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बिहार क्रिकेट का सपना अब सच होने के करीब, रणजी खेलना लगभग तय!

बिहार क्रिकेट के अच्छे दिन आने वाले हैं

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इस साल की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बिहार के खिलाड़ियों के बीच खुशी की लहर फैल गयी थी और इन खिलाड़ियों को लगने लगा था की अब उन्हें भी शायद देश के लिए खेलने का मौका मिल सकता है. इस के तुरंत तीन महीने बाद यानी 17 अप्रैल 2018 को सौरव गांगुली के नेतृत्व में बीसीसीआई की टेक्निकल समिति ने बिहार को रणजी में खेलने की हरी झंडी दे दी. हालांकि अभी कमिटी ऑफ एडमिनिस्ट्रेटर्स की संपुष्टि होनी बाकी है और उसके बाद आखिरी मुहर बीसीसीआई की जनरल बॉडी लगाएगी.

लेकिन, मोटे तौर पर बिहार का अगले सीजन में रणजी ट्रॉफी खेलना लगभग तय है. इस फैसले से ना सिर्फ बिहार के क्रिकेट प्रेमियों को फायदा मिलेगा बल्कि देश को भी फिर से एक बार महेंद्र सिंह धोनी और सबा करीम जैसे खिलाड़ी मिलेंगे.

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हाल के सालों में बीसीसीआई के कुछ अधिकारियों ने बिहार मामले में कई अड़चने पैदा करने की कोशिशें की. लेकिन, अंत भला तो सब भला. इस लड़ाई को साल 2006 से लड़ने वाले आदित्य वर्मा कहते हैं कि सबसे बड़ी अड़चन बीसीसीआई के एक्टिंग सेक्रेटरी अमिताभ चौधरी रहे हैं.

आदित्य के मुताबिक अमिताभ चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट के दो-दो फैसलों की अनदेखी करते हुए बिहार मामले को उलझा कर रखा और इस वजह से वो मानते है की पिछले करीब दो दशक में क्रिकेटर्स की तीन पीढ़ियां ख़राब हुई है.

आईपीएल में गड़बड़ी और स्पॉट फिक्सिंग के खिलाफ मुहिम चलानेवाले आदित्य वर्मा की कोर्ट द्वारा लोढ़ा कमेटी लागू करने में अहम भूमिका रही है और वो एक मजबूत वजह रहे हैं जिसकी वजह से भारतीय क्रिकेट में कई सुधार देखने को मिल रहे हैं.

आदित्य बताते हैं की 4 जनवरी के सुनवाई के दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के सामने भावुक होकर बिहार के साथ हो रहे अन्याय को रोकने की गुहार लगाई और कोर्ट ने भी माना की बिहार के साथ अन्याय हुआ है. आदित्य के मुताबिक बिहार का 2018 - 2019 रणजी में खेलना एक सपने के साकार होने जैसा है. खबरों के मुताबिक इस बड़े फैसले में बीसीसीआई के जनरल मैनेजर सबा करीम का भी अहम रोल है.

बिहार क्रिकेट की दुर्दशा का इतिहास

बिहार क्रिकेट का इतिहास ठीक ठाक रहा है. बिहार ने एक बार रणजी फाइनल में जगह भी बनाई थी और देश को रमेश सक्सेना, रणधीर सिंह, सुब्रत बनर्जी, सबा करीम और कुछ हद तक महेंद्र सिंह धोनी जैसे खिलाड़ी दिए हैं.

साल 2000 में बिहार विभाजन के साथ यहां के क्रिकेटर्स की दुर्गति की कहानी शुरू हो गयी. बिहार और झारखंड के विभाजन से पहले, राज्य में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) जैसी संस्था थी. राज्यों के विभाजन के बाद, 2001 में क्रिकेट बोर्ड को बिहार क्रिकेट एसोसिएशन और झारखंड क्रिकेट संघ (अब झारखंड स्टेट क्रिकेट एसोसिएशन) में विभाजित किया गया था.

