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मेड, मजदूर, चाय वाला...लॉकडाउन में बदहाल चैंपियनों की 11 कहानियां

वर्ल्ड चैंपियन, गोल्ड मेडल लाने वालों की हालत देख आंखों से आंसू निकल आएंगे

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हरियाणा की सुनीता (Sunita) लोगों के जूठे बर्तन धोती हैं. खाना बनाती हैं. सुनीता घरेलू कामगार बन गई हैं. ये वही सुनीता हैं जिन्होंने वर्ल्ड चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीता है. लेकिन आज उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या आ गई है. सुनीता अकेली नहीं है. देश में खिलाड़ियों की हालत पहले से ही खराब थी, महामारी ने उन्हें चाय बेचने, समोसा तलने, बढ़ई का काम करने और ईंट भट्टे पर काम करने को मजबूर कर दिया है.

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वेटलिफ्टर सुनीता पर "गरीबी" का भार

वर्ल्ड चैंपियन, गोल्ड मेडल लाने वालों की हालत देख आंखों से आंसू निकल आएंगे

वेटलिफ्टर सुनीता देवी

(फोटो:Twitter/@IAaravOfficial)

कुछ दिनों से मीडिया और न्यूज चैनलों पर सुनीता की कहानी सुर्खियों पर है. स्ट्रेंथ लिफ्टिंग में कई पदक जीतने वाली हरियाणा, रोहतक के सीसर खास गांव की सुनीता देवी घर-घर काम करने को लेकर मजबूर हैं. उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ रहा है. गरीबी के कारण सुनीता को कई बार रोटी और मिर्ची खाकर गुजारा करना पड़ता है.

सुनीता के पिता मजदूर हैं, मां, दूसरों के घरों में काम करती हैं. जनसत्ता की एक रिपोर्ट में सुनीता ने कहा कि मेरे पिता मजदूर हैं और मां घरेलू सहायिका के तौर पर काम करती हैं. जब भी उन्हें स्थानीय कार्यक्रमों या समारोहों में खाना पकाने का काम मिलता है, तो मैं मां की भी मदद करती हूं. मैं घर का काम भी करती हूं और जीवन यापन के लिए दूसरों के घर जाकर उनके यहां बुजुर्गों की सेवा भी करती हूं.’

सुनीता खुद को फिट रखने के लिए पेड़ों की शाखाओं और ईंटों से प्रैक्टिस भी करती हैं.

सुनीता की मां जमुना देवी कहती हैं कि ‘सुनीता को 2020 में वर्ल्ड स्ट्रेंथ लिफ्टिंग चैंपियनशिप में बैंकॉक भेजने के लिए एक निजी साहूकार से भारी ब्याज पर 1.5 लाख रुपए का कर्ज लेना पड़ा था. हम उसी कर्ज को चुकाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं.’

बता दें कि सुनीता ने वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता है, इसके अलावा उन्होंने छत्तीसगढ़ में आयोजित नेशनल स्ट्रेंथ लिफ्टिंग चैंपियनशिप-2019 में गोल्ड मेडल और पश्चिम बंगाल में नेशनल स्ट्रेंथ लिफ्टिंग चैंपियनशिप-2021 में सिल्वर मेडल भी हासिल किया है. स्थानीय विधायक से लेकर केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह तक ने सुनीता की उपलब्धियों को सराहा और मदद का वायदा किया, लेकिन आज तक कोई मदद नहीं मिली है.

सोशल मीडिया में भी सुनीता की मदद के लिए अपील की जा रही है. यूजर्स सोनू सूद और केंद्रीय खेल मंत्री को भी अपने ट्वीट में टैग कर रहे हैं.

सुनीता की ये हालत क्यों हुई इसका एक उदाहरण सुनीता का ही केस है. एक निजी चैनल ने अपने प्रोग्राम में सुनीत और खेल मंत्री किरण रिजिजू का आमना सामना कराया. उन्होंने अपनी ढेर सारी मजबूरियां गिनाईं और सुनीता को सलाह दी कि कोई ऐसा गेम खेलो जो ओलंपिक में हो या एशियाड में हो. मंत्री जी ने कहा कि जो खेल ओलंपिक या एशियाड में नहीं आते उनकी मदद केंद्र सरकार नहीं कर सकती है, ये खेल राज्य सरकारों के तहत आते हैं, तो उन्हें मदद करनी चाहिए लेकिन मैं फिर भी मदद की कोशिश करूंगा, आप मुझसे आकर मिलिए.

