वाराणसी के मुंडवाडीह रेलवे स्टेशन के बाहर लगा ‘लॉयन ऑन द मूव' या ‘मेक इन इंडिया’ का ये लोगो विकास का चेहरा पेश करता है. इस स्टेशन से गुजरने वाले बहुत से लोग इस मशीनी शेर के साथ सेल्फी खींचना नहीं भूलते. लेकिन इस भव्यता और ‘मेक इन इंडिया’ के सपने के पीछे की एक और हकीकत है, जो नीचे दी गई तस्वीर बयां कर रही है.
इसमें एक कर्मचारी रेलवे ट्रैक के किनारे बने सिग्नल पर मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाकर ट्रेन को आने का संकेत दे रहा है. मतलब सपना आधुनिक डिजिटल इंडिया का है, लेकिन मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन में आज भी जो व्यवस्था लागू है, वो अंग्रेजों के जमाने की है.
मंडुवाडीह का मैनुअल सिस्टम
देश के ज्यादातर रेलवे स्टेशन पर ट्रैक आरआरआई (रूट रिले इंटरलॉकिंग) सिस्टम लागू हो चुका है. यह एक ऐसा इलेक्ट्रॅानिक सिग्नल सिस्टम है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा ट्रेनों की कम से कम समय में आवाजाही सुनिश्चित की जाती है. लेकिन प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन पर अब भी अंग्रेजों के जमाने का स्टैंडर्ड वन सिस्टम लागू है.
देश के कुछ अन्य स्टेशनों पर भी यह स्टैंडर्ड वन सिस्टम लागू है. लेकिन वो सभी मीटर गेज की रेलवे लाइन हैं. ब्रॉडगेज रेलवे स्टेशनों में कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी जगह आरआरआई सिस्टम लागू हो चुका है. उन अपवादों में मंडुवाडीह भी शामिल है.
कैसे काम करता है यह सिग्नल सिस्टम
मंडुवाडीह रेलवे स्टेशन पर जो स्टैंडर्ड वन सिस्टम लागू है, उसमें ट्रेनों की आवाजाही का सारा काम मैनुअल तरीके से होता है. ट्रेन जब स्टेशन से होकर गुजरती है, तो उसे किस प्लेटफॉर्म पर लगाना है या फिर किस ट्रैक के जरिए गुजरने देना है, ये सब मैनुअल तरीके से सेट किया जाता है. ट्रैक बदलने का काम बेहद तकनीकी होता है.
इस काम को प्वाइंटमैन करते हैं. इसमें स्टेशन की सभी पटरियों की एक खास चाबी होती है. उस चाबी से पटरी पर लगा ताला खोला जाता है. उसके बाद पटरी बदली जाती है और फिर पटरी पर ताला लगा दिया जाता है, ताकि ट्रेन के आने पर पटरी अपनी जगह से हिले नहीं. ताला लगाने के बाद प्वाइंटमैन तेजी से स्टेशन मास्टर के रूम में आता है. इस आने-जाने के क्रम में वह करीब 1-1.5 किलोमीटर की दूरी तय करता है. स्टेशन मास्टर के कमरे में पहुंच कर वह ट्रैक की चाबी सौंप देता है.
चाबी मिलने पर स्टेशन मास्टर के कमरे से मंडुवाडीह और अगले स्टेशन के बीच पड़ने वाले सभी रेलवे क्रॉसिंग बंद करने का आदेश जारी होता है. थोड़ी देर बाद दोबारा फोन करके उस आदेश पर अमल की पुष्टि की जाती है. सबकुछ ठीक तरीके से हो जाने पर अंग्रेजों के जमाने की बनी मशीन के जरिए एक टोकन निकाला जाता है. यह टोकन लोहे से बनी एक खास किस्म की गेंद होती है. इस टोकन को ‘अथॉरिटी टू प्रोसीड’ यानी ‘प्रस्थान की पाथिका’ कहते हैं.
यह अथॉरिटी टू प्रोसीड मिलने के बाद ट्रेन को मैनुअल तरीके से सिग्नल दिया जाता है. सिग्नल मिलने पर ड्राइवर ट्रेन आगे बढ़ाता है और पिछले स्टेशन से मिले टोकन यानी अथॉरिटी टू प्रोसीड को यहां सौंपता है और यहां का टोकन लेकर आगे बढ़ जाता है.
कैसे देते हैं ट्रेन को रुकने या जाने का सिग्नल?