2002 के प्रेजिडेंट इलेक्शन के बाद बिहार की मान्यता रद्द कर दी गयी और उनका वोटिंग पावर भी छीन लिया गया. इसके बाद बिहार क्रिकेट को भ्रष्टाचार, लापरवाही और गंदी राजनीति ने और अंधेरे में धकेल दिया. बीसीए भी दो शिविरों में विभाजित हो गया- एक लालू प्रसाद यादव और दूसरा अजय नारायण शर्मा. क्रिकेट भले ही यहां बंद हो गया लेकिन यहां कई संस्थाओं का जन्म जरूर हो गया और एक समय में तो बिहार क्रिकेट की चार चार एसोसिएशन्स थी.

पिछले 17 -18 साल बिहार के क्रिकेट खिलाड़ियों लिए अच्छे नहीं रहे. कई युवा खिलाड़ियों के क्रिकेटर बनने का सपना चकनाचूर हो गया. खिलाड़ियों के लिए सारे दरवाजे बंद हो चुके थे और आगे भी कोई संभावना नहीं दिख रही थी. ऐसे में कई क्रिकेट प्रेमियों ने या तो खेल को छोड़ दिया या फिर खुद को अपने भाग्य पर छोड़कर खेल में सब कुछ झोंक दिया.

कुछ भाग्यशाली भी रहे जिन्हें दूसरे राज्यों में खेलने का मौका मिल गया. सबसे बड़ा उदाहरण महेंद्र सिंह धोनी हैं जो पहले बिहार रणजी टीम से खेलते थे लेकिन विभाजान के बाद वो झारखण्ड टीम में चले गए. जैसे, पटना के ईशान किशन जिन्होंने अंडर -19 विश्व कप में भारतीय टीम की कप्तानी की, उन्हें बिहार में क्रिकेट ना होने की वजह से झारखंड से खेलना पड़ा. आशीष कुमार प्रसाद, एक दाएं हाथ के गेंदबाज हैं,भले ही वो बिहार में लोहरदगा के हैं लेकिन झारखंड की तरफ से खेल रहे हैं. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को भी दिल्ली और झारखण्ड से ही खेलना पड़ा था.

अब आगे क्या - लड़ाई बीसीए और सीएबी के बीच

बीसीसीआई की टेक्निकल कमेटी ने भले ही बिहार को अगले रणजी सीजन में खेलने की अनुमति दे दी हो लेकिन अभी भी बिहार के सामने कई अड़चने हैं. जैसे कि राज्य के क्रिकेट बोर्ड के प्रतिनिधित्व का मामला. बीसीए पहले ही दो भागों में बट चुकी है. आदित्य वर्मा के नेतृत्व में चल रही क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार यानी (सीएबी) दूसरी ऐसी एसोसिएशन है जो बिहार क्रिकेट को आगे लेकर जाना चाहती है.

2015 में बीसीसीआई ने बिहार क्रिकेट के बुनियादी ढांचे में विकास और क्रिकेट गतिविधियों के लिए 50 लाख रुपये का अनुदान बीसीए को दिया था. ये पैसा कहा गया किसी को पता नहीं - बीसीए सचिव रवि शंकर प्रसाद सिंह और पूर्व सचिव अजय नारायण शर्मा के खिलाफ एफआईआर दर्ज है और उसके बाद बीसीसीआई ने बीसीए को फंड देना बंद कर दिया. बिहार क्रिकेट एसोसिएशन में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार अब भी राज्य के सामने एक बहुत बड़ी बाधा है. आदित्य वर्मा का मानना है की सिर्फ घोटाला ही नहीं बल्कि बीसीए के दो टुकड़े होने के बाद ये संस्था सोसाएटी रजिस्टर्ड बॉडी भी नहीं है और बीसीसीआई के नियम के मुताबिक राज्य की बोर्ड इकाइयों के लीगल स्टेटस के लिए रजिस्टर्ड होना अनिवार्य है. ऐसे में बिहार के स्टेट बोर्ड का प्रतिनिधित्व किसे मिलेगा, ये कहना अभी फिलहाल मुश्किल है.

ऐसा माना जा रहा है की बीसीसीआई एक एडहॉक कमिटी बना सकती और उसे बिहार क्रिकेट के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है. बहरहाल इतना तो तय है कि इतने सालों से बिहार क्रिकेट की सूनी पड़ी मिट्टी में अब बारिश की पहली बूंद देखने को मिलेगी और वहां के क्रिकेट प्रेमियों के लिए शायद ही इस से बढ़कर कोई बड़ी बात होगी.

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