ISRO एक ऐसी टेक्नोलॉजी पर काम कर रहा है, जिससे आपके मैसेज को कोई कभी भी हैक ही नहीं कर पाएगा. कोई मतलब वो कितना भी बड़ा हैकर हो, हैक नहीं कर पाएगा. इस टेक्नोलॉजी से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने 300 मीटर दूर दो इमारतों के बीच एक संदेश को भेजने में कामयाबी भी पा ली है. अगर ये आगे कामयाब रहती है तो यकीन मानिए सूचनाएं भेजने का तरीका हमेशा के लिए बदल जाएगा. इसे कहते हैं फ्री-स्पेस क्वांटम कम्यूनिकेशन.
क्या है फ्री-स्पेस क्वांटम कम्यूनिकेशन?
क्वांटम की डिस्ट्रीब्यूशन टेक्नॉलजी क्वांटम कम्यूनिकेशन टेक्नॉलजी को नया आधार देती है. ये क्वांटम मेकैनिज्म के सिद्धांतो के मुताबिक डेटा की सुरक्षा को सुनिश्चित करती है. फिलहाल के पारंपरिक एन्क्रिप्शन सिस्टम में ऐसा मुमकिन नहीं है.
डेटा-एन्क्रिप्शन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक क्रिप्टोसिस्टम कठिन मैथमेटिकल एल्गोरिदम के हिसाब से तय होते हैं, जबकि डेटा को सुरक्षित रखने के लिए, क्वांटम कम्यूनिकेशन फिजिक्स के नियमों पर आधारित है.
एनक्रिप्टेड मैसेज को अगर आसान भाषा में समझें तो ये वो सूचनाएं होती हैं जिन्हें सिर्फ दो लोग पढ़ सकते हैं- एक वो जिसने सूचना भेजी है और दूसरा वो जिसे सूचना भेजी गई है. लेकिन ये सूचनाएं भी पूरी तरह से सुरक्षित हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता.
"फ्यूचर-प्रूफ" है ये सिस्टम
इसरो के मुताबिक, क्वांटम क्रिप्टोग्राफी को "फ्यूचर-प्रूफ" माना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि कंप्यूटर की दुनिया में आने वाले भविष्य में कितनी ही प्रगति क्यों न हो जाए लेकिन क्वांटम-क्रिप्टोसिस्टम को तोड़ना नामुमकिन होगा.
कैसे काम करती है ये टेक्नॉलजी और पारंपरिक टेक्नॉलजी से कैसे अलग है?
कंप्यूटर बाइनरी कोड पर काम करता है यानी 0 और 1. जब इंटरनेट के जरिए कोई सूचना, मैसेज या वीडियो, ऑडियो भेजते हैं तो वो इन्हीं बाइनरी नंबर्स के जरिए डिकोड किए जाते हैं. हैकर इन कोड्स को हैक करके डिकोड कर लेते हैं जिससे आपकी जरूरी जानकारी या सूचनाएं हैकर्स के पास पहुंच जाती हैं.
नई टेक्नॉलजी के जरिए सूचनाएं शेयर करना सबसे सुरक्षित है, क्योंकि ये सिस्टम क्वांटम कम्यूनिकेशन फिजिक्स के नियमों पर आधारित है.
क्वांटम कम्यूनिकेशन में प्रकाश कणों यानी फोटॉन के जरिए सूचना को भेजा जाता है, जबकि इंटरनेट से सूचना या संदेश भेजने के पारंपरिक तरीके में प्रोग्रामिंग का इस्तेमाल होता है जिसे हैकर्स आसानी से बदल सकते हैं. इस नई तकनीक में संदेश भेजने के लिए प्रकाश को फोटॉन में बदलने की प्रक्रिया को क्वांटम क्रिप्टोग्राफी कहते हैं.
पारंपरिक इंटरनेट से संदेश भेजने और फ्री-स्पेस क्वांटम कम्यूनिकेशन के जरिए संदेश भेजने के बीच अंतर को छोटे उदाहरण से समझते हैं. हालिया दौर में संदेश भेजने के लिए जो तरीका इस्तेमाल होता है उसमें कंप्यूटर को आपका लिखा न तो ‘A’ समझ आता है और न ही ‘क’.
कहने का मतलब ये है कि कंप्यूटर सिर्फ इन्हें बाइनरी नंबर की तरह देखता है. जो एक तरह की प्रोग्रामिंग होती है. मान लीजिए अगर आप कंप्यूटर लॉक करते हैं तो कंप्यूटर आपकी भेजी सूचना को '0' समझेगा और अगर अनलॉक करते हैं तो उसे '1' समझेगा. लेकिन इसरो ने जिस तकनीक का इस्तेमाल किया है उसमें सूचना को भेजने के लिए फोटॉन का इस्तेमाल किया जाएगा. फोटॉन एनर्जी से भरे छोटे-छोटे प्रकाश पुंज होते हैं. जो आपके मैसेज को इधर से उधर बेहद आसान और सुरक्षित तरीके से ले जाते हैं.
क्या होते हैं फोटॉन?
लाइट की सबसे छोटी यूनिट फोटॉन है. मैक्स प्लांक की क्वांटम थ्योरी के अनुसार, इससे ही लाइट बनती है. ये जो लाइट है वो एनर्जी के छोटे-छोटे बंडल में चलते हैं. इन्हीं बंडल या पैकेट को फोटॉन या क्वांटम भी कहते हैं. अब फोटॉन जबकि सबसे छोटी इकाई या प्रकाश की मूल इकाई है, इसलिए इसे और छोटा नहीं किया जा सकता यानी कई भागों में नहीं तोड़ा जा सकता.
और क्या फायदे हो सकते हैं?
पूरी दुनिया सहित भारत हर रोज साइबर अटैक की समस्या से जूझता है. साइबर अटैक के मामले इतने बढ़ गए हैं कि लोकसभा में गृह मंत्रालय की ओर से पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में साइबर अटैक के करीब 15.5 लाख मामले हुए हैं जिनमें से करीब 11.58 लाख मामले अकेले 2020 में आए हैं.
- इस तकनीक का इस्तेमाल करने पर इस तरह के साइबर अटैक और बैंकिंग फ्रॉड को रोका जा सकेगा.
- इसके इस्तेमाल से सैटेलाइट सुरक्षित रखी जा सकेंगी क्योंकि पूरी दुनिया इस बात को लेकर चिंतित है कि अगर कोई हैकर किसी सैटेलाइट को ही हैक कर ले तो क्या होगा. अब जबकि ये नया सिस्टम ‘फ्यूचर-प्रूफ’ है तो इस तरह की समस्याओं को खत्म किया जा सकेगा.
- इस नए सिस्टम से सेना से संबंधित जानकारी सुरक्षित रखी जा सकेंगी. जो किसी भी देश की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के लिए अहम होती हैं.
कौन-कौन से देश इस टेक्नोलॉजी पर कर रहे हैं काम
भारत के अलावा चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और कनाडा जैसे देश इस तकनीक का प्रारंभिक स्तर पर इस्तेमाल कर रहे हैं. चीन और अमेरिका ने तो इस फील्ड में काफी इनवेस्टमेंट भी किया है. दोनों के बीच इस बात की होड़ है कि कौन सबसे पहले इस क्षेत्र में ज्यादा मजबूत हो पाता है.
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