जरा सोचिए जिस पाई-पाई को तरस रही हो उसे दिल्ली आने के लिए कहा गया है. क्या सरकार (चाहे राज्य सरकार ही क्यों न हो) को उसतक नहीं पहुंचना चाहिए. ये कहकर कि तुम जिसमें वर्ल्ड चैंपियन बन चुकी हो उसे छोड़कर कोई और खेल खेलो, उसका मनोबल नहीं तोड़ा गया.

यही है असल समस्या-आज इस देश में खिलाड़ियों से बड़े नियम और अफसर और संघ हो चुके हैं.

कुश्ती के मैदान में नहीं, गन्ने के खेत में पसीना बहा रही संजना

वर्ल्ड चैंपियन, गोल्ड मेडल लाने वालों की हालत देख आंखों से आंसू निकल आएंगे

गन्ने केखेत में काम करती संजना

(सौजन्य: thefocusindia)

राष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता में चार बार पदक हासिल कर चुकीं महाराष्ट्र के सांगली की महिला पहलवान संजना बागडी अब गन्ने के खेत में काम रही हैं. सांगली में संजना, दंगल गर्ल के नाम से मशहूर हैं.

कोविड महामारी के कारण देशभर में कुश्ती की स्पर्धाएं रद्द हुई हैं. जिसके चलते खिलाड़ियों की आय रुक गई है. संजना के पिता मछली-पालन कर परिवार का खर्च चलाते हैं. वहीं 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली संजना रेसलिंग स्कॉलरशिप से खुद का खर्च निकालती हैं. जो भी स्कॉलरशिप उन्हें मिलती है, उससे पूरा खर्च नहीं चल पाता, ऐसे में संजना ने खेतों में काम करना शुरू कर दिया. वहां से संजना को 300 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी मिलती है. इससे वे खुद और कुछ हद तक घर का खर्च भी निकाल लेती हैं.

आशा को हो रही 'निराशा'

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खेतों में काम करती इंटरनेशनल और नेशनल फुटबॉलर

प्रभात खबर

इंटरनेशनल फुटबाॅल टूर्नामेंट में 5 मैच खेल चुकी झारखंड की अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉलर आशा कुमारी को फुटबॉल ग्राउंड की जगह खेतों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा. 8 राष्ट्रीय मैचों और कई घरेलू प्रतियोगिताओं में प्रतिनिधित्व करने वाली आशा को कोरोना काल में आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा. आशा कुमारी धनबाद जिले के लक्ष्मीपुर गांव की रहने वाली है.

परिवार का भरण-पोषण करने के लिए आशा का बड़ा भाई विनोद महतो मजदूरी करता है, वहीं मां पुटकी देवी, गोमो बाजार में सब्जी बेचती हैं. गर्मी के दिनों में सिंचाई का साधन नहीं होने के चलते यह परिवार दूसरों की जमीन पर सब्जी उगाने को मजबूर होता है.

आशा ने एक इंटरव्यू में कहा कि मां से अकेले खेती और सब्जी बेचने का काम नहीं हो पाता. जिसके चलते मैं और मेरी छोटी बहन ललिता कुमारी (राष्ट्रीय फुटबाॅलर) मजबूरी में खेतों में कुदाल चलाने तक का काम करती हैं. इससे मां को सहयोग करने का मौका मिल रहा है और शरीर की फिटनेस और स्टेमिना भी बरकरार है. हम लोगों के पास फिटनेस और स्टेमिना बनाए रखने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है. हम पेट पालने के लिए मजदूरी का काम करते हैं.

आशा ने बताया कि पिछले साल लाॅकडाउन के दौरान सरकार की ओर से 15 हजार रुपये की आर्थिक मदद मिली थी. लेकिन इससे पूरी जिंदगी नहीं गुजारी जा सकती. सरकार को नेशनल और इंटरनेशनल प्लेयर्स को सरकारी नौकरी और सम्मानपूर्वक जिंदगी देनी चाहिए. मैं देश के लिए खेलना चाहती हूं, लेकिन परिवार की माली हालत बाधा बन रही है. सरकारी मदद के साथ-साथ कुछ और सहयोगियों ने आशा की मदद के लिए हाथ बढ़ाया है.

