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RBI से सरकार की तकरार अभूतपूर्व है, असर दूर तलक दिखेगा 

आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि इतिहास के कई काम पहली बार हो रहे हैं, अब ये RBI के साथ सरकार की तकरार अभूतपूर्व है

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CBI और सरकार के बीच का टकराव एक अभूतपूर्व घटना के तौर पर सामने आया है. लेकिन ये जो RBI के साथ तकरार की नई घटना सामने आई है, ये परम-अभूतपूर्व घटना है. सूत्रों के मुताबिक, सरकार RBI एक्ट के सेक्शन 7 का इस्तेमाल कर सकती है. आज तक किसी भी सरकार ने इस कानून का इस्तेमाल नहीं किया.

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रिजर्व बैंक एक्ट के सेक्शन 7 के तहत सरकार जनहित में रिजर्व बैंक को आदेश और निर्देश दे सकती है और सेंट्रल बैंक इन्हें मानने के लिए मजबूर है.

लेकिन इसका इस्तेमाल ये बताने के लिए कभी नहीं किया गया कि RBI ऑटोनॉमस संस्थान नहीं है, इंडिपेंडेंट संस्था नहीं है.

इस पूरे मामले की खास बात क्या है?

पिछले दिनों जो आर्थिक परिस्थिति बनी, उसमें सरकार चाह रही है कि रिजर्व बैंक पैसे दे. क्योंकि सरकार का अपना फिस्कल डेफिसिट सीमा के पास पहुंच रहा है. उधर MSME को लोन मिलना बंद हो गया है, क्योंकि कमजोर सरकारी बैंकों पर आरबीआई ने नकेल कसी है. अब सरकार चाह रही है कि इसमें ढिलाई हो, जिससे MSME को पैसा मिलने लगे.

वहीं IL&FS के डिफॉल्ट के कगार पर पहुंच जाने के बाद नकदी का संकट खड़ा हो गया. पावर कंपनियों को NCLT में भेजने के मामले में भी रिजर्व बैंक और सरकार में नहीं बनी.

मुद्दा क्या है?

पिछली सरकार पर तोहमत लगाई गई कि उनके राज में एनपीए बढ़ा, क्रोनी कैपिटलिस्ट लोगों को पैसे दिए गए. लेकिन वास्तविकता ये है कि इस सरकार में एनपीए बढ़ा है, जो 10 लाख करोड़ के आसपास पहुंच चुका है. बैंकरप्सी कानून के सफल होने की रफ्तार भी बहुत सुस्त है. इसके बाद IL&FS वाली खबर के दौरान लोगों का बाजार से भरोसा भी उठा, विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकालने लगे और रुपया कमजोर हुआ. अब केंद्र सरकार को अगले चुनाव से पहले अपना फिस्कल डेफिसिट सही रखना है, तो ऐसे में सरकार रिजर्व बैंक से कह रही है, 'आपके पास रिजर्व में बहुत सारा पैसा है, आप हमें पैसे दे दीजिए'. लेकिन ऐसे फैसलों के लिए पहले से ही एक सलाह-मशविरा का सिस्टम होना चाहिए, जो दिख नहीं रहा है.

कैसे सामने आया ये 'नया' संकट?

अभी जो घटना बाहर निकलकर आई है वो बड़ी इसलिए है क्योंकि, रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कह दिया कि सरकार रिजर्व बैंक की ऑटोनॉमी को खत्म करने के लिए कुछ ऐसे काम कर रही है जो चिंता का विषय है. इससे मॉनेटरी पॉलिसी को चलाना मुश्किल हो जाएगा. वहीं सरकार ने एक बयान देकर अप्रत्यक्ष तौर पर ये कहा कि रिजर्व बैंक ने खबर लीक की है.

अब केंद्र सरकार को शायद ये फीडबैक मिला है कि सेक्शन-7 को लागू करने के कारण रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा दे देते हैं तो इससे सरकार की किरकिरी होगी. साथ ही पूरी दुनियाभर में ये एक अभूतपूर्व घटना होगी. अगर उर्जित पटेल किसी भी वजह से RBI छोड़कर जाते हैं तो भारत सरकार इस बात की कल्पना नहीं कर सकती कि देश की इकनॉमी को सिर्फ एक दो साल के लिए नहीं, बल्कि कई दशक के लिए बड़ा धक्का लगेगा.

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राजनीतिक वजह क्या है?

सरकार के अपने इस अधिकार के इस्तेमाल के पीछे राजनीतिक वजह ये है कि सरकार का फिस्कल डेफिसिट न बिगड़े. रिजर्व बैंक से पैसे मिल जाए, कार्रवाई में ढिलाई हो जाए और रुपये की कीमत में हो रही गिरावट को रोक दिया जाए. रुपये की गिरती कीमत तो राजनीति का मुद्दा बनती ही है. कुल मिलाकर सरकार के अंदर ये बेचैनी है कि चुनाव से पहले पैसे कैसे जुटाए जाएंगे.

ये भी साफ कर दें कि ऐसा नहीं कि रिजर्व बैंक के रेगुलेशन में कमियां नहीं है. लेकिन इस वक्त केंद्र और रिजर्व बैंक के बीच कौन सही-कौन गलत बताने का वक्त नहीं है. अभी इन संस्थानों से अच्छे संबंध बनाए रखने का वक्त है. सरकार ने संवाद के संकेत दिए हैं, लेकिन कहीं न कहीं संवाद तो टूटा ही था, इसलिए ही ये RBI-सरकार का टकराव सामने आया.

एक बात और है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है कि इतिहास के कई काम पहली बार हो रहे हैं? नोटबंदी, जो रिजर्व बैंक के अख्तियार की चीज थी, उसे प्लेट में लाकर रख दिया गया कि आप कर दीजिए. पहली बार हुआ कि उसके बोर्ड का एक डायरेक्टर निकाला गया, पहली बार हुआ कि जो दो नए डायरेक्टर आए हैं बोर्ड में वो सार्वजनिक जिंदगी में एक विचारधारा के लिए जाने जाते हैं. और अब सेक्शन-7 की तलवार लटक रही है. इसका संकेत पूरी दुनिया में बहुत खराब जाएगा.

RBI और सरकार के बीच हमेशा तनाव रहा है, लेकिन इसको हमेशा लोगों ने अनौपचारिक, ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत से ही सही किया है, टकराकर नहीं. अब सवाल खड़े हो गए हैं कि हम सरकार हैं या हम ही सब हैं?

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