स्टेशन मास्टर के कमरे से टोकन यानी अथॉरिटी टू प्रोसीड जारी होने के बाद ट्रेन को प्लेटफॉर्म पर लाने या फिर स्टेशन से होकर गुजरने के लिए ग्रीन सिग्नल देने की प्रक्रिया शुरू की जाती है. आर्म सिग्नल (हत्था सिग्नल) का लीवर गिराया जाता है.
इसका मतलब है कि अब ट्रेन स्टेशन पर आ सकती है. यह काम बहुत मुस्तैदी से होता है, क्योंकि ट्रेन जैसे ही स्टेशन में प्रवेश करने लगती है, ठीक उसी समय सिग्नल का लीवर फिर से उठाना होता है, ताकि अगर उसके पीछे कोई दूसरी ट्रेन आ रही हो तो उसे रुकने का सिग्नल मिले.
इसमें एक सेकेंड की देरी भी घातक हो सकती है, इसलिए लीवर गिराने और उठाने का काम स्टेशन के ऊपर बने लीवर रूम से होता है. वहां एक झरोखा बना होता है. उस झरोखे से करीब एक-डेढ़ किलोमीटर दूर तक रेलवे ट्रैक नजर आता है. उसी झरोखे से देख कर लीवर रूम में मौजूद कर्मचारी लीवर गिराने और उठाने का फैसला लेता है. यहां किसी वजह से अगर ट्रेन उसे दिखाई नहीं देती है, तो वह फोन से प्वाइंटमैन से बात करता है और उसकी जानकारी लेता है.
रात में ढिबरी के भरोसे चलती है ट्रेन
यहां गौर करने लायक एक और बात है. दिन में तो सबकुछ दूर से दिखाई देता है. लेकिन शाम होने के साथ ही आर्म सिग्नल नजर नहीं आते. इसलिए ट्रेन को रोकने या गुजरने देने के लिए लाल और हरी रोशनी का इस्तेमाल किया जाता है. उसके लिए मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाई जाती है. रात में एक कर्मचारी रेलवे पटरी के किनारे बने 14 फुट ऊंचे सिग्नल पर चढ़ता है और फिर माचिस से ढिबरी जलाता है.
अगर हवा तेज चली और ढिबरी बुझ गई, तो ट्रेन आगे तभी बढ़ती है, जब दोबारा ढिबरी जलाई जाती है. दूर से उसी रोशनी को देख कर ट्रेन का ड्राइवर रुकने या चलने का फैसला लेता है.
आखिर क्यों लागू है अंग्रेज जमाने का सिस्टम?
दरअसल, मंडुवाडीह को आधुनिक बनाने की योजना यूपीए सरकार के दौरान ही बन गई थी. यहां के लिए भी आरआरआई सिस्टम खरीदा जा चुका था. इमारत भी बनाई जा चुकी थी. कंट्रोल रूम तैयार था. लेकिन उसी बीच सरकार बदल गई. नरेंद्र मोदी यहां से सांसद बने और देश के प्रधानमंत्री भी. अब मंडुवाडीह कोई आम रेलवे स्टेशन नहीं रह गया था. यह प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का रेलवे स्टेशन बन गया था.
लिहाजा यहां काम छोटा और सामान्य नहीं हो सकता. योजना को विस्तार दे दिया गया. सबकुछ भव्य करने का फैसला ले लिया गया. उसी भव्यता के चक्कर में चार साल गुजर गए.
हालांकि बीते चार साल में यहां बहुत काम हुआ है. यह स्टेशन बहुत सुंदर दिखता है और साफ-सुथरा भी. पांच नए प्लेटफॉर्म जोड़े जा रहे हैं. इस पर काम तेजी से चल रहा है. एस्क्लेटर लगा दी गई हैं. लिफ्ट भी लगा दी गई है. मतलब यहां सबकुछ प्रधानमंत्री की साख के हिसाब से किया जा रहा है, लेकिन अब भी कई काम बाकी हैं. उसमें से एक काम स्टेशन में आधुनिक आरआरआई सिस्टम लगाना भी शामिल है.
अधिकारियों के मुताबिक, जब सभी प्लेटफॉर्म तैयार हो जाएंगे, तो नया सिस्टम भी लगा दिया जाएगा. तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस नए मंडुवाडीह स्टेशन का उद्घाटन करेंगे, फिर कहीं इस अंग्रेजों की व्यवस्था से मुक्ति मिल पाएगी.
2019 में आम चुनाव हैं. उम्मीद है कि यह काम उससे पहले पूरा हो जाएगा.
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