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इलाहाबाद को प्रयागराज बनाना जनभावना है या UP सरकार की मनमर्जियां?

योगी आदित्यनाथ कल तक रंग बदलने में व्यस्त थे, आज नाम बदलने में मसरूफ हैं.

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जहां संगम पर नदियां एक दूसरे से हर रोज गले मिलती हों, जहां तहजीबें गुत्थमगुत्था हों, जहां अकबर इलाहाबादी किसी तबके का नहीं एक शहर का महबूब शायर रहा हो. वहां इलाहाबाद को प्रयागराज बनाकर आखिर क्या संदेश देना चाहती है योगी सरकार?या कहीं एक बार फिर, एक शहर के 12 लाख से ज्यादा बाशिंदों को चुनावी प्रयोगशाला मतलब लेबोरेटरी की टेस्ट-ट्यूब में डालकर कोई बड़ा खेल तो नहीं खेला जा रहा... लगता तो यही है.

घर से दफ्तर तक, बस से पंडाल तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कल तक रंग बदलने में व्यस्त थे, आज नाम बदलने में मसरूफ हैं.

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आस्था की गोली हर मर्ज की दवा

चुनाव सिर पर हैं. अक्सर जब चुनाव सिर पर होते हैं तो तर्क यानी लॉजिक पैरों में पड़ा होता है. तर्कों के नए तीर, आस्था की आंधी पर सवार होकर यहां, वहां हर तरफ भेज दिए जाते हैं. जिनका काम हमको, आपको ये साबित करना होता है कि नाम बदलना सरकारी काम नहीं बल्कि हमारा, आपका यानी जनभावना का सम्मान है. मतलब पब्लिक सेंटीमेंट नाम की भी तो कोई चीज है..

जनभावना या चुनाव जीतना?

जनभावना? बड़ा विचित्र शब्द है. शायद, सियासत की दुनिया का सबसे लचीला मैटेरियल. जैसे चाहो, इस्तेमाल करो. न टूटता है, न मिटता है.

चलिए आपको कुछ कड़वे सच से रूबरू कराते हैं..

जब प्रदेश की राजधानी के एक चौराहे पर बेगुनाह को गोली मार दी जाए और लोग बेहद गुस्से में हों तो भी बड़े अफसर बच निकलते हैं क्योंकि वहां जनभावना शायद सीएम की कुर्सी के पाए के नीचे दब जाती है. जब खाकी वर्दी वाले मुंह से ठांय-ठांय करके जगहंसाई करवाते हैं तो जनभावना कहीं बुलेट खाए पड़ी होती है. जब अस्पतालों में ऑक्सीजन न पहुंचने से मासूम मरते हैं और मांएं सिसकती हैं तो उनकी भावनाएं उनके पल्लू में दम तोड़ देती हैं. जब गांव के गांव मलेरिया की चपेट में आकर लाशों के ढेर में बदल रहे हों, तब जनभावना की लाश पोस्टमॉर्टम के इंतजार में रहती है.
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नाम बदलकर दीवारें खड़ी करने की कोशिश

शक तो तब भी हुआ था जब कुछ महीने पहले पूरे तामझाम के साथ मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर दीन दयाल उपाध्याय जंक्शन किया गया. लगा कि कहीं कोई सिलसिला न बन जाए. अब वो शक, हकीकत बनकर सामने खड़ा है.

नाम बदलने के इस खेल में बड़ी लकीरें खींची जा रही हैं. मजहबों के बीच दीवारें खड़ी करने का काम किया जा रहा है. इसे बहुत ध्यान से देखने और समझने की जरूरत है. क्योंकि ये न तो गुड़गांव का गुरुग्राम होना है और न पूना का पुणे. ये ढूंढ़-ढूंढ़कर खास नामों को बदलने के सियासी पैंतरे हैं जिनसे आने वाले चुनावों में फायदे की उम्मीद की जा रही है. नामों का बीज बोकर, वोट की फसल काटने का ये जुगाड़ शर्मनाक है.

हो सके तो इस पूरे खेल को समझिए, इससे बचिए, इसका विरोध करिए. क्योंकि एक शहर सिर्फ नाम नहीं होता. वो पहचान होता है, याद होता है और इलाहाबाद तो गंगा-जमुनी तहजीब के सबसे मजबूत दस्तखतों में से एक है.

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