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चौधरी चरण सिंह: जिन्होंने किसानी को फाइलों से निकालकर आंदोलन बनाया

1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में रहा अहम रोल

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(इस आर्टिकल को सबसे पहले 23 दिसंबर 2018 को प्रकाशित किया गया था. चौधरी चरण सिंह की पुण्यतिथि पर इसे दोबारा पब्लिश किया गया है.)

कैमरा : शिव कुमार मौर्या

वीडियो एडिटर : संदीप सुमन, मोहम्मद इब्राहिम

बचपन से स्कूल की किताबों में आपने पढ़ा होगा कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि इस कृषि प्रधान देश के सबसे बड़े किसान नेता का नाम बताइये तो आप शायद सोच में पड़ जाएंगे. मैं बताता हूं- चौधरी चरण सिंह.

वो नेता जिसने खेती-किसानी के मुद्दे को दफ्तरी फाइलों और गली-नुक्कड़ से उठाकर एक राष्ट्रीय आंदोलन में बदल दिया. नेतागिरी की वो जमीन चौधरी चरण सिंह ने ही तैयार की थी जिस पर खड़े होकर आज राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी सरीखे नेता किसानों की बात कर रहे हैं.

चरण सिंह 23 दिसंबर 1902 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नूरपुर गांव में पैदा हुए. पिता खेती करते थे लेकिन बेटा पढ़ाई में तेज था. खेत में हल जोतने के साथ-साथ चरण सिंह ने 1927 में मेरठ कॉलेज से बैरिस्टर की डिग्री ली.

किसानों के खैरख्वाह

चरण सिंह ने राजनीतिक पारी कांग्रेस पार्टी के साथ शुरू की. 1937 की अंतरिम सरकार में उत्तर प्रदेश के छपरौली से विधायक बने.

1939 में किसानों की कर्ज माफी से जुड़ा एक बिल तैयार करने और उसे पास करवाने में उन्होंने बड़ी भूमिका अदा की. ये उस वक्त का क्रांतिकारी बिल था जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश के हजारों किसान साहूकारों के शिकंजे से आजाद हुए और उनकी जमीन नीलाम होने से बची.

बिल को देश के कई दूसरे राज्यों ने भी अपनाया.ये चौधरी चरण सिंह की राजनीति के मैदान में पहली बड़ी छलांग थी. इसके बाद 1946, 1952, 1962 और 1967 के तमाम चुनाव उन्होंने छपरौली से ही जीते. यूपी के कृषि मंंत्री के तौर पर उन्होंने 1952 में जमींदारी सिस्टम को खत्म किया.

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कांग्रेस में रहकर नेहरू का विरोध

आपको जानकर हैरानी होगी कि कांग्रेस पार्टी में होने के बावजूद चौधरी चरण सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोधी थे. वो मानते थे कि नेहरू को गांव-देहात की असलियत का अंजादा नहीं है. नेहरू ने जब देश में सहकारी खेती लानी चाही तो चरण सिंह ने उसका पुरजोर विरोध किया.

1959 में नागपुर में हुए कांग्रेस के सालाना सेशन में उन्होंने सहकारी खेती की सिफारिश करने वाले प्रस्ताव के खिलाफ लंबी स्पीच दी. नेहरू चरण सिंह के कद को जानते थे इसलिए उन्हें सहकारी खेती को बढ़ावा देने का इरादा टालना पड़ा.

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छोड़ा कांग्रेस का हाथ

1967 में चरण सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और भारतीय क्रांति दल यानी BKD के नाम से अलग पार्टी बनाई. गांवों में मजबूत पकड़, जमीनी मुद्दों के प्रति समर्पण और एक किसान नेता के नेतृत्व के चलते BKD यूपी में एक मजबूत पार्टी बनकर उभरा.

1969 के यूपी चुनाव में बीकेडी का प्रदर्शन आजादी के बाद किसी भी गैर-कांग्रेसी पार्टी का सबसे बढ़िया प्रदर्शन रहा. इसके बाद चरण सिंह दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बने.

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प्रधानमंत्री की कुर्सी तक

1974 के यूपी चुनाव के बाद चरण सिंह ने दिल्ली यानी केंद्र की राजनीति का रुख किया. वो जेपी आंदोलन का दौर था. ‘जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो’ और ‘संपूर्ण क्रांति’ के नारे सड़कों पर गूंज रहे थे.

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी. दूसरे तमाम गैर-कांग्रेसी नेताओं की तरह चरण सिंह को भी जेल जाना पड़ा.

इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी को मजबूत करने में चौधरी चरण सिंह की अहम भूमिका रही. उस दौर में इंदिरा गांधी को हराना की बात नामुमकिन लगती थी. लेकिन 1977 का आमचुनाव जनता पार्टी ने BKD के सिंबल यानी ‘हलधर किसान’ पर लड़ा और सरकार बनाई.

चरण सिंह जनता पार्टी की मोरारजी सरकार में वित्त मंत्री, गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री जैसे पदों पर रहे. लेकिन ‘मठ से बड़े मठाधीशों’ वाली मोरारजी सरकार जल्द ही बिखर गई.

28 जुलाई 1979 को चरण सिंह कांग्रेस पार्टी की सपोर्ट से ही प्रधानमंत्री बने. लेकिन महज पांच महीने में उन्हें पद छोड़ना पड़ा. वो एक दिन भी संसद का सामना नहीं कर पाए.

29 मई 1987 को देश के पहले विशुद्ध किसान नेता चौधरी चरण सिंह का निधन हो गया.

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बिखरी विरासत

चरण सिंह की विरासत बेटे अजित सिंह और पोते जयंत चौधरी ने संभाली. लेकिन राष्ट्रीय लोकदल नाम की उनकी पार्टी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों तक सिमट चुकी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी को यूपी की 403 सीट में से महज एक सीट पर जीत मिली.

राजनीतिक विरासत भले ही बिखर चुकी हो लेकिन देश की राजनीति में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता. जब-जब खेती के मुद्दे देश की राजनीति में जगह बनाएंगे और नेता किसानों की बात करने पर मजबूर होंगे, चौधरी चरण सिंह याद आएंगे.

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