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बुंदेलखंड के तीन जिलों में डेढ़ साल के अंदर 408 खुदकुशी, हर मौत की वजह एक सी

यूपी के बुंदेलखंड के सिर्फ तीन जिलों में पिछले डेढ़ साल में 408 किसानों और प्रवासी मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो गई

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सरिता ने रोते हुए कहा, "मैं उस कमरे में नहीं जाती जहां उन्होंने खुद को फांसी लगाई थी. जब मैं जाती हूं तो मेरा दिल धड़कता है जैसे कि यह फट जाएगा. मैं उस दरवाजे को बंद रखती हूं क्योंकि मैंने उनका शरीर लटका हुआ देखा था. सरिता एक प्रवासी मजदूर की 21 साल की विधवा हैं और दो साल के लड़के की अकेली मां हैं. सरिता के पति अजय ने जुलाई 2020 में फांसी लगा ली थी.

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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के सबसे गरीब क्षेत्र बुंदेलखंड के केवल तीन जिलों- बांदा, महोबा और चित्रकूट में आत्महत्या से मरने वाले 408 अन्य किसानों और प्रवासी मजदूरों की सूची में अजय कुमार का भी नाम है.
यूपी के बुंदेलखंड के सिर्फ तीन जिलों में पिछले डेढ़ साल में 408 किसानों और प्रवासी मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो गई

सरिता उस कमरे में खड़ी थी जहां उनके पति अजय ने फांसी लगा ली थी.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

अजय कुमार 24 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर थे, जो गुजरात के वडोदरा में एक एल्युमीनियम प्लांट में काम करते थे. मार्च 2020 में कोरोना वायरस आने के बाद पूरी देश में लगे लॉकडाउन के दौरान वो मई 2020 में उत्तर प्रदेश के बांदा में अपने गांव पहुंचने के लिए 15 दिनों की पैदल दूरी पर थे.

वापस लौटने के बाद, अजय ने अपने परिवार पर कर्ज बढ़ने के कारण रोजगार की तलाश की. एक महीने बाद अजय ने हार मान ली और अपने ही घर में फांसी लगाकर जाने दे दी. उन्होंने अपने पीछे पत्नी, दो साल का बेटा और छह लोगों का परिवार छोड़ दिया.

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सरिता ने छत की ओर इशारा करते हुए कहा...यह जो बांस आप देख रहे हैं, यहीं पर उन्होंने खुद को लटका लिया," मैं अब इस कमरे में नहीं आती हूं.”

यूपी के बुंदेलखंड के सिर्फ तीन जिलों में पिछले डेढ़ साल में 408 किसानों और प्रवासी मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो गई

सरिता अपने मोबाइल फोन पर अपनी और अपने पति की फोटो दिखाती हुई.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

किसान और प्रवासी मजदूरों ने खुद को क्यों मारा?

अजय जैसे सैकड़ों किसानों और प्रवासी मजदूरों को अपनी जान लेने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा? जमीनी स्तर पर सामने आई आत्महत्याओं की कहानियों के बीच तीन मुख्य कारण समान थे- बेरोजगारी, भूमिहीनता और खेती में भारी नुकसान, और मनरेगा के तहत कोई काम और भुगतान न मिलना.

इन सभी वजहों से किसानों पर भारी कर्ज हो गया, जिससे रोजमर्रा का भरण-पोषण एक चुनौती बन गया और यहां तक कि एक दिन में दो समय का भोजन भी करना एक संघर्ष बन गया.

सरिता ने कहा...

अगर कोरोना के कारण लॉकडाउन नहीं होता तो वो खुद के साथ ऐसा नहीं करते. अगर उन्हें कुछ काम मिल जाता तो वह हमारे आसपास होते. यहां, हमारे साथ.
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यूपी के बुंदेलखंड के सिर्फ तीन जिलों में पिछले डेढ़ साल में 408 किसानों और प्रवासी मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो गई

अजय कुमार

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

सरिता ने आगे याद करते हुए बताया कि गांव वापस आने के बाद, उन्होंने काम की तलाश शुरू की, लेकिन कुछ नहीं मिला, वह बहुत तनाव में थे. उन्हें लॉकडाउन के दौरान कर्ज भी चुकाना पड़ा. वो रोज काम की तलाश में जाते थे और खाली हाथ वापस आते थे. यही उनकी सबसे बड़ी चिंता थी.

