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1983 में हम आज ही जीते थे वर्ल्ड कप, संदीप पाटिल की कलम से वो जीत

1983 में वर्ल्ड कप जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य और 2003 में सेमीफाइनल में पहुंचने वाली टीम के कोच थे संदीप पाटिल

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क्रिकेट वर्ल्ड कप के साथ मेरे रिश्ते बड़े पुराने हैं. मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मुझे वर्ल्ड कप खेलने का मौका मिलेगा, यहां तक कि मैं वर्ल्ड कप मैच देख भी पाऊंगा.

1975 वर्ल्ड कप के पहले मैच में भारतीय टीम के फ्लॉप शो के बाद काफी बदलाव आया.

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सत्तर के दशक में लिमिटेड ओवर के फॉर्मेट में भारत को कभी मजबूत टीम नहीं आंका गया था. 1979 के वर्ल्ड कप में भारतीय टीम का प्रदर्शन निराशाजनक रहा. इसी दौरान स्वर्गीय राजसिंह डूंगरपुर ने मुझे निमंत्रण दिया और TOMCO कम्पनी ने मेरी इंग्लैंड यात्रा प्रायोजित की.

डूंगरपुर ने ना सिर्फ मुझे एडमंड क्लब के लिए मिडिलसेक्स लीग खेलने का मौका दिया, बल्कि ओवल में खेले गए वर्ल्ड कप के सेमी-फाइनल मैच देखने का टिकट भी दिया.

उसी दिन से वर्ल्ड कप के साथ मेरा नाता जुड़ गया. वेस्टइंडीज-पाकिस्तान के बीच हुआ मैच देखकर मैं काफी उत्साहित था. उसी समय से मेरे दिमाग में वर्ल्ड कप में खेलने का विचार आ गया.
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1983 में क्या हुआ?

1982 में इंग्लैंड टेस्ट सीरीज में मेरा प्रदर्शन अच्छा रहा. मेरे प्रदर्शन को देखते हुए सेलेक्टर्स ने मुझे वर्ल्ड कप में खिलाने का फैसला किया. अब मेरा सपना साकार हो रहा था.

पहले दो वर्ल्ड कप में भारत का प्रदर्शन काफी निराशाजनक था. इस वर्ल्ड कप में भी भारतीय टीम से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी. उम्मीद नहीं थी, तो वर्ल्ड कप जीतने का दबाव भी नहीं था.

भारतीय टीम के लिए 1983 वर्ल्ड कप, इस टूर्नामेंट में हिस्सा लेने और अपना तजुर्बा बढ़ाने जैसा था. अपने पहले मैच में मजबूत वेस्टइंडीज का सामना करने से पहले ही हम तीन प्रैक्टिस मैच हार चुके थे.

लेकिन यशपाल की बेहतरीन 89 रनों की पारी की बदौलत हम पहले ही मैच में वेस्ट इंडीज को हराने में कामयाब रहे. उसके बाद जो भी हुआ, वो एक खूबसूरत सपने जैसा था, जिसकी याद से आज भी हमारे चेहरों पर मुस्कान आ जाती है.

वो यादें और क्रिकेट वर्ल्ड के टॉप पर होने का एहसास, जिंदगी के सबसे बेहतरीन पल थे. उस जीत ने भारतीय क्रिकेट के लिए सबकुछ बदलकर रख दिया. हमने ‘जीरो से हीरो’ की कहावत को साकार कर दिखाया था. वो एहसास आज भी उसी तरह बरकरार है...

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पिच के बाहर का सफर...

1987 में मैंने एक दर्शक की तरह वर्ल्ड कप मैच देखे. वो एहसास बिलकुल अलग था. वर्ल्ड कप खेलना, जीतना और फिर दर्शक दीर्घा में बैठकर मैच देखना बिलकुल अलग अनुभव थे.

फिर आया 1996, जब मैं स्वर्गीय अजित वाडेकर का असिस्टेंट कोच बना. ये तजुर्बा बिलकुल अलग था. लेकिन अजहर की टीम के साथ काम करना बेहद अच्छा अनुभव था.

