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हम ढाई महीने में कोरोना को कर सकते हैं कंट्रोल

हमने जितनी वैक्सीन अपने नागरिकों को दी है, उससे कहीं ज्यादा दूसरे देशों को दी है

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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता

हमारे देश का कोरोना संकट है न, वो पुणे की कहानी से समझाया जा सकता है. वो एक वीर योद्धा की तरह काम कर रहा है लेकिन एक त्रासदी से भी गुजर रहा है. मैं आपको आंकड़े बता रहा हूं मार्च 2021 के तीसरे हफ्ते के पुणे में करीब 25 हजार एक्टिव कोविड-19 केस हैं  और ये हिंदुस्तान के किसी भी शहर के मुकाबले सबसे ज्यादा है. अब पिछले 12 महीने में हम देखें तो साढ़े चार लाख पुणे के निवासी इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं. करीब 10 हजार लोगों की मौत हुई है. बदकिस्मती से मुंबई और दिल्ली के बाद पुणे तीसरे नंबर पर है.

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पुणे का कोविड 19 पराक्रम

चिराग तले अंधेरा एक बहुत ही जोरदार मुहावरा है. ये पुणे की कोविड 19 की वास्तविकता पर पूरी तरह फिट बैठता है. क्योंकि जो शहर कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित है वही सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) की जन्मभूमि भी है जो इस स्वास्थ्य समस्या को खत्म करने के लिए पूरी दुनिया में बहादुरी के साथ लड़ाई लड़ रही है.

एसआईआई की स्थापना 1966 में प्रतिष्ठित और मस्तमौला डॉ. सायरस पूनावाला ने की थी. वो काफी सफल रहे. आज, एसआईआई हर साल 1.5 अरब डोज के साथ दुनिया का सबसे बड़ा इम्यूनो बायोलॉजिकल्स का उत्पादक है. दुनिया में हर तीन में से दो बच्चे को सीआईआई में बनी कम से कम एक वैक्सीन ही दी जाती है. अब उनके उद्यमी बेटे अदार पूनावाला इसे संभाल रहे हैं. 2020 की दूसरी छमाही में एसआईआई ने तब तक बिना मंजूरी वाली ऑक्सफोर्ड वैक्सीन पर साहसिक दांव खेला. उन्होंने ट्रायल में चल रही वैक्सीन के बड़े स्तर पर उत्पादन के लिए करीब 800 मिलियन डॉलर जुटाए. उन्होंने बीबीसी न्यूज को बताया कि “मैंने समय से पहले 6 करोड़ डोज तैयार कर लिए थे और उन्हें अपने गोदाम में बंद कर दिया था.”

अदार पूनावाला को अब हर महीने 6 करोड़ डोज की डिलीवरी करने का भरोसा है. इस संख्या को याद रखें-6 करोड़- क्योंकि मैं जल्द ही इस पर लौटूंगा.

पुणे का ईज ऑफ डूइंग बिजनेस.. उफ्फ, वैक्सीनेशन

अपने जबरदस्त ऑटो और इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री के कारण पुणे को भारत का डेट्रॉएट और सिएटल कहा जा सकता है. शहर के 25 लाख कामगारों का एक बड़ा हिस्सा संगठित सेक्टर में काम करता है जिनको टैग, ट्रैक और मॉनिटर करना आसान है. इसलिए अगर पुणे जल्द से जल्द 50 लाख वयस्कों (70 लाख की कुल आबादी में) को वैक्सीन लगा दे तो ये कोविड 19 को पूरी तरह से, हर तरह से मात दे सकता है. अब एक गहरी सांस लीजिए और कुछ मुख्य आंकड़ों को देखिए.

  • एसआईआई पुणे में हर महीने 6 करोड़ डोज का उत्पादन कर सकती है, जिसका आधा से ज्यादा हिस्सा विदेश भेजा जा सकता है. भारत बायोटेक जैसी दूसरी कंपनियां भी हर महीने एक करोड़ से ज्यादा डोज का उत्पादन कर सकती हैं. इस उत्पादन की तुलना में हम हर महीने देश में बमुश्किल 5 करोड़ डोज का इस्तेमाल कर रहे हैं.
  • बेहाल पुणे को कोविड फ्री होने के लिए सिर्फ एक करोड़ डोज की जरूरत है (50 लाख वयस्कों को दो डोज के हिसाब से). दरअसल पुणे के उद्योगों को तेजी के साथ अपने कर्मचारियों को वैक्सीन देने की चुनौती से खुशी होगी. इससे वयस्कों की एक बड़ी जनसंख्या को वैक्सीन लग जाएगी. जिला प्रशासन को भी कोई परेशानी नहीं उठानी होगी.
  • इसलिए एसआईआई को अपने प्यारे शहर पुणे को महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए सिर्फ अपने एक महीने के निर्यात का एक-तिहाई-सिर्फ एक तिहाई हिस्सा और वो भी सिर्फ एक महीने के लिए- यहां देना होगा!
  • और इस पूरे काम को पूरा का पूरा 8 हफ्ते में खत्म किया जा सकता है!

