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कर्नाटक के नतीजों में छिपी ये 5 चीजें 2019 की पूरी झांकी हैं

आंकड़े साफ तौर पर इसकी गवाही दे रहे हैं कि मोदी की चुनावी लहर उतार पर है.

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सियासी गलियारों में एक कहावत है कि कर्नाटक जीतने वाला देश का चुनाव हार जाता है. इसे इसी तरह का सच माना जाना जाता था, जैसे कभी कहा जाता था कि जो ओहियो जीतता है, वो अमेरिका भी जीतता है. लेकिन कर्नाटक में किसी को जीत नहीं मिली है. इस हिसाब से देखें, तो 2019 का गेम ओपन है, जो एक अनजान मैदान में खेला जाना है.

बहरहाल, ये वो पांच चीजें, जिन्होंने कर्नाटक चुनाव के नतीजों में 2019 में होने वाले चुनाव के बाद के समीकरणों की झलक दिखा दी.

1. मोदी लहर कमजोर हो रही है

आंकड़े साफ तौर पर इसकी गवाही दे रहे हैं कि मोदी की चुनावी लहर उतार पर है. प्रधानमंत्री ने कर्नाटक चुनाव में खुद को लगभग पूरी तरह झोंक दिया था.

  • लेकिन तूफानी प्रचार के साथ मोदी के नेतृत्व में लड़े गए कर्नाटक चुनाव में सीटों की संख्या 104 पर आकर ठहर गई.
  • जबकि 2008 में येदियुरप्पा के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में बीजेपी को 110 सीटें हासिल हुई थीं. उस चुनाव में कोई लहर भी नहीं थी. क्या अब भी आप कल के नतीजे को 'मोदी लहर' कहेंगे?
  • इस आंकड़े की तुलना 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों से करें, जब मोदी लहर चल रही थी. यह तस्वीर को और साफ कर देती है. कर्नाटक चुनाव में बीजेपी को 36 फीसदी वोट मिले. यह लोकसभा में पार्टी को मिले 43 फीसदी वोट से सात पर्सेंटेज प्वाइंट कम हैं.
  • 2014 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को 135 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल थी. लेकिन कल इसे सिर्फ 104 सीटों पर कामयाबी मिली. और पहली बार वोट देने वालों की तादाद में इजाफे के बावजूद बीजेपी को मिले कुल वोटों की तादाद 1.33 करोड़ से घटकर 1.31 रह गई. ( जबकि कांग्रेस के वोट 1.26 करोड़ से बढ़कर 1.38 करोड़ हो गए). क्या अब भी आप इसे मोदी लहर कहेंगे?
  • बीजेपी के पसंदीदा बेंगलुरु जैसे शहरी क्षेत्र में इसकी सीटें 2008 की 19 सीटों की तुलना में घटकर 11 पर आ गईं. क्या यह लहर है?

मैं बगैर कोई टिप्पणी किए आगे बढ़ना चाहूंगा. तथ्यों को खुद बोलने दें.

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2. कांग्रेस का वोट शेयर बढ़ेगा, लेकिन यह बहुमत से दूर रहेगी

2019 में यही होने वाला है. जहां तक संसदीय सीटों का सवाल है, तो कांग्रेस का बहुत अच्छा प्रदर्शन भी इसे 150 से थोड़े कम सीटों पर रोक देगा. कांग्रेस अगर केंद्र में सरकार बनाना चाहे, तो उसे क्षेत्रीय दलों से सौदेबाजी करनी होगी, जैसा कि इसने कर्नाटक चुनाव एचडी कुमारस्वामी के जनता दल (सेक्‍युलर) से की है.

कांग्रेस इस तरह की सौदेबाजी के बाद गठबंधन का नेतृत्व करेगी या जूनियर पार्टनर बनी रहेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि यह 150 सीटों के कितना करीब पहुंच पाती है.

3. मोदी निरपेक्ष पार्टियों को दोनों ओर से फायदा हो सकता है

देश में कुछ क्षेत्रीय पार्टियां 'मोदी निरपेक्ष' हैं. कहने का मतलब यह है कि ये किसी से भी सौदा कर सकती हैं. कर्नाटक में कुमारस्वामी को मिले मौके से यह साफ है. इसी तरह 'समान दूरी' बनाए रखने वाली कुछ दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां हैं- तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगूदेशम पार्टी, शिवसेना, अन्नाद्रमुक, द्रमुक, जनता दल (यूनाइटेड), इंडियन नेशनल लोकदल और कुछ दूसरी छोटी पार्टियां.

इनके लिए सबसे अच्छा यह होगा कि ये 2019 के चुनाव के बाद केंद्र में बनने वाली सरकार में शामिल रहें, चाहे वो यूपीए की सरकार हो या एनडीए या फिर तीसरे मोर्चे की अगुआई वाली. इनके लिए ये 'पांचों उंगलियां घी में' वाली बात होगी.

4. मोदी विरोधी क्षेत्रीय दल 'किंग' भी बन सकते हैं, 'किंगमेकर' भी

कुछ क्षेत्रीय पार्टियों को लिए मोदी का साथ देना राजनीतिक तौर पर संभव नहीं होगा. इनमें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, कम्‍युनिस्‍ट पार्टियां, राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और एयूडीएफ शामिल हैं. उनके लिए सबसे अच्छा दांव 1996 में बने संयुक्त मोर्चा जैसा कोई मोर्चा होगा, जब कमजोर कांग्रेस क्षत्रपों की अगुवाई वाली केंद्र सरकार को समर्थन देने के लिए मजबूर हुई थी.

हालांकि 2019 में कांग्रेस अगर 150 सीटों के करीब पहुंच पाई, तो क्षत्रपों को राहुल गांधी की अगुआई वाली सरकार को समर्थन करना होगा.

5. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद करेंगे फैसला?

आखिर में मामला राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास भी आ सकता है. यह ठीक कर्नाटक में गवर्नर वजुभाई वाले के सामने पैदा हुई स्थिति जैसी होगी. राष्ट्रपति क्या फैसला करेंगे? यह जानने के लिए हमें मई 2019 का इंतजार करना होगा.

बहरहाल, यह साफ है कि कर्नाटक में कल जो हुआ, वह उस फिल्म का ट्रेलर है, जो अगले साल आम चुनाव के बाद दिखेगी. फिलहाल तो इस शो का मजा लें.

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