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पुलेला गोपीचंद ने उस दिन क्यों कहा-अब अगर मर भी जाऊं तो अफसोस नहीं

क्रिकेट के दीवाने इस देश में बैडमिंटन को इस मुकाम तक पहुंचाने के पीछे पुलेला गोपीचंद हैं.

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साल 2012, लंदन का बैडमिंटन स्टेडियम. दोपहर का वक्त था. सायना नेहवाल ब्रॉन्ज मेडल जीत चुकी थी. हम लोग उनका इंटरव्यू करने के लिए स्टेडियम के बाहर इंतजार कर रहे थे. इस बीच सायना के कोच पुलेला गोपीचंद बाहर आ गए. वो जैसे ही बाहर आए मैंने उनका इंटरव्यू किया. उनसे बोला नहीं जा रहा था, गला भरा हुआ था. निश्चित तौर पर उन्हें वो दिन याद आ रहे होंगे जब ओलंपिक मेडल का सपना लेकर उन्होंने बैडमिंटन कोर्ट में पैर रखा था. ये अलग बात है कि उनका वो सपना अधूरा ही रह गया.

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लगातार चोट से परेशान गोपीचंद का करियर उनके समकालीन खिलाड़ियों के मुकाबले जल्दी खत्म हो गया था. जिसके बाद वो कोचिंग की दिशा में चले गए. खैर, उस रोज मेरे इंटरव्यू में गोपीचंद की एक बात कभी नहीं भूलती. कभी भूलेगी भी नहीं, मैंने पूछा था कि गोपी कितना बड़ा दिन है आपके लिए? जवाब में भावुक गोपीचंद ने कहा- “आज अगर मैं मर भी जाऊं तो मुझे किसी बात का अफसोस नहीं होगा”, उनका ये एक वाक्य उनकी पूरी शख्सियत को समझने और समझाने के लिए काफी है. दरअसल गोपीचंद अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं.

बतौर खेल पत्रकार मैंने गोपीचंद को काफी करीब से देखा है. हैदराबाद की अपनी एकेडमी में वो सुबह करीब 6 बजे से कोर्ट में उतर जाते हैं. कोर्ट में जितना पसीना खिलाड़ी बहाते हैं उतना ही वो भी बहाते हैं. आधा दर्जन से ज्यादा कोर्ट पर चल रही प्रैक्टिस के दौरान वो लगातार चहलकदमी करते रहते हैं. जहां जिस खिलाड़ी के साथ रूककर उसे कुछ समझाने की जरूरत महसूस करते हैं वहां रूकते हैं. उसे कुछ बताते हैं, फिर दोबारा उसका खेल देखते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. इन खिलाड़ियों में पीवी सिंधू, सायना नेहवाल जैसे स्टार खिलाड़ियों से लेकर छोटे-छोटे बच्चे तक शामिल हैं.

गोपी की पैनी निगाहें उन पर भी होती हैं जो बड़े स्टार हो चुके हैं, तमाम मेडल जीत चुके हैं. अपनी धीमी सी आवाज में वो उन्हें भी समझाते रहते हैं. ये सिलसिला कई घंटे तक चलता है. गोपीचंद इन खिलाड़ियों के लिए कोच की शक्ल में बड़े भाई की तरह हैं. ये गोपीचंद की मेहनत ही है कि उन्होंने इस कोर्ट से सायना नेहवाल, पीवी सिंद्धू, श्रीकांत कंदाबी, पी कश्यप जैसे तमाम बड़े स्टार पैदा किए हैं. सायना नेहवाल ने बीच में अपना कोच बदला लेकिन फिर वो अपनी गलती मानते हुए गोपीचंद के पास वापस लौटीं.

गोपीचंद ने बतौर खिलाड़ी देश को कई बड़े सम्मान दिलाए हैं. जिसमें से 2001 में ऑल इंग्लैंड ओपन बैडमिंटन चैंपियनशिप प्रमुख है. इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि चोट की वजह से गोपीचंद का करियर जल्दी खत्म हो गया वरना वो और बड़े खिताब जीत सकते थे. उनके जिस सपने के टूटने का जिक्र हमने शुरू में किया था अब वो सपना गोपीचंद अपने खिलाड़ियों की आंखों में देखते हैं. खिलाड़ियों को सपना दिखाते हैं फिर उन्हें पूरा कराने की जिम्मेदारी भी लेते हैं.

2012 लंदन ओलंपिक में सायना का मेडल और 2016 रियो ओलंपिक में पीवी सिंधू का मेडल इसी बात का सबूत है. एक कोच के तौर पर उनकी छवि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके ऊपर कभी अगर कोई ऊंगली उठाता है तो अव्वल तो लोग भरोसा ही नहीं करते और अगर बचाव की जरूरत पड़ती है तो गोपीचंद से पहले कोई और खड़ा हो जाता है. डबल्स खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा ने सेलेक्शन को लेकर विवाद किया था, उन्होंने गोपीचंद पर पक्षपात का आरोप लगाया. इसके अलावा कुछ साल पहले इस बात पर भी विवाद हुआ था कि जब गोपीचंद की अपनी एकेडमी है तो वो राष्ट्रीय कोच कैसे हो सकते हैं? इन विवादों के बाद भी गोपीचंद की नीयत पर बैडमिंटन के कर्ताधर्ताओं ने ऊंगली नहीं उठाई.

गोपीचंद की शख्सियत समझने के लिए एक मशहूर किस्सा भी आपको पता होना चाहिए. उन्होंने एक बार एक कोल्ड ड्रिंक कंपनी के विज्ञापन करने की बड़ी रकम के प्रस्ताव को ये कहकर ठुकरा दिया था कि जो ड्रिंक वो खुद नहीं पीते उसका प्रचार वो नहीं करेंगे.

जिस देश में क्रिकेट के अलावा लोग किसी और खेल को कम ही देखते हैं, उस देश में बैडमिंटन को इस मुकाम तक पहुंचाने के पीछे गोपीचंद हैं. आज मेंस और वूमेंस दोनों में भारत के खिलाड़ी नाम कर रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर की हर प्रतियोगिता में उनकी मजबूत दावेदारी होती है. इन उपलब्धि के पीछे खिलाड़ी की काबिलियित के साथ-साथ कोच गोपीचंद की मेहनत भी है. अगले कई साल तक उनकी इस मेहनत के नतीजे सामने आते रहेंगे.

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