अयोध्या में राम मंदिर का भूमि पूजन संपन्न हो गया है. लेकिन ये भारत के इतिहास का एक टर्निंग प्वाइंट है. मेरी समझ से अब 15 अगस्त यानी आजादी के दिन से भी बड़ा दिन 5 अगस्त हो सकता है, क्योंकि जिस तरह की बातें वहां पर कही गईं उसके आधार पर यही लगता है. क्योंकि इसे आजादी की लड़ाई से भी बड़ा आंदोलन बताया गया. जिसका मतलब ये है कि अगर पिछले साल 5 अगस्त को कश्मीर में धारा 370 को खत्म करके भारत का एक दूसरी तरह से नक्शा गढ़ दिया गया था, उसके एक साल बाद अगर अयोध्या में भूमि पूजन होता है तो उससे ये मैसेज साफ है कि जो हिंदू राष्ट्र की कल्पना एक पार्टी की है उसे मजबूत करने की दिशा में ये कदम है.
अब इस बात से आश्चर्य नहीं करना चाहिए अगर 5 अगस्त को भारत की स्थापना, नवनिर्माण या जागरण जैसे किसी दिवस के साथ एक राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाना शुरू कर दिया जाए.
टारगेट ऑडियंस के लिए सुगठित भाषण
अब अगर पीएम मोदी के भाषण की बात करें तो हमेशा की तरह उनका भाषण बेहद सुगठित था. पीएम मोदी हमेशा टारगेट ऑडियंस को देखते हुए बात करते हैं, कि जो उन्हें सुन रहे हैं उन्हें उनकी बात अच्छे से समझ आए. इसीलिए उन्होंने तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और अयोध्या के ऐतिहासिक प्रसंगों और विंबों के जरिए अपने उन ऑडियंस तक पहुंचने की कोशिश की.
आप कह सकते हैं कि पूरा भाषण वोटर रीच आउट से भरा हुआ था. लेकिन पीएम मोदी से यूपी के सीएम का नाम लेते हुए एक स्लिप ऑफ टंग हुआ. उनको लोग योगी आदित्यनाथ कहते हैं. वो जब खुद शपथ ले रहे थे तो उन्होंने अपना नाम आदित्यनाथ योगी बताया था. लेकिन आज मोदी जी ने उन्हें आदित्य योगीनाथ जी कहकर बुलाया, शायद ये गलती हो सकती है.
भारत के लिए एक टर्निंग प्वाइंट
इस भूमि पूजन के बाद भारत के पिछले इतिहास, आगामी इतिहास और राजनीति पर चर्चाएं होती रहेंगीं. लेकिन जो दो प्रकार के नैरेटिव चलेंगे अगर उसे समझना हो तो एक तो बीजेपी के बड़े नेता विनय सहस्रबुद्धे ने आज एक लेख लिखकर कहा है कि ये भारत के लिए एक तरह का टर्निंग प्वाइंट है. क्योंकि राम मंदिर आंदोलन भारत के विमर्श और राजनीति को हमेशा के लिए बदल चुका है.
लेकिन हिंदू इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि जब तक जातिगत भेदभाव खत्म नहीं होते तब तक राम राज्य और हिंदू एकता की कल्पना एक कल्पना ही बनकर रहेगी. ये जरूरी बात इसलिए है क्योंकि अभी भी बीजेपी और आरएसएस के लिए ये कोई मंजिल या मुकाम नहीं है. ये सिर्फ एक पड़ाव है, उनका जो नैरेटिव है वो लगातार चलता रहेगा.
लेकिन इसके काउंटर नैरेटिव को देश के प्रख्यात चिंतक प्रताप भानु मेहता अच्छे से समझाते हैं. वो कहते हैं, राम तो आदर्श और करुणा के प्रतीक हैं. लेकिन ये मंदिर राजनीतिक ताकत के जरिए हिंदुत्व के उपनिवेशन का एक प्रयास है. उनका कहना है कि, जिन शक्तियों ने ये काम किया है उन्होंने राम के नाम को प्रतिशोध का पर्यायवाची बना दिया है. लेकिन एक बात पर ध्यान दीजिएगा कि लोकतंत्र के वेश में राजतंत्र की स्थापना की कोशिश हो रही है, ये समझना जरूरी है.
डरा हुआ विपक्ष, टीवी के शोर में दबती आवाजें
जहां तक विपक्ष का सवाल है, तो उनके मन में इस कल्चरल प्रोजेक्ट का डर इस तरह से बैठ गया है कि अगर एक काउंटर राजनीतिक विमर्श लेकर भी आना है तो वो किस शब्दावली में लाया जाए? सरकार की आलोचना कैसे करें? बीजेपी को कैसे घेरें, उन्हें नहीं पता. तो ज्यादातर प्रमुख दलों ने राम मंदिर के भूमि पूजन में विरोध या आलोचना की कोशिश नहीं की है.
जो विरोध या अलोचना या फिर जो मतांतर सामने आ रहे हैं वो देश के गिने-चुने बुद्धिजीवियों के जरिए सामने आ रहे हैं. लेकिन टेलीविजन चैनलों के शोर के अंदर जब धार्मिक चैनलों जैसा प्रसारण चल रहा था, खबर और खबर की समीक्षा तरह-तरह के ओपिनियन गायब थे तो उसमें ये आवाज भी एक तरह से नक्कारखाने में तूती की आवाज है.
जो आवाज चलेगा और गूंजेगी उसका एक अच्छा प्रतीक बीजेपी की कर्नाटक की एक नेता शोभा करंडलजे ने दिया है. उन्होंने एक तस्वीर छापी है, जिसमें राम का कद छोटा और पीएम मोदी का कद बड़ा दिखाया गया है और कहा गया है कि राम को वापस उनके घर ले जाया जा रहा है. जाहिर है कि जिस तरह के शोर और राजनीति में हम रह रहे हैं वहां पर यही आवाजें बढ़ेंगीं और पॉलिटिकल मशीन के तौर पर इस प्रकार की आस्थाओं का इस्तेमाल जारी रहेगा.
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