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फुटबॉलर संगीता को ईंट भट्‌ठे में दिखने लगा 'गोल'

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ईंट भट्‌ठे पर काम करती संगीता सोरेन

ट्विटर

धनबाद के बांसमुड़ी की जूनियर इंटरनेशनल फुटबॉलर संगीता सोरेन को तंगहाली में ईंट-भट्ठे में मजदूरी करनी पड़ी और पत्तल बनाने तक काम करना पड़ा. लॉकडाउन की वजह से संगीता के भाई को काम मिलना बंद हो गया था. पिता अस्वस्थ थे. ऐसी स्थिति में संगीता को मां के साथ काम करने ईंट भट्ठे में पहुंचना पड़ा. बाद में जब मीडिया में संगीता की तंगहाली की खबरें सामने आईं, तब राज्य सरकार ने उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाया.

संगीता ने जूनियर फुटबॉल में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए 2018-19 में भारत की अंडर-17 फुटबॉल टीम में अपनी जगह बनाई थी. उन्होंने भूटान और थाइलैंड में खेले गए टूर्नामेंट में अपने प्रदर्शन से तारीफ भी हासिल की थी. संगीता कहती हैं कि ‘सरकार कुछ ऐसा इंतजाम करे जिससे किसी खिलाड़ी को ऐसी मुश्किलों का सामना न करना पड़े.'

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कराटे चैंपियन से चाय की दुकान तक का सफर

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मथुरा में चाय बेचता इंटरनेशन प्लेयर

sentinelassam.com

मथुरा के हरिओम ने 28 साल की उम्र में 60 से ज्यादा पदक जीते हैं और कराटे में वर्ल्ड चैंपियन रहे हैं. लेकिन इस समय आर्थिक बदहाली के कारण यह प्रतिभावान प्लेयर चाय बेचने को मजबूर है. आर्थिक मदद के लिए कई बार सरकार से गुहार लगाने वाले हरिओम को अब तक सिर्फ आश्वासन ही मिला है. उनका कहना है कि सरकार की अनदेखी के कारण वह आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं और सड़क पर चाय बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं.

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इंटरनेशनल कराटे प्लेयर धान रोपती दिखी

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खेत में धान रोपती इंटरनेशनल कराते प्लेयर

ट्विटर

पंजाब के मनासा की इंटरनेशनल कराटे प्लेयर हरदीप कौर फिलहाल बुरे दौर से गुजर रही हैं. वह धान के खेतों में काम कर रही हैं और प्रतिदिन बतौर मजदूरी उन्हें 300 रुपये मिलते हैं. 23 वर्षीय हरदीप ने नेशनल और इंटरनेशल चैंपियनशिप में 20 से ज्यादा पदक जीते हैं.

‘इंडिया टुडे' से बातचीत में हरदीप ने कहा कि हम एक गरीब दलित परिवार से ताल्लुक रखते हैं. हमारे पास जमीन नहीं है और मजदूरों के रूप में काम करना पड़ता है. मैं धान के खेतों में काम करके 300 से 350 रुपये के बीच कमा लेती हूं. मुझे अपने परिवार को सपोर्ट करने के लिए खेतों में काम करना पड़ता है.' हरदीप कौर के माता-पिता भी खेत में काम करते हैं.

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स्वर्ण पदक जीतने के बाद हरदीप

ट्विटर

हरदीप कौर ने कहा 2018 में जब मलेशिया में स्वर्ण पदक जीता था, तो मुझे सरकारी नौकरी देने का वादा पंजाब के खेल मंत्री राणा गुरमीत सोढ़ी ने किया था. लेकिन तीन साल बीत चुके हैं और वादा अधूरा है.

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रेहड़ी, चाय और समोसे

पावरलिफ्टिंग में नेशनल और इंटरनेशनल पदक जीतने वाले शत्रुघन लाल की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है. परिवार का पेट पालने के लिए चाट का ठेला भी लगाया, लेकिन धंधा कमजोर होने की वजह से कुछ महीने में ही काम बंद करना पड़ा.