पुणे के अलावा 13 दूसरे शहरों में भी जहां ज्यादा मामले हैं वहां कोविड 19 को इसी तरह मात दी जा सकती है.

हम सभी भारत में करीब दिखाई दे रहे कोरोना की दूसरी लहर से डरे हुए हैं. लेकिन सौभाग्य से इस बार संक्रमण असाधारण तौर पर कुछ जगहों पर ही ज्यादा हैं. सिर्फ 13 जिले ही ऐसे हैं जहां हर दिन 200 से अधिक मामले आ रहे हैं. अगर हम प्रति जिला 30-40 लाख वयस्कों का औसत भी लें, तो इन हॉटस्पॉट इलाकों में दूसरी लहर पर काबू पाने के लिए कुल 10 करोड़ डोज की जरूरत पड़ेगी तब जाकर यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन या सबका टीकाकरण हो सकेगा।

तो हमें किस बात ने रोक रखा है?

लेकिन एक बड़ी समस्या है जिसने सबकुछ रोक रखा है. हमारे नीति निर्माताओं ने वैक्सीन के हर किसी तक पहुंच पर पाबंदी लगाई हुई है. एक वयस्क व्यक्ति सीधे-सीधे जाकर वैक्सीन नहीं ले सकता. पुरुष या महिला की उम्र कम से कम 60 साल होनी चाहिए या 45 का ऊपर होने पर उसे दूसरी गंभीर बीमारियां होनी चाहिए. ये शर्म की बात है

जब देश अपनी टीकाकरण क्षमता का आधे से भी कम का इस्तेमाल कर रहा है तो ये बात हैरान करती है कि हम खतरे में पड़ी आबादी को वैक्सीन लेने से रोक रहे हैं.

दरअसल जब आप इन तथ्यों को देश में वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद रख कर देखें तो त्रासदी और उभर कर दिखाई देती है (मैं ये आर्टिकल लिखने के दिन तक लगभग, पूर्ण संख्या का इस्तेमाल कर रहा हूं).

  • भारत में 3.5 करोड़ टीके दिए जा चुके हैं, छह करोड़ डोज निर्यात किए गए हैं. हां मुझे पता है कि आप हैरान हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि हमने जितनी वैक्सीन अपने नागरिकों को दी है उससे कहीं ज्यादा दूसरे देशों को दी है, एक बहुत ही खराब 60:35 का औसत. क्या इस अनुपात को उल्टा नहीं होना चाहिए?
  • 1 मार्च से जब से हमने निजी स्वास्थ्य केंद्रों पर टीकाकरण को अनुमति दी है, हम हर दिन औसतन बमुश्किल 15 लाख टीके तक पहुंच पा रहे हैं- जो कि हमारी वैक्सीनेशन क्षमता 60 लाख डोज प्रति दिन का एक-चौथाई है. इसलिए हमारी टीकाकरण क्षमता का तीन-चौथाई हिस्सा ऐसे ही बेकार हो रहा है.

अंत में, निष्कर्ष निकालने के लिए, आइए, सख्ती और सरलता से ये सवाल पूछते हैं: हम खतरे में पड़े वयस्कों को, उनकी उम्र या बीमारी पर ध्यान दिए बिना, टीका लेने से क्यों रोक रहे हैं जब हमारी वैक्सीनेशन की क्षमता बहुत ज्यादा है और बड़ी मात्रा में टीके भी उपलब्ध हैं?

(राघव बहल क्विंटिलियन मीडिया के को-फाउंडर और चेयरमैन हैं, जिसमें क्विंट हिंदी भी शामिल है. राघव ने तीन किताबें भी लिखी हैं-'सुपरपावर?: दि अमेजिंग रेस बिटवीन चाइनाज हेयर एंड इंडियाज टॉरटॉइस', "सुपर इकनॉमीज: अमेरिका, इंडिया, चाइना एंड द फ्यूचर ऑफ द वर्ल्ड" और "सुपर सेंचुरी: व्हाट इंडिया मस्ट डू टू राइज बाइ 2050")

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