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किसान आंदोलन में नया मोड़, सरकार के पास क्या है तोड़?

किसान आंदोलन काफी ज्यादा नाजुक मोड़ पर खड़ा है

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किसानों का आंदोलन एक नए रोचक और नाजुक मोड़ पर पहुंच चुका है. गृहमंत्री अमित शाह जब खुद हस्तक्षेप कर रहे थे, 5 राउंड की बातचीत हो गई थी और किसानों की मांगों के सामने कुछ बातों को माने के लिए आश्वासन देने के प्रस्ताव को भी किसान नेताओं ने रिजेक्ट कर दिया. ये सरकार पहले भी कई आंदोलन पचा चुकी है, इस आंदोलन को वो कैसे हजम करेगी, आपने देखा कि उसके सामने किसान तो और गर्म हो गए हैं. अब सवाल खड़ा हो गया है कि आंदोलन कैसे खत्म होगा?

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किसानों ने कहा है कि हम कृषि कानूनों के पूरी तरह से रद्द हो जाने के बगैर नहीं मानेंगे और आगे का एक प्लान भी बता दिया है. जिसमें दिल्ली आने के सारे रास्ते बंद करने, बीजेपी नेताओं और उनके दफ्तरों की घेराबंदी और प्रदर्शन को तेज करने की बात कही गई. इस तरह किसानों ने अपना आगे का पूरा कैलेंडर सामने रख दिया है.

किसानों की मांगों पर सरकार का जवाब

सबसे पहले देख लेते हैं कि सरकार ने क्या-क्या बातें मानीं. किसानों ने कहा था पूरा कानून रद्द कीजिए, तो उन्होंने कहा कि रद्द नहीं करेंगे विचार कर लेंगे. किसानों ने कहा कि MSP पर कानूनी गारंटी दीजिए सरकार ने कहा हम कुछ लिखित में आश्वासन दे देंगे.

किसानों की मांग थी कि अगर खरीददार और बेचने वाले के बीच कोई विवाद हो तो उसका निपटारा कोर्ट में होना चाहिए न कि एसडीएम के पास, इस पर सरकार ने कहा कोर्ट में जाने का एक विकल्प दे देंगे लेकिन एमडीएम वाली व्यवस्था भी जारी रहेगी.

किसानों ने कहा कि सिर्फ पैन कार्ड के आधार पर खरीदार आकर के खरीद करें इसमें धोखे की गुंजाइश है. तो जवाब में केंद्र सरकार ने कहा राज्य सरकारों को विकल्प दे देंगे कि वो भी अपना एक रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं. इसी तरीके से करारनामे रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था पर कहा गया कि 30 दिन के अंदर एसडीएम के पास जाकर कॉन्ट्रैक्ट की कॉपी जमा कराई जा सकती है. किसानों को डर है कि कानून के बाद किसानों की जमीन कुर्क हो सकती है, इस पर केंद्र का जवाब है कि कुर्की नहीं हो सकती है इसके लिए हम क्लेरिफाई कर देंगे.

ये कुछ मूल मुद्दें हैं जिन पर सरकार की तरफ से जवाब आया है. अब इससे क्या पता चलता है, इससे पता चलता है कि कानून में कमियां थीं खोट थी. जिसको अब वो स्वीकार कर रहे हैं और अगर आंदोलनकारी तोप मांग रहे हैं तो जवाब में उन्हें एक तमंचा दे रहे हैं.

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आंदोलन में दो नए ट्विस्ट या दो धारी तलवार

यह किसान आंदोलन अभी तक बहुत प्रामाणिक रूप से चला है, लेकिन आज एक नया ट्विस्ट आया, जो आंदोलन के लिए दो धारी तलवार भी है. एक तरफ विपक्ष जो पहले इसको बाहर से देख रहा था अब इस आंदोलन का समर्थन कर रहा है और वो इस मामले पर राष्ट्रपति के पास गया. इस विपक्षी डेलीगेशन में राहुल गांधी, शरद पवार सीताराम येचुरी, डी राजा वगैरह शामिल थे. मुलाकात के बाद इन नेताओं ने साफ कहा कि ये कृषि बिल संसद में बिना चर्चा के बिना सिलेक्ट कमिटी में भेजकर पास कराए गए हैं. संसद की अनदेखी हुई है बहस नहीं हुई है इसलिए इस कानून को वापस लिया जाना चाहिए.

अब दूसरा नया ट्विस्ट आंदोलनकारियों की तरफ से आया. जिसमें उन्होंने इस आंदोलन में रिलायंस-अडानी प्रोडक्ट के बायकॉट की बात कही. जिओ की सिम लौटाने की बात कर दी. इस कहानी में अब अंबानी अडानी को लाने का अर्थ है कि सिविल सोसाइटी की छाया या उनकी प्रेरणा इस आंदोलन पर दिख रही है.

जब ऐसा होता है कि विपक्ष भी कूद जाए और गैर किसान सिविल सोसाइटी के समर्थन भी उनके पास जुटने लग जाएं, तो सरकारें ये काम करती हैं वो आंदोलन में विदेशी हाथ, दूसरे तत्वों के आने की बात करती है कहा जाता है कि आंदोलन भटक रहा है गुमराह किया जा रहा है. इस तरह की बातें अब होना शुरू हो जाएंगी यहां जो कोर आंदोलनकारी हैं उनको देखना होगा कि वो इसकी प्रमाणिकता को कैसे नष्ट नहीं होने देते हैं.
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आंदोलन को बीजेपी समर्थक दलों का भी साथ

बहुत सारे लोग इसको बड़ा सीमित आंदोलन समझ रहे थे. अब भी मान रहे हैं कि पंजाब के किसान, हरियाणा के किसान, अमीर किसानों का आंदोलन है और पूरे देश के किसान ऐसा नहीं चाहते. लेकिन इसमें एक ध्यान देने वाली बात है, कि शरद पवार जो एक मराठा इंटरेस्ट ग्रुप है. बीजेपी की मित्र पार्टियां वाईएसआर, बीजेडी और टीआरएस ने समर्थन दिया है, अन्ना हजारे ने भी सांकेतिक अनशन रखा.

ये सब बातें ये संकेत दे रही हैं कि हो सकता है ये आंदोलन बड़ा भी हो जाए हो सकता है ये सीमित भी रहे. जब इस प्रकार के अलग-अलग समूह किसान आंदोलन के साथ जुड़ रहे हैं और वो सामाजिक समूह हैं तो ऐसे में इस आंदोलन को इग्नोर कर देना या इसको डिसमिस कर देना सरकार की रणनीतिक गलती होगी. सरकार की हमेशा कोशिश करती है कि वो यू टर्न ले भी तो मालूम ना पड़े, वो यू-टर्न ढूंढ रही है और अब इसका ये काम और ज्यादा कठिन हो गया है.

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