क्या आपको पता है कि दूसरे देशों के फेमस 'मून मिशन' कितने दिन में अपनी यात्रा पूरी करके चांद पर पहुंचे थे? अगर नहीं तो हम बताते हैं. चांद पर पहुंचने में चीन के Chang’e 1 को 4 दिन 12 घंटे, नासा के Apollo 11 को 4 दिन और रूस के Luna 15 को भी बस 4 दिन ही लगे थे. लेकिन, हमारे 'चंद्रयान 2' को अपनी मंजिल तक पहुंचने में 48 दिन लगने वाले हैं. ऐसा क्यों? आइए जानते हैं.
दरअसल, ‘चंद्रयान 2’ को ले जाने वाले GSLV MK-III लॉन्च व्हीकल अपेक्षाकृत सस्ता और कम पावर वाले इंजन से चलता है. ये केवल 8,000 किलो का भार ही लो-अर्थ ऑर्बिट में ले जा सकता है और हाई-ऑर्बिट में इस वजन का भी आधा.
अगर तुलना की जाए तो Space X का Falcon 9 लगभग 23,000 किलो भार ले जा सकता है. वहीं, Apollo मिशन के नील आर्मस्ट्रांग को चांद तक पहुंचाने वाला Saturn V रॉकेट लो-अर्थ ऑर्बिट में 118,000 किलो तक का वजन ले जा सकता है.
एकदम आसान शब्दों में समझा जाए तो ये ऐसा है कि हीरो स्प्लेंडर से चांद तक का सफर तय करना, जिससे माइलेज तो बढ़िया मिलेगा लेकिन सुजुकी हायाबूसा जैसी स्पीड नहीं मिलेगी.
चंद्रयान 2 अगले 23 दिन पृथ्वी के चक्कर लगता हुआ धीरे-धीरे ऑर्बिट में उठेगा. उसके बाद ही वो चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश करने के लिए अपनी 7 दिनों की यात्रा शुरू करेगा.
ये समझना जरूरी है कि जितने भी अपोलो मिशन थे, वो एस्ट्रोनॉट ले जाने के लिए भी बने थे. वहीं, चंद्रयान 2 बिना क्रू के एक छोटा मिशन है, जो मून की डार्क साइड (दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र में) पर लैंडिंग करने की कोशिश करेगा. इस साइड पर अबतक किसी ने लैंडिंग नहीं की है.
शुरुआती ऑर्बिट में दाखिल होने के बाद, चंद्रयान 2 को संभालने और ट्रैक करने की जिम्मेदारी अब इसरो के बेंगलुरु में स्थित टेलीमेट्री, ट्रैकिंग और कमांड (Istrac) सेंटर के पास है. अगले 62 दिन तक (48 यात्रा के और 14 जब रोवर चंद्रमा पर लैंड कर जाएगा) Istrac दुनिया भर में मौजूद ग्राउंड स्टेशन की मदद से स्पेसक्राफ्ट को चांद तक ले जाएगा और फिर रोवर को उसकी सतह पर उतारेगा.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर चंद्रयान 2 बिना तकनीकी खरीबी के 15 जुलाई को लॉन्च हो गया होता, तो चंद्रमा की कक्षा में पहुंचने में उसे 22 दिन लगते और 28 दिन चांद के चक्कर लगाने में.
लेकिन अब लैंडर और रोवर के मॉड्यूल को 100 किमी x 100 किमी के ऑर्बिट में 13 दिन बिताने होंगे.
जब साइंस ने टेक्नोलॉजी को पछाड़ दिया
GSLV MK-III लॉन्च व्हीकल बनाते हुए इसरो को कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इंडियन एक्सप्रेस की इस रिपोर्ट में इसरो के चेयरमैन के सिवान ने कहा था, "पिछले मिशन के मुकाबले GSLV MK-III का प्रदर्शन 15% बढ़ाया गया." इसके बावजूद चांद पर जाने वाले और मिशन से तुलना करने पर ये प्रदर्शन भी कम ही है.
इसलिए चंद्रयान 2 (GSLV MK-III) को मिशन पूरा करने के लिए रूढ़िवादी तरीका अपनाना पड़ा. GSLV MK-III को फुल थ्रोटल (पूरे जोर) से भेजने की बजाय इसरो स्पेसक्राफ्ट को कई ऑर्बिट में घुमाकर चंद्रमा के पास ले जा रहा है. इस तरीके को ओबर्थ इफेक्ट बोलते हैं.
हर ऑर्बिट के साथ स्पेसक्राफ्ट पृथ्वी के ग्रेविटेशनल पुल (गुरुत्वीय खिंचाव) से दूर होता जाता है और आखिर में चंद्रमा की कक्षा में दाखिल हो जाता है. इसके बाद स्पेसक्राफ्ट लैंडर और रोवर को अनलोड करने की प्रक्रिया शुरू कर सकता है.
इसरो ने मंगलयान मिशन में भी इसी रणनीति का इस्तेमाल किया था. ये मिशन PSLV-C25 लॉन्च व्हीकल से 5 नवंबर 2013 को लॉन्च किया गया था.
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