बाद में खिलाड़ियों को घर-घर जाकर पर्सनल ट्रेनिंग देनी शुरू की, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में यह काम भी ठप हो गया. शत्रुघन की जितनी भी जमापूंजी थी वो भी खत्म होने को है. वे कहते हैं कि अब बस उम्मीद है कि जल्द ही इस बीमारी से निजात मिले ताकि मेरे जैसे प्रशिक्षक भुखमरी से बच जाएं.

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सनीश मणि मिश्रा

सनीश मणि मिश्रा के ट्विटर अकाउंट से

इंटरनेशनल सॉफ्ट टेनिस प्लेयर और उत्तरप्रदेश, गोंडा के निवासी सनीश मणि मिश्रा को 2017 में लक्ष्मण अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था, वह लंबे समय तक खेल विभाग में अंशकालिक प्रशिक्षक भी रह चुके हैं, लेकिन कोरोना में उनकी आर्थिक स्थिति बदतर हो गई. उन्हें घर चलाने के लिए भाड़े पर कार चलानी पड़ी. सनीश के मुताबिक जहां तक अंशकालिक प्रशिक्षकों की जॉब का सवाल है तो वह शासन स्तर पर ही डेढ़ साल से विचाराधीन है. सरकार से कई बार इस समस्या की गुहार लगाई गई, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ.

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चाय बेचते हुए बॉक्सिंग कोच

ट्विटर

लखनऊ में रहने वाले बॉक्सिंग कोच मोहम्मद नसीम चाय बेचने को मजबूर हैं. 56 साल के मोहम्मद नसीम कुरैशी ने राष्ट्रीय स्तर पर उत्तरप्रदेश का प्रतिनिधित्व किया है. लॉकडाउन से पहले वह बच्चों को ट्रेन करते थे, लेकिन अब वह चाय बेचने के लिए मजबूर हैं. अनुबंधित कोच के रूप में उन्होंने अपने 32 साल के लंबे करियर में कई राष्ट्रीय स्तर के मुक्केबाजों को प्रशिक्षित किया है.

बाराबंकी के 44 वर्षीय महेन्द्र प्रताप सिंह तीरंदाजी के कोच रहे हैं, उन्होंने अपना पूरा जीवन युवा तीरंदाजों को संवारने में लगाया, उनके द्वारा तैयार खिलाड़ी नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर पहचान बनाई है. लेकिन कोरोना में रोटी का इंतजाम करने के लिए महेन्द्र प्रताप सिंह को समोसा बेचना पड़ रहा है. उनका कहना है कि पैसे की कमी के कारण, उनके दो छोटे बच्चे अपनी स्कूली शिक्षा जारी रखने में असमर्थ हैं.

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बाराबंकी के ही तलवारबाजी कोच संजीव कुमार गुप्ता ने सात-आठ साल कोचिंग दी है. लेकिन कभी जिस जिस हाथ में तलवार रहती थी, आज उसमें आरी है. पिछले साल के लॉकडाउन से पहले तक संजीव प्रदेश स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक के फेंसिंग प्लेयर्स (तलवारबाजी के खिलाड़ी) तैयार करते थे. महामारी में कोचिंग बंद हुई तो संजीव के हाथों में आरी आ गई, वो बढ़ईगीरी का काम करने लगें. आजतक से बात करते हुए उन्होंने कहा कि कमाई का कोई जरिया नहीं, रोज तीन सौ रुपया मिलता है. इतना पैसा भी नहीं मिल पाता कि बेटी के स्कूल की फीस भर पाएं, इसलिए 12 साल की तलवारबाजी की खिलाड़ी बेटी ख्याति दोस्तों से स्कूल ना आने की झूठी वजह बता देती है.

मीडिया रिपोर्ट्स की एक सरसरी रिसर्च में इतनी परेशान करने वाली कहानियां मिली हैं. संभव है ऐसी ढेरों दास्तान और खिलाड़ियों की भी होगी, जिनकी तकलीफ अभी सामने नहीं आ पाई है. .ये भी संभव है कि इनमें से कई को अब मदद मिल गई हो लेकिन समस्या का मूल जारी है. ओलंपिक की मेजबानी का ख्वाब देखने वाले देश की सरकार और राज्य सरकारों को हर जिलाधिकारी को यह ताकीद करनी चाहिए कि अगर उनके जिले में कोई खिलाड़ी गुरबत में पाया गया तो जवाबदेही उनकी होगी. हमें स्टेडियम से पहले खिलाड़ी संवारने चाहिए.

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