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चमकी बुखार:जब सरकारी सिस्टम ‘कोमा’ में था, इन युवाओं ने बढ़ाया हाथ

सोशल मीडिया पर छेड़ी गई मुहीम.

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वीडियो एडिटर- पूर्णेंदू प्रीतम

वीडियो प्रोड्यूसर- कौशिकी कश्यप

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“रोज एक तस्वीर आ जाती थी, बुखार से बच्चों के मरने की, बहुत बेचैनी होती थी. समझ नहीं आ रहा था हो क्या रहा है. जब तक सेमेस्टर (परीक्षा) चल रही थी तब तक बर्दाश्त किया. लेकिन जैसे ही एग्जाम खत्म हुआ हमलोग बस पकड़कर मुजफ्फरपुर पहुंच गए. लेकिन यहां अस्पताल की हालत डराने वाली थी.” ये बातें मीडिया की छात्रा कनक भारती बताती हैं. दरअसल, बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार की वजह लगातार बच्चों की मौत हो रही थी. इन मौतों ने सरकारी कामकाज की पूरी कलई खोल दी थी.

जब सरकारी सिस्टम लोगों को बेहतर सुविधा देने में नाकाम था तब कनक की तरह ही कई युवाओं ने लोगों की मदद का रास्ता चुना. कई संगठन, छात्रों के ग्रुप, नौकरीपेशा लोग बिना किसी बैनर के एक साथ मिलकर लोगों की मदद करने लगे.

सोशल मीडिया पर छेड़ी गई मुहिम

मुजफ्फरपुर के हालात पर समाज सेवक और छात्र अनिल बताते हैं,

जब हमने सोशल मीडिया के जरिये सुना कि चमकी बुखार की वजह से कई बच्चों की मौत हो रही है, तो हमने सबसे पहले SKMCH अस्पताल का दौरा किया. यहां हमने देखा कि शौचालय की व्यवस्था नहीं थी. ताले लगे थे. हमने ताले खुलवाए. सफाईकर्मी 10 रुपये लेकर शौचालय इस्तेमाल करने दे रहे थे. उसे हमने बंद करवाया. डॉक्टरों के पास ग्लव्स नहीं थे. हेड गियर नहीं थे. बहुत सी दिक्कतें थीं, हमने उसे महसूस किया. फिर तमाम साथियों ने मिलकर कुछ पैसे इकट्ठे किए. डॉक्टरों और नर्सों को मेडिकल किट मुहैया कराया.

पैसों का कैसे हुआ इंतजाम?

सोशल मीडिया के जरिए कई युवा मुजफ्फरपुर पहुंच तो गए थे लेकिन पैसे के बिना लोगों की मदद करना एक मुश्किल काम था. इसलिए इन युवाओं ने लोगों से सोशल मीडिया के जरिए पैसा जमा करना शुरू किया. सिविल इंजीनियरिंग के छात्र, अंजार अहमद राजी बताते हैं, “शुरुआती दौर में हमने खुद अपने पैसों से किया. लेकिन जब जरूरत बढ़ती गई और जिस तरह के हालात हमने देखे, उसके बाद लोगों के पास जाकर, उनसे बात करके, सोशल मीडिया की मदद से और जगह-जगह घूमकर लोगों से पैसे मांगे. फिर लोगों से मदद मिली, इससे हमारा हौसला बुलंद हुआ.”

सिर्फ पैसे से मदद ही नहीं, जागरुक करने का भी कर रहे हैं काम

इन छात्रों ने सिर्फ पैसे से ही नहीं बल्कि गांव-गांव में घूमकर लोगों को जागरुक करने का काम किया है. पत्रकारिता के छात्र, सोमू आनंद बताते हैं,

हम लोग गांव में जाते हैं. लोगों से पूछते हैं कि क्या उन्हें चमकी बुखार के बारे में जानकारी है? उन्हें बताते हैं कि क्या करें, क्या न करें. गंदगी से बचें. तमाम छोटी-छोटी चीजें जिससे ये बीमारी फैल रही है. उसके बारे में उन्हें जागरुक करते हैं. अपने स्तर से ग्लूकोज, ORS बांटते हैं. कई मोहल्ले, टोले ऐसे हैं जहां 100 लोगों की आबादी है. लेकिन थर्मामीटर से बुखार मापना किसी को नहीं आता. हम उन्हें सिखाते हैं. कुछ लोगों को चुनते हैं, थर्मामीटर बांटते हैं और बताते हैं कि वो लोगों से लगातार जुड़े रहें, बुखार वगैरह चेक करते रहें.

भले ही इस त्रासदी में ये युवा साथ आकर लोगों की मदद कर रहे थे लेकिन सवाल ये है कि लचर पड़े सिस्टम को सहारा देने की कोशिश कब तक? कब तक सरकार की नाकामियों के लिए लोगों को जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी? उम्मीद है सरकार अपनी नाकामी से सीख लेगी और आने वाले दिनों में इस तरह का बीमारी बच्चों की जान न ले. इसका इंतजाम करेगी.

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