सोनभद्र का उम्भा गांव याद है आपको, वही गांव जहां सैकड़ों बीघा जमीन पर कब्जे के लिए 11 आदिवासियों का नरसंहार कर दिया गया था. लेकिन क्या आपको पता है कि नरसंहार की इस कहानी की इबारत 1954 से ही लिखी जानी शुरू हो गई थी और क्या आप जानते हैं कि आदिवासियों की जमीन हड़पने की साजिश 68 साल पहले से ही रची जानी शुरू हो गई थी. ये न सिर्फ उम्भा गांव में मारे गए आदिवासियों को मिले अधूरे इंसाफ की कहानी है, बल्कि अपने रसूख का इस्तेमाल कर गरीब जमीन मालिकों को उनकी ही जमीन से बेदखल करने वाले भ्रष्ट सरकारी सिस्टम को एक्सपोज करने वाली कहानी भी है.
1954 से ही शुरू हो गई थी उम्भा की जमीन हड़पने की साजिश
दरअसल, 17 जुलाई, 2019 को सोनभद्र के ऊम्भा गांव में 11 आदिवासियों की हत्या कर दी गई थी, जबकि 19 लोग घायल हुए थे. जमीन पर कब्जे के लिए हुए इस नरसंहार का आरोप तत्कालीन ग्राम प्रधान यज्ञदत्त और उसके साथियों पर लगा और उन्हें जेल भी भेजा गया. लेकिन ये कहानी इतनी सीधी नहीं है. वकील धर्मेंद्र सिंह बताते हैं कि 17 दिसंबर 1955 से पहले ये जमीन किसी के नाम नहीं थी, बल्कि, ये जंगल खाता, ग्राम सभा खाते में दर्ज थी. रॉबर्ट्सगंज के तत्कालीन तहसीलदार ने आदेश दिया जिससे ये 435 बीघा जमीन सोसाइटी के नाम चली गई. इसके बाद, 7 सितंबर 1989 को वहां पेपर करेक्शन का एक मुकदमा दाखिल हुआ. एसडीएम ने जमीन सोसाइटी से हटाकर विनीता शर्मा और आशा मिश्रा के नाम कर दी. इन लोगों से 17 अक्टूबर 2017 को करीब 150 बीघा जमीन तत्कालीन प्रधान और उनके परिवार के 15 लोगों के नाम रजिस्ट्री कर दी.
जब बैनामा हो गया तो उसका खारिज दाखिल हो गया और वो कब्जा लेने के लिए प्रयास करने लगे. उसी समय यहां भी सर्वे सेटलमेंट की जो कार्रवाई थी, वो शुरु हो गई. उसी आदेश का लाभ लेकर सुनियोजित षड्यंत्र के तहत क्रेता (जमीन खरीदने वाला तत्कालीन प्रधान) ने कब्जा करने का प्रयास किया, जिसका भयावह परिणाम देखने को मिला. सोसाइटी ने जमीन को खरीदा नहीं, फिर अधिकारियों के ही आदेश पर इनको ये जमीन मिल गई. राजा के जो पट्टे की बात आती है, वह प्रकाश में नहीं आया. इनका (आदिवासियों) कहना है कि हमने राजा से पट्टा प्राप्त किया है. लेकिन जमीन के नेचर में पट्टे का उल्लेख कहीं नहीं था. खतौनी जंगल ग्राम सभा के नाम दर्ज थी और उसी के आधार पर ये सब कब्जे के लिए लड़ रहे थे. इन लोगों (आदिवासियों) के परिवार के दादा-परदादा का नाम पड़ताल के समय पाया गया था.धर्मेंद्र सिंह (वकील)
यूपी में जमीन की खरीद-बिक्री के खेल का बिहार कनेक्शन
बताते हैं कि 10 अक्टूबर, 1954 को आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी सपही-उम्भा का गठन हुआ था. बिहार के बड़े जमींदार और पूर्व कांग्रेस नेता महेश्वर प्रसाद नारायण सिंह इसके चेयरमैन थे. उनकी पत्नी पार्वती देवी, बेटी आशा मिश्रा समेत परिवार के 11 लोग सोसाइटी के मेम्बर बनाए गए. महेश्वर प्रसाद यूपी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल चंदेश्वर प्रसाद नारायण सिंह के भाई थे. चंदेश्वर प्रसाद नेपाल में भारत