“आप हारते हैं, हारते जाते हैं. आप यह भी नहीं देखते कि हार का तरीका तो बेहतर हो.“ पूर्व कप्तान एमएस धोनी के बेहतरीन कथनों में से यह एक है. उन्होंने यह बात तब कही थी जब उनसे पूछा गया था कि आप इंग्लैंड (2011) से धुलना चाहेंगे या ऑस्ट्रेलिया से(2011-12).
तकरीबन एक दशक बाद उनकी जगह कप्तान बने विराट कोहली ने वेलिंगटन में हुए पहले टेस्ट मैच के बाद उन शब्दों को दोहराया.
कोहली ने एक हफ्ता पहले कहा था,
“आप चाहे मैच आज शाम हारें या पांचवें दिन की सुबह, हार तो हार होती है. लेकिन अगर आपने अच्छा नहीं खेला, तो आप चार दिन के भीतर या फिर चौथे दिन की सुबह हार जाएंगे. हम जानते हैं कि हमने अच्छा नहीं खेला है. अगर लोग इसे राई का पहाड़ बनाना चाहते हैं तो यह उनकी मर्जी. हम इस हार को उस तरीके से नहीं देखते.”
कोहली पहले टेस्ट में हार के बाद ग्लानि के भाव में नहीं थे और हार को नजरअंदाज कर रहे थे. उन्हें ऐसा लगा जैसे यह निराशाजनक हार यकायक घटी घटना हो और उनकी टीम अगले टेस्ट में वापसी कर लेगी मानो यह उनका जन्म सिद्ध अधिकार हो.
क्राइस्टचर्च में हुई दूसरी हार अब और ज्यादा दिल दुखाएगी. मैच तीन दिन तक नहीं चल पाया. वास्तव में दो मैचों की श्रृंखला में महज 450 ओवर से कुछ ज्यादा का खेल हुआ (जो वास्तव में पांच दिनों के एक टेस्ट मैच में खेला जाता है) और यह मुख्य रूप से भारतीय टीम की नाकाबिलियत है.
खराब संवाद
क्राइस्टचर्च में तीसरी सुबह ऋषभ पंत जब बल्लेबाजी करने को उतरे तो उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था. बीती रात उन्होंने महज एक ओवर से ज्यादा बल्लेबाजी की थी जब उमेश यादव आउट हुए और टीम 6 विकेट खोकर 89 के स्कोर पर थी. उसके बावजूद वे प्रयोग करते दिखे.
उन्हें बड़े शॉट खेलने का पूरा अख्तियार था और किसे पता कि उनके आक्रामक रुख से मैच का रुख ही बदल जाता और भारत को एक बड़ा स्कोर खड़ा करने में मदद मिलती.
इसके बजाए चेतेश्वर पुजारा को आक्रामकता दिखाने को कहा गया जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया में अपना स्वाभाविक खेल खेलते हुए विशाल स्कोर खड़े किए थे. यही संदेश अजिंक्य रहाणे और हनुमा विहारी के लिए भी था और जैसा कि दिखा कि इस पूरी योजना से किवी गेंदबाजों को मदद मिली.
आईना दिखाने वाला कोई नहीं था
अगर आपका कोच ही हमेशा सबसे बड़ा चीयरलीडर हो, तो कप्तान के लिए कोई और पहलू देखना बहुत मुश्किल हो जाता है.
दूसरे टेस्ट से पहले रवि शास्त्री संवाददाता सम्मेलन के लिए आए (उनका कोई इरादा नहीं था और वे महज इसलिए आए क्योंकि एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनसे व्यक्तिगत तौर पर आग्रह किया था) और उस टीम के कोच की तरह बात की जो सीरीज में पीछे न चलकर 1-0 से आगे चल रहा हो!
जब कोई कोच हमेशा बड़े वक्तव्य और आकर्षक बयान देता दिखे तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उनके रुतबे में बदलाव होना चाहिए या नहीं.
दौरे से कुछ सकारात्मक नहीं मिला
शायद ही आप ऐसा देखेंगे जब भारतीय क्रिकेट धराशायी हुई हो और कप्तान के पास कोई ध्यान दिलाने वाली बात या कुछ सकारात्मक चीजें बताने को न रहे, जैसे कि शानदार बैटिंग या बॉलिंग.
यह दुखद है कि सलामी बल्लेबाज संघर्ष करते दिखे. पिछली 15 पारियों में पुजारा ने कोई शतक नहीं लगाया है, कोहली रन के लिए तरस रहे हैं. रहाणे उम्मीद पर नहीं खरे उतर रहे. विहारी मिले मौके का फायदा नहीं उठा सके, पंत ने भी धोखा दिया, अश्विन और जडेजा के बीच म्यूजिकल चेयर का खेल जारी है. बुमराह ने देर से वापसी की, मगर इससे यह बात नहीं छिप जाएगी कि टेस्ट टीम में शामिल किए जाने से पहले उन्हें कुछेक फर्स्ट क्लास मैच खेलने की जरूरत थी और, देश से बाहर उमेश यादव का साधारण प्रदर्शन पहले की तरह जारी है.