लेकिन ईडेन गार्डन्स में हुए सेमीफाइनल में श्रीलंका के हाथों बुरी तरह हार एक डरावना सपना था. मैच के बाद दंगे हो गए. हम भाग्यशाली थे कि सही-सलामत होटल तक पहुंच सके.

1999 वर्ल्ड कप मेरे लिए बिलकुल अलग अनुभव लेकर आया. इस बार मेरी जिम्मेदारी SOTC ग्रुप के लिए क्रिकेट गाइड के रूप में थी. मेरा काम उन टूरिस्ट की मदद करना था, जो वर्ल्ड कप देखने आए थे और उनके हिसाब से माहौल तैयार करना था. ब्रेकफास्ट टेबल पर मेरी कमेंट्री शुरु होती थी, और डिनर टेबल पर खत्म होती थी. सुबह से लेकर देर रात तक मैं एक ही तरह के सवालों के जवाब देता.

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फिर क्रिकेट में वापसी

फिर आया 2003 वर्ल्ड कप. इस बार मैं केन्या की नेशनल टीम का कोच था. ये टीम भी 1983 की भारतीय टीम की तरह थी. केन्या की टीम से कोई उम्मीद नहीं थी. अब याद करके हंसी आती है कि दक्षिण अफ्रीका में हमारी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ दो केन्याई पत्रकार मौजूद थे.

लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए, प्रेस बॉक्स भरता गया. जब हम सेमीफाइनल में पहुंचे, तो करीब 200 पत्रकार हमसे मिलने के लिए बेताब थे.

वो मेरी जिंदगी का बेहद शानदार और यादगार पल था, जब हम मजबूत भारतीय टीम से भिड़ने को तैयार थे. हालांकि उस मैच में भारत के हाथों हमारी हार हुई, लेकिन हमने अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज करा लिया था.

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2007 वर्ल्ड कप के दौरान मैं स्टार न्यूज चैनल में क्रिकेट एक्सपर्ट था. उस टीम में मोहिन्दर अमरनाथ और जहीर अब्बास जैसे दिग्गज भी शामिल थे. 45 दिनों तक मैच का एनालिसिस करना और एक्सपर्ट कमेंट देना मेरे लिए नया अनुभव था. हालांकि बुरा ये लगा, कि भारत ग्रुप लेवल से आगे बढ़ ही नहीं पाया.

2011 वर्ल्ड कप में मैं बेंगलुरु में नेशनल क्रिकेट अकादमी का डायरेक्टर नियुक्त हुआ. इस बार भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश संयुक्त रूप से वर्ल्ड कप आयोजित कर रहे थे. NCA में भारतीय कैम्प में मेरी भूमिका फिर से नई थी. हम खाना, प्रैक्टिस और योजना बनाने जैसी अलग-अलग तैयारियों का ध्यान रख रहे थे.

गर्व की बात थी वो वर्ल्ड कप भारत के नाम रहा. इस जीत में NCA का निश्चित रूप से अहम योगदान था.

2015 में हुए अगले वर्ल्ड कप में मेरी भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी और मैं भारतीय टीम का चीफ सेलेक्टर था. इस बार मेरा काम ध्यान से खेल देखना, खेल के बारे में बताना और एक्सपर्ट कमेंट देना था.

एक असिस्टेंट कोच से मुख्य कोच का सफर, फिर एक टीम की तैयारियों में मदद करना और आखिर में वर्ल्ड कप के लिए टीम चुनने के दौरान मेरी भूमिकाएं बार-बार बदलीं. लेकिन जिस सफर का आगाज 1979 वर्ल्ड कप से हुआ था, वो हमेशा याद रहेगा.

इस साल भी मैं एक न्यूज चैनल में एक्सपर्ट की भूमिका में हूं. उम्मीद है कि विराट की टीम मुझे भरपूर तारीफें करने के मौके देगी.

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