के राजदूत भी थे. सितंबर, 1989 में तत्कालीन SDM ने गैर-कानूनी तरीके से जमीन महेश्वर प्रसाद की बेटी आशा मिश्रा और नातिन विनीता शर्मा के नाम कर दी. आशा मिश्रा रिटायर्ट IAS अधिकारी प्रभात कुमार मिश्रा की पत्नी हैं. प्रभात कुमार मिश्रा रिटायर्ड IAS अधिकारी रामसुचित मिश्रा के बेटे हैं. वहीं विनीता शर्मा रिटायर्ड IAS अधिकारी भानु प्रताप शर्मा की पत्नी हैं. आरोप है कि इसी रसूख के चलते सालों तक आदिवासियों की जमीन की अवैध खरीद-बिक्री का खेल चलता रहा. 17 अक्टूबर, 2017 को आशा मिश्रा और विनीता शर्मा ने 144 बीघा जमीन गाँव के तत्कालीन प्रधान यज्ञदत्त को बेच दी और इसी जमीन पर कब्जे के लिए 11 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया.
उम्भा नरसंहार में अपने परिवार के तीन लोगों को गंवाने वाले रामपति सिंह गौड़ कहते हैं, "हमारे पूर्वज यहां आकर बसे थे, उस समय राजा बड़हर का राज चलता था. उनसे आदेश लेकर हमारे पूर्वजों ने जंगल काटकर यहां अपने घर बनाए. अभी हमारी चौथी पीढ़ी रह रही है. बाप-दादाओं ने सिर्फ जंगल काटा और खेती किया, कागज को ध्यान नहीं दिया, वो लोग इतना समझते ही नहीं थे. जब प्रधान यज्ञदत्त ने उस जमीन को खरीदा, तो हम लोगों को सूचना मिली. हमने सोचा कि जब हमारा मुकदमा चल रहा है, तो अगर वो कब्जा करने आएंगे तो प्रशासन भी रहेगा, राजस्व विभाग भी रहेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. करीब 300 आदमी आए थे और इधर मुश्किल से 60-70 लोग जुटे थे, उन्होंने घंटो फायरिंग की, लाठी-डंडे और पत्थर से भी मारा. उसमें 11 लोगों की जान गई थी, मेरे परिवार से मेरी बहन, बड़ी बहन की बहू और उनका बेटा भी मारा गया. मेरी बीवी को भी पैर में गोली लगी थी, लेकिन भगवान की दया थी कि वो बच गई."
उम्भा के पीड़ितों को सरकार से क्या मदद मिली?
घटना के बाद 7.5 बीघा जमीन मिली, 10 बीघा कहा गया था. किसी ने एक लाख दिया, किसी ने दो लाख दिया, कुल मिलाकर करीब 30 लाख मिला था. उन्होंने कहा कि सरकार ने भले कहा है लेकिन 10 बीघा जमीन देने का नियम नहीं है, साढ़े सात कर देते हैं. आवास कॉलोनी मिल गया है, अब विद्यालय का काम लगा है. पांच बच्चे हैं. छोटा-छोटा बच्चा है, जा रहा है सब पढ़ने, अब हम ही लोग हैं. फोटो देखने पर दिल नहीं मानता (कि बेटा अब जिंदा नहीं है). यही आखिरी फोटो है. रोते-रोते शरीर उखड़ गया, पांच दिन चूल्हे में आग नहीं लगी (खाना नहीं बना था). बच्चे को जन्म देने वाले माता-पिता रह जाएं और बच्चा चला जाए तो नहीं ही न बर्दाश्त होगा. जिसको दर्द रहेगा, उसी के सीने पर पत्थर रहेगा, आंसू सम्भलेगा?हरिवंश लाल (मृतक अशोक के पिता)
