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नोटबंदी के 3 बड़े साइड इफेक्ट और एक ‘फायदा’ जो बोला पर हुआ नहीं 

नोटबंदी को जिस चश्मे से देखो उसी से नुकसान दिखता है

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वीडियो एडिटर- विशाल कुमार

नोटबंदी को कई चश्मों से देखा गया है. कुछेक को छोड़कर बाकी सबसे अभी तक तो यही दिखा है कि इससे जितना फायदा हुआ उससे काफी ज्यादा नुकसान ही हुआ है.

फायदा-नुकसान के अलावा कुछ साइड-इफेक्ट भी हैं. रिजर्व बैंक की सालाना रिपोर्ट में हमें उनकी झलक मिलती है.

सबसे बड़ा साइड-इफेक्ट

कैश पर लोगों का भरोसा पहले से ज्यादा बढ़ा

घरेलू सेविंग्स का सबसे बड़ा हिस्सा अब कैश में है. उतना ही बड़ा जितना की बैंक में डिपॉजिट के रूप में है. यह कितना बढ़ा है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 2017-18 में घरों में रखा कैश का लेवल पिछले पांच साल के औसत से दोगुने से ज्यादा है. इसके ठीक उलट, लोग जितना पैसा बैंक में रखते थे अब उसकी आधी रकम ही सेविंग्स अकाउंट में रखने लगे हैं.

इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा लगाने के लिए रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के कुछ शब्दों को पढ़िए. कहा गया है कि घरेलू सेविंग्स अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए सबसे जरूरी सोर्स है.

नोटबंदी को जिस चश्मे से देखो उसी से नुकसान दिखता है

यह सोर्स ड्राई हो जाए तो समझिए इसका मतलब. निवेश में कमी, मतलब रोजगार के मौकों में कमी और फिर इकॉनोमी की रफ्तार में कमी. घर में कैश का मतलब उतना रकम निवेश के लिए उपलब्ध नहीं होगा. ध्यान रहे कि रिजर्व बैंक की परिभाषा के हिसाब से घरेलू में पूरा इनफॉर्मल सेक्टर आता है.

दूसरा साइड इफेक्ट

देश की मैन्यूफेक्चरिंग सेक्टर पर नोटबंदी की मार अभी तक खत्म नहीं हुई है.

रिजर्व बैंक से सलाना रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रॉस वैल्यू एडिशन ग्रोथ में इंडस्ट्री का हिस्सा 2015-16 में 33 परसेंट का था जो 2017-18 में घटकर 20 परसेंट रह गया. मतलब यह कि इकॉनोमी की रफ्तार में मैन्यूफैक्चरिंग का योगदान नोटबंदी के बाद काफी कम हो गया. दूसरे शब्दों में देश का मैन्यूफैक्चरिंग नोटबंदी के बाद कराहने लगा. और इसमें बढ़ोतरी की रफ्तार पिछले दस साल के औसत से अब भी कम है.

मैन्यूफैक्चरिंग की सुस्ती का सीधा असर जॉब क्रिएशन से है. इसमें सुस्ती मतलब नौकरी के मौकों में कमी.

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नोटबंदी का तीसरा साइड इफेक्ट

बैंकों से कर्ज लेने वाले नहीं है.

याद कीजिए नोटबंदी के कुछ महीने बाद क्रेडिट ग्रोथ मार्च 2017 में यह ऐतिहासिक लो लेवेल पर पहुंच गई थी. तब से रिकवरी तो हुई है लेकिन मामूली ही. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के हिसाब से इंडस्ट्री को देने वाले लोन की रफ्तार में बढ़ोतरी की रफ्तार 2018 में भी 1 परसेंट से कम है. इसमें छोटे और मझोले इंडस्ट्री को मिलने वाला लोन भी शामिल है.

इंडस्ट्री को मिलने वाला लोन एसेट बनाने के लिए होता है, बिजनेस बढ़ाने के लिए होता है. अगर इस सेक्टर में लोन बढ़ने की रफ्तार ऐसी है तो फिर सोच लीजिए कारोबार कैसे बढ़ रहे होंगे और नौकरियों के मौके कैसे पैदा हो रहे होंगे.

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नोटबंदी को जिस चश्मे से देखो उसी से नुकसान दिखता है

नोटबंदी से हमें मिला क्या?

टैक्स कलेक्शन में बढ़ोतरी हुई. इसमें हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यूपीए 2 के शासन में टैक्स कलेक्शन में बढ़ोतरी उसी रफ्तार से हो रही थी जिस रफ्तार से देश का जीडीपी बढ़ रहा था. एनडीए सरकार के पहले दो साल में इसमें भारी गिरावट हुई. अब पिछले दो साल से यह बदलने लगा है.

कुल मिलाकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एनडीए के शासन काल में टैक्स कलेक्शन में बढ़ोतरी की दर औसतन वही रहेगी जिस रफ्तार से देश की जीडीपी बढ़ी है.

तो फिर क्या इसको नोटबंदी के बाद का चमत्कारिक बदलाव माना जा सकता है? और क्या इस फायदे से इतने सारे नुकसान और साइड इफेक्ट्स की भरपाई हो पाएगी?

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