वीडियो एडिटर: संदीप सुमन
19वीं शताब्दी में जर्मनी के पहले चांसलर और यूरोप के प्रभावी राजनेता रहे ओटो फॉन बिस्मार्क ने कहा था-
“Politics is the art of the possible, the attainable- the art of the next best.”
यानी राजनीति संभावनाओं की कला है, जो कुछ भी हासिल करने लायक हो, उपलब्ध हो, उसे हासिल करो.
करीब डेढ़ सौ साल बाद उत्तर भारत के एक छोटे से राज्य हरियाणा में बिस्मार्क के इन शब्दों को बड़ी शान के साथ अमलीजामा पहनाया जा रहा है.
कथा जोर गरम है कि...
हरियाणा में बीजेपी और दुष्यंत चौटाला की जेजेपी का गठबंधन, जनादेश का नहीं बल्कि मौकापरस्ती का गठबंधन है. एक ऐसा गठबंधन जिसमें दोनों ही पार्टियां अपनी विचारधारा को तो धता बता ही रही हैं, अपने वोटर को भी धोखा दे रही हैं.
विधानसभा चुनाव से पहले दुष्यंत चौटाला बीजेपी को पानी पी-पी कर कोस रहे थे.
हरियाणा की वोटिंग से महज 11 दिन पहले दुष्यंत का ये ट्वीट देखिए.
इससे पहले 5 सितंबर को किया गया ये ट्वीट देखिए-
इसमें हरियाणा के बेरोजगारी आंकड़ों को शर्मनाक बताते हुए दुष्यंत मुख्यमंत्री खट्टर को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं.
जिन मनोहर लाल खट्टर के साथ दुष्यंत ने 27 अक्टूबर को शपथ ली वो उन्हें लगातार झूठा करार दे रहे थे. पूरे चुनाव प्रचार में उन्होंने बीजेपी की नीतियों की जमकर आलोचना की और बीजेपी के खिलाफ जाट-सेंटिमेंट को कैश किया.
जेजेपी पहली बार बड़े स्तर पर विधानसभा चुनाव लड़ रही थी.
लोग दुष्यंत और भाई दिग्विजय की जोड़ी वाली जेजेपी को ‘बच्चा पार्टी’ कह रहे थे. लेकिन 10 सीट जीतने के बाद सबने यही कहा कि एक नॉन-जाट मुख्यमंत्री के साथ नॉन-जाट पॉलिटिक्स करने वाली बीजेपी के खिलाफ जाट समुदाय ने जेजेपी पर भरोसा किया है. लेकिन नतीजों के महज तीन दिन के भीतर दुष्यंत ने खट्टर के साथ पद और गोपनीयता की शपथ ले ली.
युवा चौटाला ने ऐसा क्यों किया?
पहला जवाब
बीजेपी-जेजपी गठबंधन के दो दिन बाद बेटे दुष्यंत का शपथ ग्रहण देखने के लिए पिता अजय चौटाला को तिहाड़ जेल से दो हफ्ते के लिए रिहा कर दिया गया. वो अपने पिता ओम प्रकाश चौटाला के साथ साल 2013 के बाद से तिहाड़ में बंद हैं.
पूरे सोशल मीडिया में ये चर्चा रही कि अजय चौटाला की रिहाई गठबंधन की सौदेबाजी का हिस्सा थी.
जवाब नंबर-2
ये जवाब थोड़ा पॉलिटिकल है. बीजेपी से हाथ ना मिलाने की सूरत में दुष्यंत चौटाला को डर था कि उनकी पार्टी टूट सकती है. साल भर पुरानी जेजेपी का ठोस काडर नहीं है. हाल ये है कि जीतने वाले 10 विधायकों में से 6 कुछ दिन पहले ही जेजेपी में शामिल हुए थे.
यानी जाट वोटर भले ही नाराज होता रहे लेकिन दुष्यंत चौटाला के पास बीजेपी में शामिल होने के अलावा कोई चारा नहीं था.
हालांकि दुष्यंत की दलील है कि हरियाणा में स्थायी सरकार के लिए उन्होंने गठबंधन किया.
हमने न बीजेपी और न ही कांग्रेस के लिए मांगे थे वोट. जनमत ने 18 लाख 60 हजार वोट जननायक जनता पार्टी को दिए, जिससे 10 विधायक चुनकर आज विधानसभा में पहुंचे हैं. बीजेपी और जेजेपी नेतृत्व ने मिलकर ये निर्णय लिया कि प्रदेश में स्थायी सरकार चलाने के लिए हमें आगे बढ़ना पड़ेगा.दुष्यंत चौटाला, उपमुख्यमंत्री, हरियाणा
अब आते हैं बीजेपी पर
हरियाणा में जाट पॉलिटिक्स की दो धुरियां रही हैं. एक कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा और दूसरा चौटाला परिवार. हरियाणा की पॉलिटिक्स को समझने वाले जानते हैं कि बीजेपी का नॉन-जाट वोटर हुड्डा के मुकाबले चौटाला परिवार से ज्यादा दूरी महसूस करता है.
कांग्रेस पार्टी जाट, दलित और मुस्लिम के साथ ओबीसी और बनिया, ब्राह्मण, पंजाबी जैसे वोटरों को भी लुभाती है. यानी बीजेपी के वोट बैंक में तो फिर भी कुछ ओवरलैपिंग है लेकिन बीजेपी और जेजेपी का वोट बैंक बिलकुल अलग है.
इस नजरिये से सिर्फ जननायक जनता पार्टी ही नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने वोटर से धोखा किया है.
बीजेपी की डील का पॉलिटिकल एंगल
अगर 6 निर्दलीय उम्मीदवारों को पाले में लाते तो शायद सबको मंत्री पद या उसके बराबर का कुछ देना पड़ता. और डर सताता रहता कि कहीं 31 सीट वाली कांग्रेस और 10 सीट वाली जेजेपी आने वाले दिनों में विधायकों को तोड़कर कोई खेल ना कर दें.
लेकिन जेजेपी को उपमुख्यमंत्री पद के साथ 1-2 मंत्री पद देकर ये सारे खतरे खत्म हो जाएंगे. और निर्दलियों की सौदेबाजी की ताकत तो लगभग खत्म है.
जो मिल जाए वही अच्छा!
तो ऐसे में वोटर अगर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है तो करे!
बात कांग्रेस की
जानकारों का मानना है 31 सीट जीतकर कांग्रेस ने उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन किया है और बीजेपी और जेजेपी दोनों ही पार्टियों से वोटर की नाराजगी का फायदा आने वाले दिनों में कांग्रेस को हो सकता है.
अंबाला, यमुनानगर, जींद, फतेहाबाद, सिरसा, भिवानी, गुड़गांव, सोहना जैसे इलाकों की 27 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है. यानी अगर टिकट बंटवारे में ज्यादा एहतियात बरती होती तो वो मुकाबले को और कड़ा बना सकती थी.
खैर.. फिलहाल तो हरियाणा की मौजूदा पॉलिटिक्स का मजा लीजिए. देखना दिलचस्प होगा कि अलग-अलग साइज के पहियों के सहारे नई सरकार की ये कार क्या पांच साल का सफर पूरा कर पाएगी?
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