भारत ने टेस्ट क्रिकेट में 21वीं सदी के पहले जितनी भी ओपनिंग जोड़ियां देखी हैं, उन सभी में जो सर्वश्रेष्ठ जोड़ी होगी वो चेतन के बिना अधूरी होगी. बरेली में जन्मे चेतन चौहान 1970 के दशक से ही हिम्मत और तेज गेंदबाजों के खिलाफ बल्लेबाजी को धार देते आए थे.
सुनील गावस्कर जैसे अद्वितीय क्रिकेटर के साथ शानदार ओपनिंग पार्टनरशिप करके उन्होंने भारत को क्रिकेट में नए कीर्तिमान दिए हैं. ये चेतन के पुणे में क्रिकेट सीखने और महाराष्ट्र के लिए खेलने का फायदा ही था कि गावस्कर और चेतन पिच पर ज्यादातर मराठी में बात कर लेते थे.
उतार चढ़ाव भरा रहा करियर
चेतन चौहान का करियर उतार चढ़ाव से इतना भरा हुआ था कि दो बार लंबे अंतरालों के लिए टीम से बाहर किया गया. 1969-70 में न्यूजीलैंड के खिलाफ उन्होंने मुंबई के ब्रेबॉर्न स्टेडियम में अपना पहला मैच खेला. टेस्ट क्रिकेट में अपना पहला रन बनाने में चेतन को पूरे 25 मिनट लग गए थे, ये तब का चर्चित तथ्य बन गया था. उसके बाद फिर न्यूज़ीलैंड के ब्रूस टेलर की गेंदों पर चौके और छक्के जड़े.
उसके बाद वो टीम से करीब चार सालों तक बाहर रहे. और तब तक टीम में “लिटिल मास्टर” सुनील गावस्कर की एंट्री हो चुकी थी. दोबारा चार सालों के अंतराल के बाद चेतन ने गावस्कर के साथ मिलकर बिना किसी खलल के भारत के लिए खूब रन बनाए. गावस्कर और चेतन ने क्रिकेट की सबसे भयानक गेंदबाजी साथ मिलकर संभाली और टिके रहे.
चेतन गावस्कर की जोड़ी ने 3127 रन 54.85 की औसत के साथ 60 पारियों में बनाए. इस जोड़ी ने 11 शतक भी एक दूसरे के साथ साझेदारी में बनाए.
इनकी जोड़ी की सबसे बड़ी जीत हुई ओवल के मैदान में जब पारी की शुरुआत करते हुए धुंआदार बल्लेबाजी करते हुए 213 रन बनाए. 1979 में ओवल के मैदान में जब भारत को 438 का असंभव सा लगने वाला लक्ष्य मिला था, जब चेतन गावस्कर के बदौलत ही भारत ने लगभग ये लक्ष्य छू लिया था. भारत नौ रन से पीछे रह गया और मैच ड्रॉ हुआ. लेकिन चेतन चौहान की साझेदारी से गावस्कर के 221 रन इतिहास में दर्ज हुए.
गावस्कर ने हमेशा चौहान का आदर किया और उन्हें ‘मास्टर’ कहके ही बुलाया. वो चौहान पर कठिन से कठिन गेंदबाज़ों के सामने खेलने के लिए भी भरोसा कर लेते थे. चौहान के क्रिकेट छोड़ने के बाद भी कई मौकों पर गावस्कर ने ये बातें कहते आए हैं.
1980 और 81 वाले न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया वाले दोहरे दौरे पर ये जोड़ी आखिरी बार साथ नज़र आयी. मेलबर्न में ऑस्ट्रेलिया दौरे के खत्म होते होते, चौहान नॉन स्ट्राइकर थे. और सामने थे गावस्कर. उस रोज़ गावस्कर ने ऑस्ट्रेलियायी खिलाड़ियों के तथाकथित अभद्र व्यवहार से गुस्से में मैदान खेल के बीच ही छोड़ने की कोशिश की. साथ ही चौहान को भी ले जाने लगे. चौहान नहीं गए. बस इतनी ही बात थी. तब के टीम प्रबंधक शाहिद दुर्रानी ने किसी तरह स्थिति संभाली.
चौहान मैदान पर रुके और शानदार खेले. भारत की जीत में अपनी भूमिका बखूबी निभायी. सीरीज़ ड्रॉ हुई. न्यूज़ीलैंड वाले दौरे में भारतीय टीम हार गई. उन दौरों में भारत के सबसे कंसिस्टेंट खिलाड़ी होने के बाद भी चौहान को टेस्ट टीम में फिर कभी जगह नहीं मिली..
चौहान ने सर्वश्रेष्ठ 97 रनों के साथ अपना टेस्ट करियर बिना शतक के ही पूरा किया. शेन वॉर्न के बाद चौहान दूसरे क्रिकेटर बने जिसने सबसे ज्यादा रनों के बाद भी शतक कभी नहीं बनाया.
