वीडियो एडिटर: मोहम्मद इरशाद आलम, अभिषेक शर्मा
वीडियो प्रोड्यूसर: शोहिनी बोस
‘हम देखेंगे, लाजिम है कि हम भी देखेंगे, हम देखेंगे’ फैज की बेजोड़ नज्म, एसिड अटैक सर्वाइवर पर दीपिका की 'साहसी' फिल्म 'छपाक' को सपोर्ट और CAA-NRC के खिलाफ प्रदर्शन रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं.
ये सब हमें बता रहा है कि ये जो इंडिया है न, वो अभी-अभी कुछ बदला है. अपने देश में विचारधारा की जंग खत्म नहीं हुई है. सच तो ये है कि ऐसी जंग हमारे देश ने कभी देखी नहीं थी और ये अच्छा है, लोकतांत्रिक है..जैसे कि इसे होना चाहिए.
क्या दीपिका पादुकोण को JNU जाना चाहिए था? उन्हें JNUSU के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बगल में खड़ा होना चाहिए था या नहीं? क्या ऐसा कर वो 'टुकड़े टुकड़े गैंग' की मेंबर बन गई? और क्या इन सब के कारण आपको उनकी फिल्म 'छपाक' का बहिष्कार करना चाहिए? ताकि आप ये जता सकें कि आप देशभक्त हैं? या उन्हें JNU जाने का पूरा हक है? किसी आंदोलन को सपोर्ट करने का पूरा हक है? जब तक वो ये सब शांतिपूर्ण तरीके से करें.
ये हैशटैग देखिए- #ISupportDeepika #Boycott_Chhapaak #ChhapakDekhoTapaakSe #TaxFreeChhapaak #DeepikaBoycottDebate- साफ है कि मामला एक तरफा नहीं है. साफ है कि दीपिका के JNU जाने पर बहस हो रही है और ये अच्छा है. लोकतांत्रिक है जैसा कि इसे होना चाहिए।
सच तो ये है कि बॉलीवुड की A-लिस्ट स्टार को अगर नेगेटिव पब्लिसिटी का डर नहीं है, अगर उन्हें सरकार का डर नहीं है तो इसका मतलब है कि देश में असहमति की आवाज जिंदा है. और बोलने वालों में सिर्फ दीपिका ही नहीं है. एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री से अनुराग कश्यप, फरहान अख्तर, कबीर खान, कमल हासन नसीरुद्दीन शाह जैसे कई और दिग्गजों ने आवाज उठाई है.
हजारों गुमनाम और निडर छात्रों की आवाज में आवाज मिला कर इन सितारों ने ये कहने की कोशिश की है कि हमें समावेशी हिंदुस्तान चाहिए. न कि ऐसा हिंदुस्तान जो सिर्फ बहुसंख्यकों का हो.
अब जरा फैज अहमद फैज की नज्म ‘हम देखेंगे’ को लीजिए. क्या ये गाने से मैं भारत विरोधी हो जाता हूं?
पाकिस्तान के एक नामी शायर की नज्म भारत में किसी आंदोलन का मार्गदर्शन क्यों नहीं कर सकती? क्या भारत में इसे गाने पर लोग देशद्रोही हो जाते हैं? कुछ दिन पहले तक ये गाने से मुझे चुप कराया जा सकता था, लेकिन आज कई जगहों पर प्रदर्शनकारी इसे गा रहे हैं और उन्हें राजद्रोह के केस में गिरफ्तार नहीं किया जा रहा है. देश के गृह मंत्री अमित शाह भले ही कह रहे हैं कि यहां CAA लागू हो कर रहेगा, लेकिन उतनी ही शिद्दत से CAA का विरोध भी हो रहा है. साफ है कि ये एक डिबेट है जो खत्म नहीं हुई है और ये अच्छा है, लोकतांत्रिक है जैसा कि इसे होना चाहिए.
मार्च 2018 में लगभग पूरा देश भगवा रंग में रंग था. जिस राज्य में जाइए वहीं बीजेपी या उसकी सहयोगी पार्टी का राज था. लेकिन 20 महीने बाद जनवरी 2020 में भारत का नक्शा अलग दिखता है. भगवा काफी सिमट चुका है. अगर आप इस मैप का 'छपाक' टेस्ट करें तो पाएंगे कि इस मैप में कुछ राज्यों ने 'छपाक' फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है तो कुछ ने नहीं. कुछ दीपिका को JNU जाने की सजा दे रहे हैं तो कुछ नहीं. लेकिन गौर करने लायक बात है मीलॉर्ड, इंडिया के मैप पर वैकल्पिक विचारधारा को भी जगह मिली है और ये अच्छा है. लोकतांत्रिक है जैसा कि इसे होना चाहिए.
मजेदार बात ये है कि आम लोगों के आंदोलन ने देश के नेताओं को भी बांट दिया है. विपक्ष ही नहीं बीजेपी के सहयोगी भी अलग-अलग भाषा में बोल रहे हैं. CAA का ज्यादा राजनीतिक विरोध नहीं हुआ लेकिन NRC के मामले में पीएम तक को पुनर्विचार करना पड़ रहा है.
BJP की सहियोगी पार्टियां- अकाली दल, JDU और LJP तक ने NRC का विरोध किया है. AIADMK, BJD तक ने NRC से दूरी बना ली है. NDA से अलग होने के बाद शिवसेना भी NRC के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को सपोर्ट कर रही है.
लगता है उद्धव ठाकरे भी जाग गए हैं. वो शिवसेना के मुस्लिम विरोधी स्टैंड में नरमी ला रहे हैं. ममता बनर्जी वही कर रही हैं जो उन्हें करना पसंद है, सड़कों पर प्रोटेस्ट को लीड कर रही हैं. कुल मिलकर अब सिर्फ मोदी-मोदी नहीं है. दूसरे पॉलिटिकल नेरेटिव की भी बात हो रही है और ये अच्छा है, लोकतांत्रिक है जैसा की इसे होना चाहिए.
ये जो इंडिया है ना- यहां पर बहुसंख्यकवाद अभी तक धर्मनिरपेक्षता को मिटा नहीं पाया है. निरंकुशता ने पूरी तरह लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म नहीं किया है.
असहमति, बहस और विविधता जो खत्म होती जा रही थी, उसने सामाजिक जीवन में जबरदस्त तरीके से वापसी की है. उसने वापसी की है इंडिया की यूनिवर्सिटी में, कॉलेज में, इंडिया के मैदानों में, बड़े शहरों में, छोटे कस्बों में, भारत बदल रहा है, एक बार फिर खुद को तलाश रहा है और ये अच्छा है, लोकतांत्रिक है जैसा कि इसे होना चाहिए.
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