"कोई काम नहीं मिला, वो सुबह निकल जाते थे और मायूस होकर वापस आ जाते थे."

यूपी के बुंदेलखंड के सिर्फ तीन जिलों में पिछले डेढ़ साल में 408 किसानों और प्रवासी मजदूरों की आत्महत्या से मौत हो गई

अखबार का लेख जिसमें अजय की आत्महत्या की खबर छपी थी.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

2020 में आत्महत्या का आंकड़ा 2019 की तुलना में अधिक था

बुंदेलखंड के बांदा में विद्या धाम समिति के साथ काम करने वाले एक क्षेत्रीय कार्यकर्ता राजा भैया ने बताया कि एक मजदूर की लाश लटकी मिली...यह मामला तेंदुआरी गाँव का है. उन्होंने एक फाइल से सुर्खियाँ पढ़ीं, जिसमें पिछले डेढ़ साल में सैकड़ों अखबारों की कतरनें इकट्ठा की गई थीं.

वो अखबार की कतरनों को पढ़ रहे थे....'युवा प्रवासी मजदूर की आत्महत्या से मौत'

'कर्ज में डूबे किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली'

'प्रवासी मजदूर की लाश लटकी मिली'

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राजा भैया ने कहा कि यह वह फाइल है जहां हमने अखबारों की रिपोर्ट्स के माध्यम से इन मौतों का डॉक्यूमेंटेशन किया है.

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वह फाइल जहां अखबारों में आत्महत्याओं की खबरें इकट्ठा की गई हैं.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

राजा भैया ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान गांव वापस चले गए सभी मजदूर काम मांगते रहे लेकिन कुछ नहीं मिला. जब उनके परिवारों के लिए स्थिति खराब हो गई, तो उन्होंने कर्ज लिया. इनमें से अधिकतर भूमिहीन मजदूर थे और उनके पास आय का कोई और जरिया नहीं था. कई किसानों को लोन भी नहीं मिल सका. इन वजहों से मजदूरों ने अपनी जान ले ली.

राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बयान देते हुए कहा कि साल 2020 में बेरोजगारी, दिवालियेपन या लोन के कारण 8,761 लोगों ने आत्महत्या की.

2020 में आत्महत्या की संख्या 2019 की तुलना में 24% अधिक थी.

गृह मंत्रालय के मुताबिक 2018 और 2020 के बीच फाइनेंसियल क्राइसिस के कारण 25,251 लोगों की जान चली गई.

अजय के पड़ोसी संजय ने कहा कि अजय ने आर्थिक तंगी के कारण खुद को फांसी लगा ली. वह लॉकडाउन में घर आ गया, यहां कोई काम नहीं था. एक दिन वह शाम को वापस आया और खुद को फांसी लगा ली.

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सरिता अपने दो साल के बच्चे आदेश के साथ.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

आत्महत्या से मरने वाले अजय जैसे अन्य लोगों की भी ऐसी ही कहानियां हैं

पंद्रह साल की राखी ने बताया कि किसी दिन काम था, कुछ दिन नहीं था. इसलिए वह तनाव में थे. जब मैंने दरवाजा खोला, तो मैंने अपने भाई को फांसी पर लटका हुआ देखा.

राखी के भाई, बीस वर्षीय प्यारे लाल की जून 2020 में आत्महत्या से मृत्यु हो गई.

वो एक किसान थे जो ट्यूशन क्लास भी पढ़ाते थे और जब लॉकडाउन के दौरान वह बंद हो गया, तो उन्होंने समोसा बेचना शुरू कर दिया.

प्यारे अपने पीछे दो बहनों के साथ 3 सदस्यों का परिवार छोड़ गए हैं जो पूरी तरह से उन पर निर्भर थीं.

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राखी, अपनी दो बहनों के साथ

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

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फाइलेंसियल तनाव- द कॉमन लिंक

रज्जू प्रसाद गुजरात के सूरत में काम करने वाले 23 वर्षीय मजदूर थे. मार्च 2020 में बांदा स्थित अपने घर पहुंचने के 15 दिन बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली.

