बलदेव सिंह.”
रानी ने शाहबाद हॉकी एकेडमी में दाखिला लिया. उस वक्त उनके कोच थे द्रोणाचार्य अवॉर्ड पाने वाले बलदेव सिंह. उन्होंने पहले तो एडमिशन देने से मना कर दिया, लेकिन जब रानी का खेल देखा तो खुश हो गए और दाखिला दे दिया. इसके बाद रानी ने जी तोड़ मेहनत की. जब वो 15 साल की थीं, तभी भारतीय टीम में खेलने का मौका मिल गया. जून, 2009 में उन्होंने रूस में आयोजित चैम्पियन्स चैलेंज टूर्नामेंट खेला. फाइनल मुकाबले में चार गोल किए और इंडिया को जीत दिलाई. उन्हें ‘द टॉप गोल स्कोरर’ और ‘द यंगेस्ट प्लेयर’ घोषित किया गया.
रानी के खाते में कई उपलब्धियां, पुरस्कार, सम्मान और जीत है. उनके नेतृत्व में टीम ने इतिहास भी रच दिया है. अब उनसे टोक्यो में हॉकी के पदक की उम्मीद है.
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