इतना फोन किए लेकिन घटना के डेढ़-दो घंटे के बाद पुलिस यहां पहुंची जबकि 100 नंबर आधे घंटे में यहां आ जाती है. इस पर पूरा जांच-मुआयना हुआ, सरकार ने एसआईटी टीम लगाई यहां पर, जमीन निरस्त हुआ, गरीबों को मिली जमीन, लेकिन हमारे जो 11 लोग चले गए, अब तो वो आएंगे नहीं. हम संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि सरकार ने वादा किया था कि मृतकों के परिवार में अगर कोई पढ़ा लिखा योग्य व्यक्ति है तो उसे नौकरी दी जाएगी. और छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए व्यवस्था की जाएगी, लेकिन ये सब तो नहीं हुआ. हां, सरकार ने मुआवजा दिया. आवासीय विद्यालय का काम 15-20 दिन पहले शुरु हुआ है. हमारी मांग है कि हमारा गांव सुरक्षित रहे, जो हुआ सो हुआ लेकिन आइंदा ऐसा न हो.रामपति सिंह गौड़ (पीड़ित, उम्भा गांव, सोनभद्र)
समय रहते सरकार सुन लेती तो 11 लोगों को जान न गंवानी पड़ती
इस घटना के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने SIT का गठन किया. SIT की जांच के बाद गलत तरीके से जमीन ट्रांसफर के आरोप में 16 अधिकारियों समेत 21 लोगों को दोषी माना गया, जिनपर चार्जशीट फाइल करने के लिए सीएम ने सहमति दी थी. इसके आलावा, मुख्यमंत्री ने 21 अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई के भी निर्देश दिए थे. साथ ही, आशा मिश्रा और विनीता शर्मा से करीब 1 करोड़ 10 लाख रुपए सूद समेत वसूलने का आदेश दिया गया था. वहीं, नरसंहार के आरोपियों में से कई लोग फिलहाल जमानत पर बाहर घूम रहे हैं. वकील धर्मेंद्र सिंह कहते हैं कि SIT में सारे लोग नामित थे, उस समय के जिलाधिकारी और सहायक अभिलेख अधिकारी, तमाम ऐसे अधिकारी थे, जो इसमें संलिप्त पाए गए थे. एसआईटी में अभी जांच चल रही है, अभी किसी पर कार्रवाई देखने को नहीं मिली है.
आज भी हजारों हेक्टेयर जमीन यहां के मूल निवासियों की बिना खरीद-बिक्री केवल कब्जे के आधार पर सरकारी कर्मचारियों के रिश्तेदारों के नाम और पूंजीपतियों के नाम दर्ज है. उम्भा तो एक उदाहरण है, अभी तमाम ऐसी समस्याएं हैं, जहां उम्भा जैसी घटना होने की आशंका है. उसके नाम पर इस जिले का शोषण हुआ. 1994 में जो जमीन वन विभाग जो जानी थी, चली गई. जो जमीन किसान को जानी थी, चली गई, तो 1994 से लेकर आज तक धारा 20 का प्रकाशन क्यों नहीं हुआ? इसमें कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी की भी सरकार रही और आज भी इनकी सरकार है.धर्मेंद्र सिंह (वकील)
उम्भा नरसंहार से 6 महीने पहले ही एनडीए के सहयोगी अपना दल के विधायक हरिराम चेरो ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस पूरे मामले से अवगत कराया था. साथ ही, गांव के लगभग 1200 लोगों ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र लिखकर भी मदद की गुहार लगाई थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई उम्भा नरसंहार के ढाई साल बीत जाने के बाद भी आज तक मृतकों के आश्रित परिजन सरकार की तरफ से की गई मदद से संतुष्ट नजर नहीं आते हैं. खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस गांव में आवासीय विद्यालय और पुलिस चौकी बनाने का ऐलान किया था, लेकिन ढाई साल से ज्यादा का समय बीत गया है और आवासीय विद्यालय के नाम पर चुनाव से महज कुछ दिन पहले इस गांव में नींव डालने का काम हुआ है. पुलिस चौकी भी अभी बनकर तैयार नहीं है, कुछ महीनों पहले ही वहां काम शुरु हुआ है.
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