रज्जू की साठ वर्षीय मां जलकेशा याद करते हुए कहती हैं कि जब वह वापस आया तो उसे यहां कोई काम नहीं मिला, उसने वहां कुछ पैसे कमाए लेकिन उसे वापस आना पड़ा. फिर वह यहां 15 दिन रहा, उसने मुझसे कहा 'मां, कुछ नहीं है, हम क्या खाएंगे. सरकार कोई काम नहीं देती है, हम भूख से मर जाएंगे.''

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जलकेशा, रज्जू की माँ रसोई में खाना बना रही हैं.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

रज्जू के 18 वर्षीय भाई कमलेश एक दिहाड़ी मजदूर हैं, उन्होंने कहा कि मेरे भाई को इस बात की चिंता थी कि उसे पैसे कहां से मिलेंगे. वह लॉकडाउन के कारण गुजरात वापस नहीं जा सका. उसके बॉस ने उससे कहा था कि 'मैं तुम्हें एक रुपया नहीं दूंगा, तुम अपने गांव वापस जाओ.' क्या उसे कोई काम मिला गांव में? नहीं! उसे यहां आकर बेकार बैठना पड़ा, इसलिए वह सोचता रहा और फिर अपनी जान ले ली."

कमलेश के भाई के अपने दुखद किस्मत से मिलने के बाद भी, इस परिवार के लिए स्थिति जस की तस बनी हुई है.

कमलेश ने बताया कि अस्पताल में इलाज के लिए पैसे नहीं हैं, मेरे पास एक रुपया भी नहीं है. हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है.
मेरे पास पैसे नहीं हैं, मुझे बताओ कि मैं क्या करूँ? कोई काम नहीं है. अगर ये मुसीबतें बनी रहीं तो मैं भी वही करूंगा जो मेरे भाई ने किया था.
कमलेश
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रज्जू के भाई कमलेश अपनी मां जलकेश के साथ.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

इन गांवों में रोजगार के अवसर नहीं हैं, मनरेगा के तहत कोई काम उपलब्ध नहीं है और कृषि के माध्यम से कमाई निराशाजनक है.

ऊषा निषाद एक सामाजिक कार्यकर्ता और दिहाड़ी मजदूर हैं, उन्होंने कहा कि हमारे गांव में 95% लोग प्रवासी मजदूर हैं. जब प्रवासी श्रमिक लॉकडाउन के दौरान वापस आए, तो उन्हें कोई काम नहीं दिया गया, मनरेगा के तहत भी कुछ नहीं. यहां तक ​​कि जब मनरेगा के तहत दो-तीन दिनों के लिए काम उपलब्ध था, तो पैसे निकालने के लिए फर्जी जॉब कार्ड और मजदूरों को केवल 500 रुपये दिए गए, लेकिन अधिकांश को कोई काम नहीं मिला.

ये कहानियां और आंकड़े परेशान करने वाले हैं. ये केवल रिपोर्ट की गई मौतें हैं, मौतों की वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक हो सकती है.
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राजा भैया ने कहा कि ये वे मौतें हैं जहां पोस्टमार्टम किया गया था और अखबारों में रिपोर्ट छपी थी. पुलिस मामले के डर से कई आत्महत्याओं की मौत की सूचना नहीं दी जाती है और शवों का गुप्त रूप से अंतिम संस्कार किया जाता है. हमारे पास यह डेटा नहीं है, वास्तविक संख्या अधिक होनी चाहिए.

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दो साल के बेटे के साथ बैठी अजय की मां.

(फोटो- साधिका तिवारी/द क्विंट)

जिन परिवारों से हमने बात की, उनमें से किसी को भी सरकार से कोई मुआवजा या समर्थन नहीं मिला. इन परिवारों को लगातार कर्ज और गरीबी में धकेला जा रहा है.

सरिता ने कहा कि ऐसा करने के लिए मुझे उस पर गुस्सा आता है. उसे मुझे या परिवार को कुछ बताना चाहिए था, हमें कुछ समाधान मिल जाता.

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