“मुझे नहीं पता मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? फॉर्म में नहीं होना कोई कारण नहीं था. क्योंकि न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के दौरे के बाद मैंने संदीप पाटिल को छोड़कर लगभग सभी भारतीय खिलाड़ियों से ज्यादा रन बनाए थे. मेरा औसत स्कोर 41.50 था. लेकिन इंग्लैंड के खिलाफ होने वाली अगली सीरीज़ में मुझे टीम से बाहर कर दिया गया. ये बहुत आश्चर्यचकित करने वाला था.” - (चेतन चौहान की ‘द हिंदू ’से बातचीत से)
भारतीय टीम को गावस्कर के लिए एक स्थायी साथी खोजने में काफी समय लग गया. भारत ने अरुण लाल, गुलाम परकार, रवि शास्त्री, श्रीकांत और अंशुमन गायकवाड़ के साथ गावस्कर की पार्टनरशिप बैठाने की कोशिश की.
चौहान के बल्ले के साथ मिलने वाली हिम्मत के साथ मैदान में उनकी मौजूदगी भी भारतीय टीम को कचोटती थी.
कोचिंग में भी चौहान ने हाथ आजमाया
चौहान फिर ऑस्ट्रेलिया गए और एडिलेड के एक क्लब के लिए कोच करने लगे. इसी शहर में कुछ सालों बाद उनका 19 साल का बेटा एक हादसे में मारा गया. 1985 में आखिरकार चेतन चौहान ने खेलना बंद कर दिया.
उसके बाद वो एक राष्ट्रीय चयनकर्ता बने. यहां तक कि, 19989,90 के पाकिस्तान दौरे के लिए 16 वर्षीय सचिन तेंदुलकर का चयन करने वाले 5 सदस्यों वाली टीम में से भी चौहान एक थे. राज सिंह डूंगरपुर को पूरा श्रेय मिला. जबकि चौहान, रमेश सक्सेना, बी.एस. चंद्रशेखर और नरेन तम्हाने भी उतने ही हकदार थे.
उसके बाद डी.डी.सी.ए के लिए अलग अलग क्षमताओं में काम करना उन्हें दोबारा सुर्खियों में लाया. चौहान ने डी.डी.सी.ए में अपने पकड़ बनाए रखी. हालांकि नवदीप सैनी के चयन को लेकर तब के प्रख्यात ओपनर गौतम गंभीर से उनकी भिड़ंत याद की जाती है. जब सैनी ने मैदान में शुरूआत की तब गौतम गंभीर ने चौहान और बिशन सिंह बेदी दोनों को खरी खोटी सुनायी थी.
भारतीय टीम में नए अवतार में चौहान
इन्हीं सब के बीच में जब जॉन राइट ने हेड कोच का पदभार संभाला तब चौहान को भारतीय टीम का स्थायी प्रबंधक नियुक्त किया गया. 2000,2001 के ऑस्ट्रेलियाई दौरे के इन चार्ज चौहान थे. वी.वी.एस लक्ष्मण के चर्चित कोलकाता टेस्ट की सेकेंड इनिंग्स में हुए प्रमोशन के पीछे भी चौहान ही थे.
लेकिन उस सीरीज़ के कुछ समय बाद ही बी.सी.सी.आई ने अपने प्रबंधन संबंधित पदों को राज्य के एसोसियेशन को दे दिया था. 2007,8 में ऑस्ट्रेलिया के दौरे के पहले चौहान को भारतीय टीम के प्रबंधक बनकर लौटने में 6 साल लग गए. मीडिया प्रबंधन के उस दौरे के कार्य को आज भी उस दौरे से संबंधित लोग याद करते हैं.
तब हुए मंकीगेट स्कैंडल को बखूबी संभालने वाले चौहान और श्रीधर, दोनों मीडिया प्रबंधक आज हमारे साथ नहीं है.
सभी भारतीय क्रिकेटरों में से शायद एक चौहान ही थे जिन्होंने समझा कि प्रबंधक का रोल बस मैचों की टिकटें संभालना नहीं है. वो प्रबंधक के किरदार को लंबा निभाना चाहते थे. लेकिन बीसीसीआई राज्य के एसोसियेशन को पदभार देना चाहती थी और दिया भी.
चौहान 90 के दशक के वेटरन्स क्रिकेट के सक्रिय सदस्य थे. उन्होंने ही बी.वी.सी.आई (बोर्ड ऑफ वेटरन क्रिकेटर इन इंडिया) लीड किया था. लेकिन लोधा रिफॉर्म्स आने के बाद वो खुद ही बाहर हो गए. बाहर हुए और राजनीति में आ गए. लेकिन टी.वी पर फिर भी एक क्रिकेट विश्लेषक के तौर पर उनका रूतबा बरकरार था.
बाद में उन्हें इंडिया के टॉप फैशन इंस्टीट्यूट के NIFT का चेयरमैन भी नियुक्त किया गया. लेकिन फिर वो भी विवादों में घिरा रहा. फिर उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के बाद वो राज्य मंत्री बने.
एक सक्रिय राजनेता होना उनका आखिरी किरदार था. क्रिकेट में उनके जाने के बाद एक कभी न भरने वाला खालीपन आ चुका है.
रेस्ट इन पीस, सर.
(चंद्रेश नारायण पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी हैं वह टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में लेखक रह चुके हैं. आईसीसी के पूर्व मीडिया ऑफिसर और फिलहाल दिल्ली के डेयरडेविल्स में मीडिया मैनेजर हैं.)
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