अगर कोई एक बात सकारात्मक थी तो वह वेलिंगटन में इशांत शर्मा की चमत्कारिक वापसी. मगर, वह भी एक हफ्ते से ज्यादा नहीं टिक सके क्योंकि दूसरे टेस्ट मैच से पहले ही वो एक बार फिर चोटिल हो गए थे और क्राइस्टचर्च टेस्ट में नहीं खेल सके.
SENA अब भी है चुनौती
SENA (दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया) के देशों के साथ 15 टेस्ट मैचों में कोहली की टीम केवल चार मैच जीत सकी है.
इसके साथ ही वे चार में से तीन सीरीज हार चुके हैं. और, ऑस्ट्रेलिया में सीरीज जीतने की ऐतिहासिक उपलब्धि बोर्ड के अध्यक्ष और पूर्व कप्तान सौरभ गांगुली की नजर में बड़ी नहीं है जिन्होंने आधिकारिक रूप से कहा था कि 2020 में जब ऑस्ट्रेलिया अपनी पूरी ताकत के साथ खेलेगी, तब वास्तव में जीत का मतलब होगा.
विराट कोहली को कप्तानी करते हुए अब 5 साल हो चले हैं और इस बार बात करने का सही समय था. भारत में (या एशिया या फिर वेस्टइंडीज में भी) जीत से उनकी महानता तय नहीं होगी क्योंकि अतीत में भी कई कप्तान हुए हैं जिन्होंने ये उपलब्धियां हासिल की हैं. कोहली के लिए यह सौभाग्य की बात है कि भारतीय क्रिकेट इतिहास का सबसे बहुमुखी आक्रमण उनके पास है और दूसरी टीमों के लिए यह ईर्ष्या का कारण है. फिर भी यह सच्चाई है कि उस हिसाब से नतीजे नहीं आ रहे हैं.
5-0 से 0-5 तक
भारत ने 5 मैचों की टी20 सीरीज में ऐतिहासिक सफाए के साथ शुरुआत की. एक दिवसीय मैचों मे आसानी से जीत मिली, लेकिन भारत को शुरुआत में ही चेतावनी मिल गयी जब एक खराब घरेलू टीम ने उन्हें धो डाला.
और, टेस्ट सीरीज के दौरान जब सबसे ज्यादा जरूरत थी कीवियों ने पूरी तैयारी की. इस तरह की जूसी पिच तैयार करना महज जुआ नहीं था खासकर जब विपक्ष के पास भी खौफनाक आक्रमण मौजूद हो. किवी जानते थे कि अगर वे कोहली को शांत रख सके (जिन्हें वे अच्छे से लड़खड़ा देते हैं) तो आधी लड़ाई वे जीत चुके होंगे. बगैर सुपरमैन कोहली के भारत की बल्लेबाजी ने अपना विश्वास खो दिया. सच्चाई यह है कि कोई भी भारतीय बल्लेबाज सीरीज में सबसे अधिक रन बनाने वाले शीर्ष तीन बल्लेबाजों में जगह नहीं बना पाया. इससे मुश्किल प्रश्न खड़े होते हैं.
जमीनी अनुभव वाले कप्तान
जब दौरे के अंतिम संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करने कोहली आए, उन्हें उम्मीद थी कि यात्रा पर साथ आयी मीडिया उनसे कुछ तीखे सवाल पूछेगी. वह ईमानदार दिखे, व्यावहारिक रहे, कोई बहाना नहीं बनाया, पुजारा और रहाणे का बचाव किया और यह स्वीकार कर लिया कि उन्होंने अच्छा नहीं खेला. उसके बाद किसी ऐसे सवाल की जरूरत नहीं रह जाती है जिनसे वे नाराज हों. इसके बावजूद वे बीच में तब गुस्से में आ गये जब एक स्थानीय संवाददाता ने उनसे मैच में उनके व्यवहार को लेकर सवाल किए. कप्तान लड़ने के मूड में आ आए और लड़े.
32 साल की उम्र और भारतीय क्रिकेट में एक दशक गुजार लेने के बाद विराट कोहली के लिए यह उचित समय है जब वे अपने गुस्से को नियंत्रित करना सीखें और शायद ऑस्ट्रेलिया में इसी साल आगे यह उनके काम आए.
(लेखक स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट हैं जिनके पास 20 साल से अधिक समय तक क्रिकेट को कवर करने का अनुभव है. वे सचिन तेंदुलकर के जीवन और करियर से जुड़ी पुस्तक ‘क्रिकेटर ऑफ द कंट्री’ के लेखक हैं.)
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